मार्कण्डेयजी बोले - राजन् ! अब मैं भगवान् विष्णुके जामदग्न्य ( परशुराम ) नामक शुभ अवतारका वर्णन करता हूँ, जिसने पूर्वकालमें क्षत्रियवंशका उच्छेद किया था; उस प्रसङ्गको सुनो ॥१॥
नरेश्वर ! पहलेकी बात है, क्षीरसागरके तटपर देवताओं और महाभाग ऋषियोंने भगवान् विष्णुकी स्तुति की; इससे वे जमदग्नि मुनिके पुत्रके रुपमें अवतीर्ण हुए । वे भगवान् सम्पूर्ण लोकोंमें ' परशुराम ' नामसे विख्यात थे और दुष्ट राजाओंका नाश करनेके लिये ही इस भूतलपर अवतीर्ण हुए थे । उनके अवतारसे पूर्व राजा कृतवीर्यका पुत्र ' कार्तवीर्य ' हुआ था, जिसने दत्तात्रेयजीकी आराधना करके सार्वभौम राज्य प्राप्त कर लिया था । एक समय वह महाभाग नरेश जमदग्नि ऋषिके आश्रमपर गया । उसके साथ चतुरङ्गिणी सेना थी । उस राजाको चतुरङ्गिणी सेनाके साथ आश्रमपर आया देख जमदग्निने नृपवर कार्तवीर्यसे मधुर वाणीमें कहा - ' महामते ! आप मेरे अतिथि होकर यहाँ पधारे हैं; अतः आज अपनी सेनाका पड़ाव यहीं डालिये और मेरे दिये हुए वन्य फल आदिका भोजन करके कल यहाँसे जाइयेगा' ॥२ - ६॥
महानुभाव राजा कार्तवीर्य मुनिके वाक्यका गौरव मानकर अपनी सेनाको वहीं ठहरनेका आदेश दे वहाँ रह गया । इधर अलङ्घ्य यशवाले मुनिने राजाको आमन्त्रित करके अपनी कामधेनु गौका दोहन किया । राजन् ! उन्होंने अनेकानेक गजशाला, अश्वशाला, मनुष्योंके रहनेयोग्य विचित्र गृह और तोरण ( द्वार ) आदिका दोहन किया । सामन्त नरेशोंके रहनेयोग्य सुन्दर भवन, जिनमें बगीचे आदिकी इच्छा रखनेवालोंके लिये सुन्दर उद्यान थे, दोहनद्वारा प्रस्तुत किये । फिर अनेक मंजिलोंका श्रेष्ठ महल, जिसमें सुन्दर एवं उपयोगी सामान संचित थे, गोदोहनके द्वारा उपलब्ध करके मुनिने भूपालसे कहा - ' राजन् ! आपके लिये महल तैयार है । आप इसमें प्रवेश कीजिये । आपके लिये महल तैयार है । आप इसमें प्रवेश कीजिये । आपके लिये महल तैयार है । आप इसमें प्रवेश कीजिये । आपके ये श्रेष्ठ मन्त्री तथा और लोग भी शीघ्र ही इन दिव्य गृहोंमे प्रवेश करें । विभिन्न जातियोंके हाथी और घोड़े आदि भी गजशाला और अश्वशालामें रहें तथा भृत्यगण भी इन छोटे घरोंमें निवास करें ॥७ - १०॥
मुनिके इस प्रकार कहते ही राजा कार्तवीर्यने इस उत्तम गृहमें प्रवेश किया । फिर दूसरे लोग दूसरे - दूसरे गृहोंमे प्रविष्ट हुए । इस प्रकार सबके यथास्थान स्थित हो जानेपर मुनिने पुनः राजा कार्तवीर्यसे कहा - ' नरेश्वर ! आपको स्नान करानेके लिये मैंने इन सौ उत्तम स्त्रियोंको नियत किया है । जैसे स्वर्गमें देवराज इन्द्र अप्सराओंके नृत्य - गीत सुनते हुए स्त्रान करते हैं, उसी प्रकार आप भी इन स्त्रियोंके नृत्य - गीतसे आनन्दित हो इच्छानुसार स्त्रान कीजिये ' ॥११ - १२॥
भूप ! ( मुनिको आज्ञासे ) वहाँ राजा कार्तवीर्यने इन्द्रकी भाँति मधुर वाद्यों और गीत आदिके शब्दोंसे आनन्दिन होते हुए स्त्रान किया । स्त्रान कर लेनेपर मुनिने उन्हें दो सुन्दर सुशोभित वस्त्र दिये । धौतवस्त्र पहन और ऊपरसे चादर ओढ़कर राजाने नित्य - नियम करनेके बाद भगवान् विष्णुकी पूजा की । फिर उन मुनिवरने गौसे अन्नमय महान् पर्वतका दोहन करके राजा तथा राजसेवकवृन्दको अर्पित किया । नृप ! राजा तथा उनके भृत्यगणोंने जबतक भोजनका कार्य सम्पन्न किया, तबतक सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये । तब उन्होंने रातको भी मुनिके बनाये हुए उस भवनमें गीत आदि विनोदोंसे आनन्दित हो शयन किया ॥१३ - १५॥
तदनन्तर निर्मल प्रभातकाल होते ही स्वप्नमें मिली हुई सम्पत्तिके समान सब कुछ लुप्त हो गया । फिर वहाँ केवल कोई भूभागमात्र ही अवशिष्ट देख राजाने मन - ही - मन विचार किया और अपने पुरोहितसे पूछा - ' महाभाग पुरोहितजी ! यह महात्मा जमदग्रि मुनिके तपकी शक्ति थी या कामधेनु गौकी ? इसे आप मुझे बताइये ।' कार्तवीर्यके इस प्रकार पूछनेपर पुरोहितने उससे कहा - ' राजन् ! मुनिमें भी सामर्थ्य है, परंतु यह सिद्धि तो गौकी ही थी । तो भी नरेश्वर ! आप लोभवश उस गौका अपहरण न करें; क्योंकि जो उसे हर लेनेकी इच्छा करता है, उसका निश्चय ही विनाश हो जाता है ' ॥१६ - १९॥
यह सुनकर राजाके प्रधान मन्त्रीने कहा - ' महाराज ! ब्राह्मण ब्राह्मणका ही प्रेमी होता है, वह अपने पक्षका पोषण करनेके कारण राजाके कार्यकी कोई परवाह नहीं करता । राजन् ! उस गौको पाकर आपके पास तत्काल गुप्त हो जानेवाले नाना प्रकारके घर, सोनेके पात्र, शय्यादि तथा सुन्दरी स्त्रियाँ - ये सब सामान प्रस्तुत रहेंगे, जिन्हें हम लोगोंने वहाँ प्रत्यक्ष देखा है । इस उत्तम धेनुको आप अवश्य ले चलें । महामते राजेन्द्र ! यह गौ आपके ही योग्य है । भूपाल ! यदि आपकी इच्छा हो तो मैं स्वयं जाकर इसे ले आऊँगा । आप केवल मुझे आज्ञा दीजिये ' ॥२० - २३॥
नृपवर ! मन्त्रीके इस प्रकार कहनेपर राजाने ' बहुत अच्छा ' कहकर अनुमति दे दी । फिर राजमन्त्री आश्रमपर जाकर गौका अपहरण करने लगा । तब जमदग्नि मुनिने उसे सब ओरसे मना किया, किंतु उसने उनकी बात न मानते हुए कहा - ' महाबुद्धिमान् ब्राह्मण ! यह गौराजाके योग्य है; अतः इसे राजाको ही दे दीजिये । आप तो साग और फल खानेवाले हैं; आपको इस गायसे क्या काम है ?' यों कहकर मन्त्री उस गौको बलपूर्वक ले जाने लगा । राजन् ! तब उस मुनिने स्त्रीसहित आकर उसे पुनः रोका । इसपर उस दुष्टात्मा और ब्रह्महत्यारे मन्त्रीने उस मुनिका वध करके गौको ज्यों ही ले जाना चाहा, त्यों ही वह दिव्य गौ आकाशमार्गसे चली यगी और राजा मन - ही - मन क्षुब्ध होकर माहिष्मती नगरीकी लौट आया ॥२४ - २८॥
राजन् ! उस समय मुनिकी पत्नी दुःखसे पीडित होकर अत्यन्त विलाप करने लगी और प्राण त्याग देनेकी इच्छासे अपनी कुक्षि ( उदर ) - में उसने इक्वीस बार मुक्का मारा । माताका विलाप सुनक्र परशुरामजी वनसे फूल आदि लेकर हाथमें कुल्हाड़ी लिये उसी समय आये और मातासे बोले - ' मा ! इस प्रकार छाती पीटनेकी आवश्यकता नहीं है । मैं सब कुछ शकुनसे जान गया हूँ । उस दुष्ट मन्त्रीवाले दुराचारी राजा अर्जुनका मैं अवश्य वध करुँगा । मातः ! चूँकि तुमने अपनी कुक्षिमें इक्वीस बार प्रहार किया है, इसलिये मैं इस भूमण्डलके क्षत्रियोंका इक्वीस बार संहार करुँगा ॥२९ - ३२॥
इस प्रकार प्रतिज्ञा करके फरसा लेकर वे वहाँसे चल दिये और माहिष्मती पुरीमें जाकर उन्होंने राजा कार्तवीर्य अर्जुनको ललकारा । तब वह अनेक अक्षौहिणी सेनाके साथ युद्धके लिये आया । वहाँ उन दोनोंमें महाभयानक रोमाञ्चकारी युद्ध हुआ, जो सैकड़ों अस्त्रशस्त्रोंके प्रहारसे व्याप्त तथा मांस खानेवाले प्राणियोंको आनन्द देनेवाला था । उस समय परशुरामजी अपनेमें अचिन्त्यस्वरुप, परम ज्योतिर्मय, कारणमूर्ति भगवान् विष्णुकी भावना करके महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न हो गये । उन्होंने परम आश्चर्यमय पौरुष प्रकट करते हुए कार्तवीर्यकी असंख्य क्षत्रियोंमें युक्त सम्पूर्ण सेनाको मारकर भूमिपर गिरा दिया और रोषसे भरकर कार्तवीर्यकी समस्त भुजाएँ काट डाली । उसके बाहुवनका उच्छेद हो जानेपर भृगुनन्दन परशुरामने उसका मस्तक भी धड़से अलग कर दिया ॥३३ - ३७॥
इस प्रकार वह चक्रवती राजा कार्तवीर्य श्रीभगवान् विष्णुके हाथसे वधको प्राप्त होकर दिव्यरुप धरण करके, श्रीसम्पन्न एवं दिव्य चन्दनोंसे अनुलिप्त होकर, दिव्य विमानपर आरुढ़ हो, विष्णुधामको प्राप्त हुआ । फीर महान् बल और पराक्रमवाले परशुरामजीने भी इस पृथ्वीके क्षत्रियोंका इक्वीस बार संहार किया । इस प्रकार क्षत्रियोंका वध करके उन्होंने भूमिका भार उतार और सम्पूर्ण पृथ्वी महात्मा कश्यपजीको दान कर दी ॥३८ - ४० १/२॥
इस प्रकार मैंने तुमसे यह ' जामदग्न्य ' ( परशुराम ) नामक अवतारका वर्णन किया । जो भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । राजन् ! इस तरह पृथ्वीपर अवतीर्ण होनेके बाद ये साक्षात् भगवान् विष्णुस्वरुप परशुरामजी इक्वीस बार क्षत्रियोंको मारकर, क्षत्रियतेजको छिन्न - भिन्न करके आज भी महेन्द्र पर्वतपर विराजमान हैं ॥४१ - ४३॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' परशुरामावतार ' नामक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४६॥