व्यासजी बोले - शुकदेव ! तदनन्तर मार्कण्डेयजी शेषशय्यापर सोये हुए उन चराचरगुरु जगदीश्वर भगवान् विष्णुको प्रणाम करके उनका स्तवन करने लगे ॥१॥
मार्कण्डेयजी बोले - भगवन् ! विष्णो ! आप प्रसन्न हों । पुरुषोत्तम ! आप प्रसन्न हों । देवदेवेश्वर ! गरुडध्वज ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों । लक्ष्मीपते विष्णो ! धरणीधर ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों । लोकनाथ ! आदिपरमेश्वर ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों । कमलके समान नेत्रोंवाले सर्वदेवेश्वर ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों ! समुद्रमन्थनके समय मन्दर पर्वतको धारण करनेवाले मधुसूदन ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों । लक्ष्मीकान्त ! भुवनपते ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों, । आदिपुरुष महादेव ! केशव ! आप मुझपर प्रसन्न हों, प्रसन्न हों ॥२ - ५॥
कृष्ण ! अचिन्तनीय कृष्ण ! अव्यय विष्णो ! विश्वके रुपमें रहनेवाले एवं व्यापक व्यक्त होते हुए भी अव्यक्त ! परमेश्वर ! आपकी जय हो, आपको मेरा प्रणाम है । अजेय देव ! आपकी जय हो, जय हो । अविनाशी सत्य ! आपकी जय हो, जय हो । सबका शासन करनेवाले काल ! आपकी जय हो, जय हो ! सर्वमय ! आपकी जय हो, आपको नमस्कार है । यज्ञेश्वर ! नाथ ! व्यापक विश्वनाथ ! आपकी जय हो, जय हो ! स्वामिन् ! भूतनाथ ! सर्वेश्वर ! विभो ! आपकी जय हो, जय हो; आपको प्रणाम है । पापहारी ! अनन्त ! जन्म तथा वृद्धावस्थाके भयको नष्ट करनेवाले देव ! आपकी जय हो, जय हो ! भद्र ! अतिभद्र ! ईश ! कल्याणमय प्रभो ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है । कामनाओंको पूर्ण करनेवाले ककुत्स्थकुलोत्पन्न श्रीराम ! सम्मान देनेवाले माधव ! आपकी जय हो, जय हो । देवेश्वर शंकर ! लक्ष्मीपते ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है । कुडकुमके समान अरुण कान्तिवाले कमलनयन ! आपकी जय हो, जय हो ! चन्दनसे अनुलिप्त श्रीअङ्गोंवाले श्रीराम ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है । देव ! जगन्नाथ ! देवकीनन्दन ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है । नील कमलकीसी आभावाले श्यामसुन्दर ! सुन्दरी श्रीराधाके प्राणवल्लभ ! आपकी जय हो, जय हो । सर्वाङ्गसुन्दर ! वन्दनीय प्रभो ! आपको नमस्कार है; आपकी जय हो, जय हो ! सब कुछ देनेवाले सर्वेश्वर ! कल्याणदायी सनातन पुरुष ! आपकी जय हो, जय हो । भक्तोंकी कामनाओंको देनेवाले प्रभुवर ! आपकी जय हो, आपको नमस्कार है ॥६ - १४॥
जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है तथा जो कमलकी माला पहने हुए हैं, उन भगवानको नमस्कार है । लोकनाथ ! वीरभद्र ! आपको बार - बार नमस्कार है । चतुर्व्यूहस्वरुप जगदीश्वर ! आप त्रिभुवननाथ देवाधिदेव नारायणको नमस्कार है । पीताम्बरधारी वासुदेवको प्रणाम है, प्रणाम है । शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले नरसिंहस्वरुप आप भगवान् विष्णुको नमस्कार है, नमस्कार है । भुवनेश्वर ! चक्रधारी विष्णु, कृष्ण, राम और भगवान् शिवके रुपमें वर्तमान आपको बार - बार नमस्कार है । सबके स्वामी श्रीधर ! अच्युत ! वेदान्त शास्त्रके द्वारा जाननेयोग्य आप अन्तरहित भगवान् विष्णुको बारम्बार नमस्कार है । लोकाध्यक्ष ! जगत्पूज्य परमात्मन् ! आपको नमस्कार है ॥१५ - १९१/२॥
आप ही समस्त संसारकी माता और आप ही सम्पूर्ण जगतके पिता हैं । आप पीड़ितोंके सुहद हैं; आप सबके मित्र, प्रियतम, पिताके भी पितामह, गुरु, गति, साक्षी, पति और परम आश्रय हैं । आप ही ध्रुव, वषटकर्ता, हवि, हुताशन ( अग्रि ), शिव, वसु, धाता, ब्रह्मा, सुरराज इन्द्र, यम, सूर्य, वायु, जल, कुबेर, मनु, दिन - रात, रजनी, चन्द्रमा, धृति, श्री, कान्ति, क्षमा और धराधर शेषनाग हैं । चराचरस्वरुप मधुसूदन ! आप ही जगतके स्रष्टा, शासक और संहारक हैं तथा आप ही समस्त संसारके रक्षक हैं । आप ही करण, कारण, कर्ता और परमेश्वर हैं । हाथमें शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले माधव ! आप मेरा उद्धार करें । कमलदललोचन प्रियतम ! शेषशय्यापर शयन करनेवाले पुरुषोत्तम आपको ही मैं सदा भक्तिके साथ प्रणाम करता हूँ । देव ! जिसमें श्रीवत्सचिह्न शोभा पाता है, जो जगतका आदिकारण है, जिसका वर्ण श्यामल और नेत्र कमलके समान हैं तथा जो कलिके दोषोंको नष्ट करनेवाला है, आपके उस श्रीविग्रहको मैं नमस्कार करता हूँ ॥२० - २७॥
जो लक्ष्मीजीको अपने हदयमें धारण करते हैं, जिनका शरीर सुन्दर है, जो दिव्यमालासे विभूषित हैं, जिनका पृष्ठदेश सुन्दर और भुजाएँ बड़ी - बड़ी हैं, जो सुन्दर आभूषणोंसे अलंकृत हैं, जिनकी नाभिसे पद्म प्रकट हुआ है, जिनके नेत्र कमलदलके समान सुन्दर और विशाल हैं, नासिका बड़ी ऊँची और लम्बी है, जो नील मेघके समान श्याम हैं, जिनकी भुजाएँ लम्बी, शरीर सुरक्षित और वक्षःस्थल रत्नोंके हारसे प्रकाशमान हैं, जिनकी भौंहें, ललाट और मुकुटसभी सुन्दर हैं, दाँत चिकने और नेत्र मनोहर हैं, जो सुन्दर भुजाओं और रुचिर अरुण अधरोंसे सुशोभित हैं, जिनके कुण्डल रत्नजटित होनेके कारण जगमगा रहे हैं, कण्ठ वर्तुलाकार है और कंधे मांसल हैं, उन रसिकशेखर श्रीधर हरिको नमस्कार है ॥२८ - ३१॥
जो अजन्मा एवं नित्य होनेपर भी सुकुमारस्वरुप धारण किये हुए हैं, जिनके केश काले - काले और घुँघराले हैं, कंधे ऊँचे और वक्षःस्थल विशाल हैं, आँखें कानोंतक फैली हुई हैं, मुखारविन्द सुवर्णमय कमलके समान परम सुन्दर है, जो लक्ष्मीके निवासस्थान एवं सबके शासक हैं, सम्पूर्ण लोकोंके स्रष्ट और समस्त पापोंको हर लेनेवाले हैं, समग्र शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और सभी जीवोंके लिये मनोरम हैं तथा जो सर्वव्यापी, अच्युत, ईशान, अनन्त एवं पुरुषोत्तम हैं, वरदाता, कामपूरक, कमनीय, अनन्त, मधुरभाषी एवं कल्याणस्वरुप हैं, उन निरामय भगवान् नारायण श्रीहरिको मैं सदा हदयमे नमस्कार करता हूँ ॥३२ - ३५॥
भक्तवत्सल विष्णो ! मैं सदा आपको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । इस भयंकर एकार्णवमें, जो प्रलयकालिक वायुकी प्रेरणासे विक्षुब्ध एवं चञ्चल हो रहा है, सहस्त्र फणोंसे सुशोभित ' अनन्त ' नामक शेषनागके शरीरकी विचित्र एवं रमणीय शय्यापर, जहाँ मन्द - मन्द वायु चल रही है, आपके भुजपाशमें बँधी हुई श्रीलक्ष्मीजीसे आप सेवित हैं; मैंने इस समय सर्वस्वरुप आपके रुपका यहाँपर जी भरकर दर्शन किया है ॥३६ - ३८॥
इस समय आपकी मायासे मोहित होकर मैं अत्यन्त दुःखसे पीड़ित हो रहा हूँ । दुःखरुपी पङ्कसे भरे हुए, व्याधिपूर्ण एवं अवलम्बशून्य इस एकार्णवमें समस्त स्थावरजङ्गम नष्ट हो चुके हैं । सब ओर शून्यमय अपार अन्धकार छाया हुआ है । मैं इसके भीतर शीत, आतप, जरा, रोग, शोक और तृष्णा आदिके द्वारा सदा चिरकालसे अत्यन्त कष्ट पा रहा हूँ । तात ! अच्युत ! इस भवसागरमें शोक और मोहरुपी ग्राहसे ग्रस्त होकर भटकता हुआ आज मैं यहाँ दैववश आपके चरणकमलोंके निकट आ पहुँचा हूँ । इस महाभयानक दुस्तर एकार्णवमें बहुत कालतक भटकते रहनेके कारण दुःखपीड़ित एवं थका हुआ मैं आज आपकी शरणमें आया हूँ । महामायी कमललोचन भगवन् ! विष्णो ! आप मुझपर प्रसन्न हों ॥३९ - ४३॥
कुलनन्दन कृष्ण ! आप विश्वकी उत्पत्तिके स्थान, विशाललोचन, विश्वोत्पादक और विश्वात्मा हैं; अतः दूसरेकी शरणमें न जाकर एकमात्र आपकी ही शरणमें आये हुए मुझ आतुरका आप कृपापूर्वक यहाँ उद्धार करें । पुराणपुरुषोत्तम पुण्डरीकलोचन ! आपको नमस्कार है । कज्जलके समान श्याम कान्तिवाले हषीकेश ! मायाके आश्रयभूत महेश्वर ! आपको नमस्कार है । महाबाहो ! संसार - सागरमें डूबे हुए मूझ शरणागतका उद्धार कर दें । वरदाता ईश्वर ! गोविन्द ! क्लेशरुपी महान् ग्राहोंसे भरे हुए, दुःख और क्लेशोंसे युक्त, दुस्तर एवं गहरे भवसागरमें गिरे हुए मुझ दीन, अनाथ एवं कृपणका उद्धार करें । त्रिभुवनाथ विष्णु और धरणीधर अनन्तको नमस्कार है । देवदेव ! श्रीवल्लभ ! आपको बारम्बार नमस्कार है ॥४४ - ४८॥
कृष्ण ! कृष्ण ! आप दयालु और आश्रयहीनके आश्रय हैं । मधुसूदन ! संसार - सागरमें निमग्न हुए प्राणियोंपर आप प्रसन्न हों । आज मैं एक ( अद्वितीय ), आदि, पुराणपुरुष, जगदीश्वर, जगतके कारण, अच्युतस्वरुप, सबके स्वामी और जन्म - जरा एवं पीड़ाको नष्ट करनेवाले, देवेश्वर, परम सुन्दर लक्ष्मीपति भगवान् जनार्दनको प्रणाम करता हूँ । जिनकी भुजाएँ बड़ी हैं, जो श्यामवर्ण, कोमल, सुशोभन, सुमुख और कमलदललोचन हैं, क्षीरसागरकी तरंगभङ्गीके समान जिनके लम्बे - लम्बे घुँघराले केश हैं, उन परम कमनीय, सनातन ईश्वर भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ । भगवन् ! वही जिह्वा सफल हैं, जो आपके चरणोंमें समर्पित हो चुका है तथा केवल वे ही हाथ श्लाघ्य हैं, जो आपकी पूजा करते हैं । गोविन्द ! हजारों जन्मान्तरोंमें मैंने जो - जो पाप किये हों, उन सबको आप ' वासुदेव ' इस नामका कीर्तन करनेमात्रसे हर लीजिये ॥४९ - ५३॥
व्याजसी बोले - तदनन्तर बुद्धिमान् मार्कण्डेय मुनिके इस प्रकार स्तुति करनेपर गरुडचिह्नित ध्वजावाले विश्वात्मा भगवान् विष्णुने संतुष्ट होकर उनसे कहा ॥५४॥
श्रीभगवान् बोले - विप्र ! भृगुनन्दन ! मैं तुम्हारी तपस्या और स्तुतिसे प्रसन्न हूँ । तुम्हारा कल्याण हो । तुम मुझसे वर माँगो । मैं तुम्हें मुँहमाँगा वर दूँगा ॥५५॥
मार्कण्डेयजी बोले - देवेश्वर ! यदि आज आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मैं यही माँगता हूँ कि ' आपके चरणकमलोंमें मेरी भक्ति सदा बनी रहे । ' इसके सिवा एक दूसरा वर भी मैं माँग रहा हूँ - ' देव ! देवेश्वर ! जगत्पते ! जो इस स्तोत्रसे आपकी नित्य स्तुति करे, उसे आप अपने वैकुण्ठधाममें निवास प्रदान करें ।' पूर्वकालमें तपस्या करते हुए मुझको जो आपने दीर्घायु होनेका वरदान दिया था, वह सब आज आपके दर्शनसे सफल हो गया । देवेश ! भगवन् ! अब मैं आपके चरणारविन्दोंका पूजन करता हुआ जन्म और मृत्युसे रहित होकर यहाँ ही नित्य निवास करना चाहता हूँ ॥५६ - ५९॥
श्रीभगवान् बोले - भृगुश्रेष्ठ ! मुझमें तुम्हारी अनन्य भक्ति बनी रहे तथा साधुशिरोमणे ! समय आनेपर इस भक्तिसे तुम्हारी मुक्ति भी अवश्य ही हो जायगी । तुम्हारे कहे हुए इस स्तोत्रका जो लोग नित्य प्रातः काल और संध्याके समय पाठ करेंगे, वे मुझमें सुदृढ़ भक्ति रखते हुए मेरे लोकमें आनन्दपूर्वक रहेंगे । भृगुश्रेष्ठ ! मैं दान्त ( स्ववश ) होनेपर भी भक्तोंके वशमें रहता हूँ; आतः तुम जहाँ - जहाँ रहकर मेरा स्मरण करोगे, वहाँ - वहाँ मैं पहुँच जाऊँगा ॥६० - ६२॥
व्यासजी बोले - मुनिवर मार्कण्डेयसे यों कहकर भगवान् लक्ष्मीपति मौन हो गये तथा वे मुनि इधर - उधर विचरते हुए सर्वत्र भगवान् विष्णुका साक्षात्कार करने लगे । विप्र ! बुद्धिमान् मार्कण्डेय मुनिके इस चरित्रका, जिसे पूर्वकालमें उन्होंने स्वयं ही मुझसे कहा था, मैंने तुमसे वर्णन किया । जो लोग भृगुके पौत्र मार्कण्डेयजीके इस पुरातन चरित्रका भगवान् विष्णुमें भक्ति रखते हुए नित्य पाठ करते हैं, वे पापोंसे मुक्त हो, भक्तोसे पूजित होते हुए भगवान् नृसिंहके लोकमें निवास करते हैं ॥६३ - ६५॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' मार्कण्डेय - चरित ' नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥११॥