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अध्याय ५३

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ५३

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


मार्कण्डेयजी कहते हैं - अब मैं तीसरे राम ( बलराम ) और श्रीकृष्णके युगल अवतारोंका संक्षेपमें वर्णन करुँगा । नृपश्रेष्ठ ! पूर्वकालकी बात है, पृथ्वी दैत्योंके भारसे पीडित हो देवताओंके मध्यमे विराजमान कमलासन ब्रह्माजीके पास गयी और इस प्रकार बोली ॥१ - २।

' कमलोद्भव ! देवासुर - संग्राममें जो - जो दैत्य और दानव भगवान् विष्णुके हाथसे मारे गये थे, वे सभी कंस आदि क्षत्रियोंके रुपमें उत्पन्न हुए हैं । चतुरानन ! उनके भारी बोझसे दबकर मैं बहुत दुःखी हो गयी हूँ । देव ! मेरा वह भार जैसे भी दूर हो, वह उपाय आप करें ' ॥३ - ४॥

पृथ्वीके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना को जानेपर, कहते हैं, ब्रह्माजी समस्त देवताओंके साथ क्षीरसागरके उत्तर तटपर भगवान् विष्णुके निकट गये । उन्होंने भगवानको अपनी भक्तिके प्रभावसे सोतेसे जगाया था । वहाँ पहुँचकर जगतकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजीने समस्त देवताओंके साथ नरसिंहस्वरुप महान् देवता भगवान् जनार्दनकी गन्ध - पुष्पादिके द्वारा क्रमशः भक्तिपूर्वक पूजा की । फिर वाक्पुष्पसे भी उन गोविन्द - केशवका पूजन किया । राजेन्द्र ! इससे वे जगदीश्वर भगवान् विष्णु उनपर बहुत संतुष्ट हुए ॥५ - ७॥

राजा बोले - ब्रह्मन् ! ब्रह्माजीने भगवान् विष्णुकी वाक्पुष्पसे किस प्रकार पूजा की ? विप्रेन्द्र ! ब्रह्माजीद्वारा कहे हुए उस उत्तम स्तोत्र ( वाक्पुष्प ) - को आप मुझे सुनाइये ॥८॥

मार्कण्डेयजी बोले - राजन् ! मैं ब्रह्माजीके मुखसे निकले हुए उस उत्तम स्तोत्रको कहता हूँ, सुनो ! वह स्तोत्र समस्त पापोंको हरनेवाला, पवित्र तथा भगवान् विष्णुको अत्यन्त संतुष्ट करनेवाला है । राजन् ! ब्रह्माजीने पूर्वोक्त रुपसे भगवान् जगन्नाथकी पूजा करके एकाग्रचित्त हो इसस स्तोत्रका पाठ किया ॥९ - १०॥

ब्रह्माजी बोले - मैं सम्पूर्ण जीवोंके स्वामी भगवान् अच्युतको, सनातन लोकगुरु भगवान् नारायणको नमस्कार करता हूँ । जो अनादि, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविनाशी हैं, उन वेदान्तवेद्य पुरुषोत्तम श्रीहरिको प्रणाम करता हूँ । जो परमानन्दस्वरुप, परात्पर, ज्ञानमय एवं ज्ञानियोंके परम आश्रय हैं तथा जो सर्वमय, सर्वव्यापक, अद्वितीय और सबके ध्येयरुप हैं, उन भगवान् लक्ष्मीपतिको मैं प्रणाम करता हूँ । जो भक्तोंके प्रेमी, अत्यन्त कमनीय और दोषोंसे रहित हैं, जो समस्त देवताओंके स्वामी हैं, विद्वान् पुरुष जिनकी श्यामल कान्ति है, जो हाथमें चक्र धारण किये रहते हैं, उन परमेश्वर केशवको मैं प्रणाम करता हूँ । जिनके हाथोंमें गदा, तलवार, शङ्ख और कमल सुशोभित हैं, जो लक्ष्मीजीके पति हैं, सदा ही कल्याण करनेवाले हैं, जो शाङ्ग धनुष धारण किये रहते हैं, जिनकी सूर्यके समान कान्ति है, जो पीतवस्त्र धारण किये रहते हैं, जिनका उदरभाग हारसे विभूषित है तथा जिनके मस्तकपर मुकुट शोभा पा रहा है, उस भगवान् विष्णुको मैं सदा प्रणाम करता हूँ । जिनके कपोलोंपर सुन्दर रक्तवर्ण कुण्डल शोभा पा रहे हैं, जो अपने कान्तिसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित कर रहे हैं, गन्धर्व और सिद्धगण जिनका सुयश गाते रहते हैं तथा जिनका वैदिक ऋचाओंद्वारा यशोगान किया जाता है, उन भूतनाथ भगवान् जनार्दनको मैं प्रणाम करता हूँ । जो भगवान् प्रत्येक युगमें पृथ्वीपर अवतार ले, देवद्रोही दानवोंकी हत्या करके अपने धर्ममें स्थित देवताओंकी रक्षा करते हैं तथा जो इस जगतकी सृष्टि एवं संहार करते है, उन सर्वान्तर्यामी भगवान् केशवको मैं प्रणाम करता हूँ ॥११ - १६॥

जिन्होंने युद्धमें मधु और कैटभ - इन दोनों दैत्योंको मारा तथा मत्स्यरुप धारण करके रसातलमें पहुँचे हुए वेदोंको लाकर मुझे दिया था, उन वेदवेद्य परमेश्वरको मैं सदा ही प्रणाम करता हँ । पूर्वकालमें जिन्होंने देवता और असुरोंद्वारा क्षीरसमुद्रमें डाले हुए महान् मन्दराचलको सबका हित करनेके लिये कूर्मरुपसे पीठपर धारण किया था, उन प्रकाश देनेवाले आदिदेव भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ । जिन सनातन भगवानने वराहरुप धारण करके इस सम्पूर्ण वसुंधरका जलसे उद्धार किया और उसी समय अत्यन्त अभिमानी दैत्य हिरण्याक्षको मार गिराया था, उन वेदमूर्ति सूकररुपधारी भगवानको प्रणाम करता हूँ । जिन सनातन भगवान् श्रीहरिने त्रिलोकीका हित करनेके लिये स्वयं ही श्रेष्ठ नृसिंहरुप धारण करके अपने तीखे नखोंद्वारा दिति - नन्दन हिरण्यकशिपुका वध किया था, उन परम पुरुष भगवान् नरसिंहको मैं प्रणाम करता हूँ । जिन वामनरुपधारी भगवान् जनार्दनने बलिको बाँधा था और अपने बढ़े हुए तीन पगोंसे त्रिभुवनको नापकर उसे इन्द्रको दे दिया था, उन आदिदेव वामनको मैं प्रणाम करता हूँ । जिन्होंने कोपवश राजा कार्तवीर्यको मार डाला तथा इक्वीस बार क्षत्रियोंका संहार किया, पृथ्वीका भार दूर करनेवाले परशुरामरुपधारी उन पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुको मैं सदा नमस्कार करता हूँ । जिन्होंने समुद्रमें बहुत बड़ा पुल बाँधा और लङ्कामें पहुँचकर त्रिलोकीकी रक्षाके लिये रावणको उसके गणोंसहित मार डाला था, उन सनातन पुरुष भगवान् श्रीरामको मैं सदा प्रणाम करता हूँ । भगवन् ! विष्णो ! जिस प्रकार [ पूर्वकालमें ] वाराह - नृसिंह आदि रुपोंसे आपने देवताओंका हित किया है, उसी प्रकार आज भी प्रसन्न होकर पृथ्वीका भार दुर करें । देव ! आपको सादर नमस्कार है ॥१७ - २४॥

श्रीमार्कण्डेयजी कहते हैं - ब्रह्माजीके इस प्रकार स्तुति करनेपर जगत्पति भगवान् लक्ष्मीधर हाथमें शङ्ख, चक्र और गदा धारण किये वहाँ प्रकट हुए तथा वे भगवान् हषीकेश ब्रह्माजी और देवताओंसे बोले - ' पितामह ! देवताओ ! मैं तुम्हारी इस स्तुतिसे बहुत ही प्रसन्न हूँ । देवगण ! यह स्तोत्र इसका पाठ करनेवालोंके सारे पाप नष्ट करनेमें समर्थ हैं । यद्यपि मैं श्रीहरिके रुपमें भक्तिमान् पुरुषोंको भी कठिनतासे ही प्राप्त होता हूँ, तथापि इस स्तोत्रके प्रभावसे मैं प्रत्यक्ष प्रकट हो गया हूँ । ब्रह्माजी ! आज रुद्र और इन्द्रसहित समस्त देवताओं तथा पृथिवीने मेरी प्रार्थना की है, अतः तुम लोग अपना मनोरथ कहो; उसे सुनकर पूर्ण करुँगा ' ॥२५ - २८॥

भगवान् विष्णुके यों कहनेपर लोकपितामह ब्रह्माजी बोले - ' पुरुषोत्तम् ! यह पृथ्वी दैत्योंके गुरुतर भारसे अत्यन्त पीडित हो रही है । अतः मै आपके द्वारा इस वसुधाके भारको उतरवानेके लिये यहाँ देवताओंके साथ आया हूँ । मेरे आनेका दूसरा कोई कारण नहीं हैं ' ॥२९ - ३०॥

यह सुनकर भगवानने कहा - ' देवगण ! तुम लोग निश्चिन्त होकर अपने - अपने स्थानको लौट जाओ । ब्रह्माजी भी चले जायँ । मेरी गौर और कृष्ण - दो शक्तियाँ पृथ्वीपर वसुदेवजीके वीर्य एवं देवकीके गर्भसे अवतार लेकर कंस आदि असुरोंका वध करेंगी ' ॥३१ - ३२॥

भगवानका यह वचन सुनकर सभी देवता उनको प्रणाम करके चले गये । राजन् ! देवताओंके चले जानेपर देवदेव जनार्दनने सज्जनोंकी रक्षा और दुष्टोंका संहार करनेके लिये अपनी वे गौर - कृष्ण - दो शक्तियाँ भेजीं । उनमेंसे गौर शक्ति वसुदेवद्वारा रोहिणीके गर्भसे प्रकट हुई तथा कृष्ण शक्तिने वसुदेवके अंश एवं देवकीके गर्भसे अवतार लिया । पुण्यात्मा महापुरुष रोहिणीनन्दनने ' राम ' नाम धारण किया और देवकीनन्दनका ' श्रीकृष्ण ' नाम रखा गया । नरेश्वर ! तुम उन दोनोंके कर्म मुझसे सुनो ॥३३ - ३६॥

राजन् ! गोकुलमें रामने बाल्यकालमें ही रात्रिके समय एक पक्षीरुपधारिणी राक्षसीको मारा था और श्रीकृष्णने ' पूतना ' का संहार किया था । रामने तालवनमें ' धेनुक ' नामक राक्षसको उसके गणोंसहित मारा था और श्रीकृष्णने भी शकट उलट दिया तथा ' यमलार्जुन ' नामक दो वृक्षोंको उखाड़ दिया था । रामने ' प्रलम्ब ' तामक राक्षसको मुक्केसे मारकर मौतके घाट उतारा तथा श्रीकृष्णने यमुनाके जलमें रहनेवाले विषैले सर्प ' कालिय ' का दमन किया और इन्द्रके वर्षा करते समय वे सात दिनोंतक हाथपर गोवर्धनपर्वत धारण किये खड़े रहे । इतना ही नहीं, श्रीकृष्णने गोकुलकी रक्षा करते हुए अरिष्टासुरका भी वध किया था । फिर दुष्ट घोड़ेका रुप धारण करनेवाले महान् असुर केशीका उन्होंने संहार किया; इसके बाद महात्मा अक्रूरजी [ कंसकी आज्ञासे ] आये तथा राम और कृष्ण - दोनों बन्धुओंको मथुरा ले गये । महामते ! मार्गमें अक्रूरजीने यमुनामें डुबकी लगाते समय जलके भीतर राम और कृष्ण - दोनोंको देखा । उन दोनों बन्धुओंने अक्रूरजीकी अपने - अपने ऐश्वर्यदायक स्वरुपका दर्शन कराया । नृपनन्दन ! उन दोनोंके अनुपम स्वरुपको देख और जानकर अक्रूरजीके साथ ही समस्त यादवगण बहुत ही प्रसन्न हुए ॥३७ - ४३॥

तत्पश्चात् [ मथुरामें भ्रमण करते समय ] कटुवचन कहनेवाले कंसके एक धोबीको कृष्ण और रामने मार डाला तथा उसके वस्त्र ब्राह्मणोंको बाँट दिये । फिर मार्गमें एक मालीने फूलोंसे भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की । तब राम और श्रीकृष्णने उसे दुर्लभ वर दिये । उसके बाद जब वे सड़कपर घूम रहे थे, उसी समय ' कुब्जा ' दासीने आकर उनका आदर - सत्कार किया । तब श्रीकृष्णने उसकी भद्दी लगनेवाली कुब्जताको दूर कर दिया । तदनन्तर [ यज्ञशालामें रखे गये ] कंसके धनुषको महाबली श्रीकृष्णने [ बलपूर्वक ] खींचा और तत्काल ही तोड़ डाला । उस समय वहाँके अनेकों दुष्ट रक्षकोंको बलरामजीने मार डाला । फिर बलराम और श्रीकृष्ण - दोनोंने मिलकर ' कुवलयापीड ' नामक हाथीको भी मार गिराया ॥४४ - ४७॥

तदनन्तर उन दोनों वसुदेवकुमारोंने हाथीके दाँत उखाड़कर हाथमें ले लिये और उसके मदसे सने हुए ही रङ्गभूमिमें प्रवेश किया । वहाँ अविनाशी बलरामजीने पर्वताकार ' मुष्टिक ' नामक पहलवानको कुश्तीमें मार डाला और श्रीकृष्णचन्द्रने भी कंसके ' चाणूर ' नामक पहलवानका, जो अपने बल और पराक्रमके कारण बहुत ही प्रसिद्ध था, कचूमर निकाल दिया । भगवान् श्रीकृष्णने उस जन - समाजमें दैत्य मल्ल चाणूरके साथ देरतक युद्ध करनेके बाद उसका वध किया था । फिर वीरवर बलरामजीने युद्धके लिये उत्साहपूर्वक उठे हुए पुष्करको, जो ' मृत मुष्टिक ' नामक मल्लका मित्र था, मुक्केसे ही मार डाला । इसके बाद श्रीकृष्णने वहाँ उपस्थित समस्त दैत्योंका संहार करके कंसको पकड़ लिया और उसे मञ्चके नीचे भूमिपर पटककर वे स्वयं भी उसके शरीरपर कूत पड़े । इस प्रकार कंसका वध करके श्रीकृष्णने उसके मृत देहको भूमिपर घसीटा । श्रीकृष्णद्वारा कंसके मारे जानेपर उसका बलवान् एवं पराक्रमी भ्राता सुनाभ अत्यन्त क्रोधपूर्वक युद्धके लिये उठा; किंतु उसे भी बलरामजीने तुरंत ही मारकर यमलोक भेज दिया ॥४८ - ५२॥

तदनन्तर समस्त यदुवंशियोंसे घिरे हुए उन दोनों भाइयोंने अत्यन्त प्रसन्न हुए माता - पिताकी वन्दना करके श्रीउग्रसेनको ही यदुवंशियोंका राजा बनाया और उन्हें इन्द्रकी ' सुधर्मा ' नामक दिव्य सभा प्रदान की ॥५३॥

यद्यपि बलराम और श्रीकृष्ण सर्वज्ञ थे, तो भी उन्होंने सांदीपनिसे अस्त्र - विद्याकी शिक्षा पायी । फिर गुरुको दक्षिणा देनेके लिये उद्यत हो, ' पञ्चजन ' दैत्यको मारा और यमराजको जीतकर वे दीर्घकालके मरे हुए गुरुपुत्रको वहाँसे ले आये । वही पुत्र उन्होंने गुरुजीको दक्षिणाके रुपमें अर्पित किया ॥५४॥

फिर बलरामजीने अपने ऊपर अनेको बर चढ़ाई करनेवाले मगधराज जरासंधके समस्त सैनिकोंको दिव्यास्त्रोंकी वर्षा करके मार डाला । इसके बाद उन दोनों देवेश्वरोंने समुद्रके भीतर एक सुन्दर पुरी द्वारकाका निर्माण कराया । उसमें मथुरावासी कुटुम्बीजनोंको बसाकर अविनाशी भगवान् श्रीकृष्णने राजा श्रृगालका वध किया । फिर एक उपाय करके महान् योद्धा यवनराजको भस्म कर, राजा मुचुकुन्दको वरदान दे, वे द्वारकामें लौट गये ॥५५ - ५६॥

तत्पश्चात् सारा बखेड़ा समाप्त हो जानेपर बलरामजी एक बार फिर नन्दके गोकुल ( नन्दगाँव ) - में गये और वहाँ वृन्दावनमें गोपजनोंसे भलीभाँति प्रेमालाप आदिके द्वारा सम्मानित हुए । वहाँ उन्होंने अपने हलसे यमुनाजीका आकर्षण किया था । तदनन्तर द्वारकामें ' रेवती ' नामकी भार्याको पाकर बलरामजी उनके साथ सुखपूर्वक रहने लगे और पुराण - पुरुष श्रीकृष्णचन्द्र भी क्षत्रियधर्मके अनुसार ' रुक्मिणी ' नामक भार्याको हस्तगत करके उसके साथ सानन्द विहार करने लगे । तदनन्तर एक बार जूआ खेलते समय हलधरने कलिङ्गराजके दाँतोंको उखाड़ लिया और असत्यका आश्रय लेनेवाले रुक्मीको भी पापेसे ही मार गिराया । इसी प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रने भी प्राग्ज्योतिषपुरके हयग्रीव आदि बहुत - से दैत्योंको यमलोक पहुँचाया तथा नरकसुरका भी संहार करके वे उसके यहाँसे बहुत धन ले आये । वहाँसे श्रीकृष्ण इन्द्रलोकमें गये । वहाँ उन्होंने अदितिको उनके वे दोनों दिव्य कुण्डल दिये, जो नरकासुरने हड़प लिये थे । फिर देवताओंसहित इन्द्रको जीतकर पारिजात वृक्ष साथ ले, वे अपनी उपरी द्वारकाको लौट आये ॥५७ - ६१॥

तदनन्तर महाबली एवं महापराक्रमी बलरामजीने अकेले ही हस्तिनापुरमें जा कौरवोंको भय दिखाया और उनके द्वारा बंदी बनाये गये [ श्रीकृष्णपुत्र ] साम्बको छुड़ाया । फिर बुद्धिमान् श्रीकृष्णचन्द्रने युद्धमें बाणासुरकी भुजाओंको काट डाला और बलरामजीने उसके करोड़ों सैनिकोंका क्षणभरमें ही संहार कर दिया । इसके बाद बलरामजीने देववैरी ' द्विविद ' नामक महान् वानरका वध किया । इसी तरह भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनकी सहायता करके उनके द्वारा समस्त दुष्ट क्षत्रियोका वध कराया और पृथ्वीका सारा भार उतार दिया । उन दिनों बलरामजी लोकहितके लिये तीर्थयात्रा कर रहे थे ॥६२ - ६५॥

राजन् ! बलराम और श्रीकृष्णचन्द्रने जितने दुष्टोंका वध किया था, उनकी गणना हम नहीं कर सकते । इस प्रकार दोनों भाई बलराम और श्रीकृष्णने दुष्टोंका संहार करके भूमिका भार दूर किया । फिर वे स्वेच्छानुसार वैकुण्ठधामको पधार गये । इस तरह राम और श्रीकृष्णके इन दिव्य अवतारोंको मैंने तुम्हें संक्षेपसे कह सुनाया । अब मुझसे ' कल्कि - अवतार ' का वर्णन सुनो । नरेश्वर ! इस प्रकार अनन्त भगवान् विष्णुकी वे दोनोम महाबलवती गौर और कृष्ण शक्तियाँ पृथ्वीका भार उतारकर पुनः अपने विष्णुस्वरुपमें लीन हो गयीं ॥६६ - ६८॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' श्रीकृष्णका प्रादुर्भाव ' नामक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५३॥

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Last Updated : October 02, 2009

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