सूतजी बोले - मुनिवरो तथा महामते भरद्वाज ! पूर्वकालमें श्रीकृष्णद्वैपायनसे इस प्रकार नाना भाँतिकी पावन पापनाशक कथाएँ सुनकर महाभाग शुक अन्य सिद्धगणोंके साथ भगवान् नारायणकी आराधना में तत्पर हो गये । ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने आपसे पाप - नाश करनेवाली मार्कण्डेय आदिकी विचित्र कथाएँ कहीं; अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥१ - ३॥
भरद्वाजजी बोले - सूतजी ! आपने पहले मुझसे वसु आदि देवताओंकी सृष्टिका उस प्रकार वर्णन किया; परंतु अश्विनीकुमारों तथा मरुद्रणोंकी उत्पत्ति नहीं कही; अतः अब उसे ही कहिये ॥४॥
सूतजी बोले - महामते ! पूर्वकालमें शक्तिनन्दन श्रीपराशरजीने विष्णुपुराणमें मरुद्रणोकी उत्पत्तिका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है तथा वायुदेवताने वायुपुराणमें अश्विनीकुमारोंकी उत्पत्ति भी विस्तारपूर्वक कही हैं; अतः मैं यहाँ संक्षेपसे ही इस सृष्टिका वर्णन करुँगा, सुनिये ॥५ - ६॥
प्रजापति दक्षकी एक कन्या अदिति नामसे प्रसिद्ध है । उनके गर्भसे ' आदित्य ' नामक पुत्र हुआ । अदितिकुमार आदित्यको त्वष्टा प्रजापतिने अपनी संज्ञा नामकी कन्या ब्याह दी । आदित्य भी त्वष्टाकी रुपवती एवं मनोरमा कन्या संज्ञाको पाकर उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगे । संज्ञा अपने पतिके तापको न सह सकनेके कारण कुछ कालके बाद अपने पिताके घर चली गयी । उस कन्याको देखकर पिताने कहा - ' बेटी ! तुम्हारे स्वामी सूर्यदेव तुम्हारा स्नेहपूर्वक पालन करते हैं या तुम्हारे साथ कठोरतापूर्ण व्यवहार करते हैं ? ' पिताको ऐसी बात सुनकर संज्ञा उनसे बोली - ' तात ! मैं स्वामीके प्रचण्ड तापसे जल गयी हूँ ।' यह सुनकर पिताने उससे कहा - ' बेटी ! तुम पतिके घर चली जाओ । पतिकी सेवा करना ही युवती स्त्रियोंका परम उत्तम धर्म है । मैं भी कुछ दिनोंके बाद आकर जामाता आदित्यदेवकी उष्णताको उनके शरीरसे कुछ कम कर दूँगा ' ॥७ - १२॥
पिताके यों कहनेपर वह पुनः पतिके घर लौट आयी तथा कुछ दिनोंके बाद क्रमशः मनु, यम और यमी ( यमुना ) - इन तीन संतानोंको जन्म दिया । किंतु पुनः जब सूर्यका ताप उससे नहीं सहा गया, तब संज्ञाने अपनी बुद्धिके बलसे स्वामीके उपभोगके लिये अपनी छाया ( प्रतिबिम्ब ) - स्वरुपा एक स्त्रीको उत्पन्न किया तथा उसे ही घरमें रखकर वह उत्तरकुरुदेशमें चली गयी और वहाँ घोड़ीका रुप धारण करके इधर - उधर विचरने लगी ॥१३॥
अदितिनन्दन सूर्यने भी उसे संज्ञा ही मानकर उस अपनी जाया ( भार्या ) - रुपधारिणी छायाके गर्भसे पुनः मनु, शनैश्चर तथा तपती - इन तीन संतानोंको उत्पन्न किया । छायाको अपनी संतानोंके प्रति पक्षपातपूर्ण बर्ताव करते देखकर यमने अपने पितासे कहा - ' तात ! यह हमलोगोंकी माता नहीं है । ' पिताने भी जब यह सुना, तब उस भार्यासे कहा - ' सब संतानोंके प्रति समानरुपसे ही बर्ताव करो ।' फिर भी छायाको अपनी ही संतानोंके प्रति अधिक स्नेहपूर्ण बर्ताव करते देख यम और यमीने उसे बहुत कुछ बुराभला कहा, किंतु जब सूर्यदेव पास आये, तब वे दोनों चुप हो रहे । यह देख छायाने उन दोनोंको शाप देते हुए कहा - '' यम ! तुम प्रेतोंके राजा बनो और यमी ! तू ' यमुना ' नामक नदी हो जा ।'' छायाका यह क्रूरतापूर्ण बर्ताव देखकर भगवान् सूर्य भी कुपित हो उठे और उसके पुत्रोंको शाप देते हुए बोले - '' बेटा शनैश्वर ! तू क्रूरतापूर्ण दृष्टिसे देखनेवाला मन्दगामी ग्रह हो जा । तेरी गणना पापग्रहोंमें होगी । बेटी तपती ! तू भी ' तपती ' नामकी नदी हो जा ! '' इसके बाद भगवान् सूर्य ध्यानस्थ होकर विचार करने लगे कि ' संज्ञा ' कहाँ है ॥१४ - २०॥
उन्होंने ध्यान - नेत्रसे देखा, संज्ञा उत्तरकुरुमें ' अश्वा ' का रुप धारण करके विचर रही है । तब वे स्वयं भी अश्वका रुप धारण करके वहाँ गये । जाकर उन्होंने उसके साथ समागम किया । उस अश्वारुपधारिणी संज्ञाके ही गर्भसे सूर्यके वीर्यसे दोनों ' अश्विनीकुमार ' उत्पन्न हुए । उनके शरीर सब देवताओंसे अधिक सुन्दर थे । साक्षात् ब्रह्मजीनें वहाँ पधारकर उन दोनों कुमारोंको देवत्व तथा यज्ञोंमें भाग प्राप्त करनेका अधिकार प्रदान किया । साथ ही उन्हें देवताओंका प्रधान वैद्य बना दिया । इसके बाद ब्रह्माजी चले गये । फिर सूर्यदेवने अश्वका रुप त्यागकर अपना स्वरुप धारण कर लिया । त्वष्टा प्रजापतिकी पुत्री संज्ञा भी अश्वाका रुप छोड़कर अपने साक्षात् स्वरुपमें प्रकट हो गयी । उस अवस्थामें सूर्यदेव त्वष्टाकी पुत्री अपनी पत्नी संज्ञाको आदित्यलोकमें ले गये । तदनन्तर विश्वकर्मा सूर्यके पास आये और उन्होंने विविध नामोंद्वारा उनका स्तवन किया तथा उनकी अनुमतिसी ही उनके श्रीअङ्गोंकी अतिशय उष्णताके अंशको कुछ शान्त कर दिया ॥२१ - २३॥
महामते भरद्वाज तथा अन्य ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे दोनों अश्विनीकुमारोंके जन्मकी उत्तम, पुण्यमयी, पवित्र एवं पापनाशक कथा कह सुनायी । सूर्यके वे दोनों पुत्र देवताओंके वैद्य हैं । अपने दिव्यरुपसे सदा प्रकाशित होते रहते हैं । उन दोनोंके जन्मकी कथा सुनकर मनुष्य इस भूतलपर सुन्दर रुपसे सुशोभित होता है और अन्तमें स्वर्गलोकमें जाकर वहाँ आनन्दका अनुभव करता है ॥२४ - २५॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' दोनों अश्विनीकुमारोंकी उत्त्पत्ति ' नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१८॥