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अध्याय ३०

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ३०

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


श्रीसूतजी बोले - द्विजवरो ! अब मै सब ओर नदी तथा पर्वतोंसे व्याप्त भूगोल ( भूमिमण्डल ) - का संक्षेपसे वर्णन करुँगा ॥१॥

इस पृथ्वीपर जम्बू प्लक्ष, शाम्ललि, कुश, क्रौञ्च, शाक और पुष्कर नामके सात द्वीप हैं । इनमें जम्बूद्वीप तो लाख योजन लंबा - चौड़ा है और प्लक्ष आदि जम्बूद्वीपसे उत्तरोत्तर दुगुने बड़े हैं । ये द्वीप क्रमशः अपनेसे दूने प्रमाणावाले लवण, इक्षुरस, सुरा, घृत, दधि, दुग्ध और शुद्धोदक नामसे विख्यात सात वलयाकार समुद्रोंसे घिरे हुए हैं । मनुके जो ' प्रियव्रत ' नामक पुत्र थे, वे ही सात द्वीपोंके अधिपति हुए । उनके अग्रीध आदि दस पुत्र हुए । इनमेंसे तीन तो सर्वत्यागी संन्यासी हो गये और शेष सातोंको उनके पिताने एक - एक द्वीप बाँट दिया । इनमें जन्मूद्वीपके अधिपति ' अग्निध्र ' के नौ पुत्र हुए । उनके नाम ये हैं - नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत्त, रम्य, हिरण्मय, कुरु, भद्र और केतुमान ॥२ - ५॥

राजा अग्रीध्र जब ( घर त्यागकर ) वनमें जाने लगे तब उन्होंने जम्बूद्वीपको उसके नौ खण्ड करके अपने पुत्रोंको बाँट दिया । हिमालय पर्वतसे मिला हुआ वर्ष अग्रीध्र ( नाभी ) - को मिला था । इसके अधिपति राजा नाभिसे ' ऋषभ ' नामक पुत्र हुआ ॥६॥

ऋषभसे भरतका जन्म हुआ, जिनके द्वारा चिरकालतक धर्मपूर्वक पालित होनेके कारण इस देशका नाम ' भारतवर्ष ' पड़ा । इलावृत वर्षके बीचमें मेरु नामक सुवर्णमय पर्वत हैं । उसकी ऊँचाई चौरासी हजार योगज है । वह सोलह हजार योजनतक नीचे जमीनमें गड़ा है और इससे दूनी ( बत्तीस हजार योजन ) इसकी चोटीके चौड़ाई है । इसीके मध्यभागमें ब्रह्माजीकी पुरी हैं, पूर्वभागमें इन्द्रकी ' अमरावती ' है, अग्निकोणमें अग्निकी ' तेजोवती ' पुरी हैं, दक्षिणमें यमराजकी ' संयमनी ' है, नैऋत्यकोणमें निऋतिकी ' भयंकरी ' नामक पुरी हैं, पश्चिममें वरुणकी ' विश्वावती ' है, वायव्यकोणमें वायुकी ' गन्धवती ' नगरी है और उत्तरमें चन्द्रमाकी ' विभावरी ' पुरी है । नौ खण्डोसे युक्त है । किम्पुरुष आदि आठ वर्ष पुण्यवानोंके भोगस्थान हैं; केवल एक भारतवर्ष ही चारों वर्णोंसे युक्त कर्मक्षेत्र है । भारतवर्षमें ही कर्म करनेसे मनुष्य स्वर्ग प्राप्त करेंगे और वहाँ ही ज्ञान - साधकको निष्काम कर्मोंसे मुक्ति भी प्राप्त होती है । विप्रवर ! पाप करनेवाले पुरुष यहाँसे अधोगतिको प्राप्त होते हैं । जो पापी हैं, उन करोड़ों मनुष्योंको पातालस्थ नरकमें पड़े हुए समझिये ॥७ - ११॥

अब सात कुलपर्वतोंका वर्णन किया जाता है - महेन्द्र, मलय, शुक्तिमान्, ऋष्यमूक, सह्य, विन्ध्य और पारियात्र । ये ही भारतवर्षमें कुलपर्वत हैं । नर्मदा, सुरसा, ऋषिकुल्या, भीमरथी, कृष्णावेणी, चन्द्रभागा तथा ताम्रपणीं - ये सात नदियाँ हैं तथा गङ्गा, यमुना, गोदावरी, तुङ्गभद्रा, कावेरी और सरयू - ये छः महानदियाँ सब पापोंको नष्ट करनेवाली हैं ॥१२ - १३॥

यह सुन्दर जम्बूद्वीप जम्बू ( जामुन ) - के नामसे विख्यात है । इसका विस्तार एक लाख योजन है । इस द्वीपमें यह भारतवर्ष ही सबसे श्रेष्ठ स्थान है ॥१४॥

ऋक्षद्वीप आदि पुण्य देश हैं । जो लोग निष्कामभावसे अपने - अपने वर्णधर्मका आचरण करते हुए भगवान् नृसिंहका यजन करते हैं, वे ही उन पुण्य देशोंमें निवास करते हैं तथा कर्माधिकारका क्षय हो जानेपर मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं । जम्बूद्वीपसे लेकर ' शुद्धोदक ' संज्ञक समुद्रपर्यन्त सात द्वीप और सात समुद्र हैं । उसके बाद स्वर्णमयी भूमि हैं । उसके आगे लोकालोक पर्वत हैं - यह सब ' भूलोक ' का वर्णन हुआ ॥१५ - १६॥

इसके ऊपर अन्तरिक्षलोक है, जो अन्तरिक्षचारी प्राणियोंके लिये परम रमणीय है । इसके ऊपर स्वर्गलोक है । अब महापुण्यमय स्वर्गलोकका वर्णन किया जाता है, उसे आपलोग मुझसे सुनें । जिन्होंने भारतवर्षमें रहकर पुण्यकर्म किये हैं, उनका तथा देवताओंका वहाँ निवास है । भूमण्डलके बीचमें पर्वतोंका राजा मेरु है, जो सुवर्णमय होनेके कारण अपनी प्रभासे उद्भासित होता रहता है । वह पर्वत चौरासी हजार योजन ऊँचा है और सोलह हजार योजनतक पृथ्वीमें नीचेकी ओर धँसा हुआ है । साथ ही उसके चारों ओर उतने ही प्रमाणवाली पृथिवी है ॥१७ - २०॥

मेरुगिरिके ऊपरी भागमें तीन शिखर हैं, जहाँ स्वर्गलोक बसा हुआ है । मेरुके वे स्वर्गीय शिखर नाना प्रकारके वृक्ष और लताओंसे आवृत तथा भाँति - भाँतिके पुष्पोंसे सुशोभित हैं । मध्यम, पश्चिम और पूर्व - ये ही तीन मेरुके शिखर है । इनमें मध्यम श्रृङ्ग स्फटिक तथा वैदूर्यमणिमय हैं, पूर्व श्रृङ्ग इन्द्रनीलमय और पश्चिम शिखर माणिक्यमय कहा जाता है । इनमेंसे मध्यम श्रृङ्ग चौदह लाख चौदह हजार योजन ऊँचा है, जहाँ ' त्रिविष्टप ' नामका स्वर्गलोक प्रतिष्ठित है । पूर्व श्रृङ्ग मेरुके ऊपर छत्राकार स्थित है । मध्यम श्रृङ्ग और उसके बीच अन्धकारका व्यवधान है । वह मध्यम श्रृङ्ग और उसके बादवाले पश्चिम शिखरके बीचमें स्थित है । नाकपृष्ठ - त्रिविष्टपमें आनन्दमयी अपसराएँ निवास करती हैं ॥२१ - २५॥

मेरुके मध्यवर्ती शिखरपर विराजमान स्वर्गमें आनन्द और प्रमोदका वास है । पश्चिम शिखरपर श्वेत, पौष्टिक उपशोभन और काम एवं स्वर्गके राजा आह्लाद निवास करते हैं । द्विजश्रेष्ठ ! पूर्व शिखरपर निर्मम, निरहंकार, सौभाग्य और अतिनिर्मल नामक स्वर्ग सुशोभित होते हैं । मेरु पर्वतकी चोटीपर कुल इक्वीस स्वर्ग सुशोभित होते हैं । जो अहिंसाधर्मका पालन करनेवाले और दानी हैं तथा जो यज्ञ और तपका अनुष्ठान करनेवाले हैं, वे क्रोधरहित मनुष्य इन स्वर्गोंमें निवास करते हैं ॥२६ - २९॥

जो धर्मपालनके लिये जलमें प्रविष्ट होकर प्राण त्याग करते हैं, वे ' आनन्द ' नामक स्वर्गको प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार जो धर्मरक्षाके ही लिये अग्निमें जलनेका साहस करते हैं, उन्हें ' प्रमोद ' नामक स्वर्गकी प्राप्ति होती है और जो धर्मार्थ पर्वतशिखरसे कूदकर प्राण देते हैं, उन्हें ' सौख्य ' संज्ञक स्वर्ग प्राप्त होता है । संग्रामकी मृत्युसे ' निर्मल ' ( या अतिनिर्मल ) नामक स्वर्गकी उपलब्धि होती है । उपवास - व्रत एवं संन्यासावस्थामें मृत्युको प्राप्त होनेवाले लोग ' त्रिविष्टप ' नामक स्वर्गमें जाते हैं । श्रौत यज्ञ करनेवाला ' नाकपृष्ठ ' में और अग्निहोत्री ' निर्वृत्ति ' नामक स्वर्गमें जाते हैं । द्विज ! पोखरा और कुआँ बनवानेवाला मनुष्य ' पौष्टिक ' स्वर्गको पाता है, सोना दान करनेवाला पुरुष तपस्याके फलभूत ' सौभाग्य ' नामक स्वर्गको जाता है । जो शीतकालमें सब प्राणियोंके हितके लिये लकड़ियोंके ढेरको जलाकर बड़ी भारी अग्निराशि प्रज्वलित करता और उन्हें गरमी पहुँचाता है, वह ' अप्सरा ' संज्ञक स्वर्गको उपलब्ध करता है । सुवर्ण और गोदान करनेपर दाता ' निरहंकार ' नामवाले स्वर्गको पाता है और शुद्धभावसे भूमिदान करके मनुष्य ' शान्तिक ' नामसे प्रसिद्ध स्वर्गधामको उपलब्ध करता है । चाँदी दान करनेसे मनुष्यको ' निर्मल ' नामक स्वर्गकी प्राप्ति होती है । अश्वदानसे दाता ' पुण्याह ' का और कन्यादानसे ' मङ्गल ' का लाभ करता है । ब्राह्मणोंको तृप्त करके उन्हें भक्तिपूर्वक वस्त्र दान करनेसे मनुष्य ' श्वेत ' नामक स्वर्गको पाता है, जहाँ जाकर वह कभी शोकका भागी नहीं होता ॥३० - ३६॥

कपिला गौका दान करनेसे दाता ' परमार्थ ' नामक स्वर्गमें पूजित होता है और उत्तम साँड़का दान करनेके उसे ' मन्मथ ' नामक स्वर्गकी प्राप्ति होती है । जो माघके महीनेमें नित्य नदीमें स्नान करता, तिलमयी धेनु देता और छत्र तथा जूतेका दान करता है, वह ' उपशोभन ' नामक स्वर्गमें जाता है । जिसने देवमन्दिर बनवाया है, जो द्विजोंकी सेवा करता है तथा सदा तीर्थयात्रा करता रहता है, वह ' स्वर्गराज ' ( आह्लाद ) - में प्रतिष्ठित होता है । जो मनुष्य नित्य एक ही अन्न भोजन करता, जो प्रतिदिन केवल रातमें ही खाता तथा त्रिरात्र आदि व्रतोंके द्वारा उपवास किया करता है, वह ' शुभ ' नामक स्वर्गको पाता है । नदीमें स्नान करनेवाला, क्रोधको जीतनेवाला एवं दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाला ब्रह्मचारी सम्पूर्ण जीवोंके हितमें तत्पर रहनेवाले पुरुषके समान ' निर्मल ' नामक स्वर्गको पाता है । मेधावी पुरुष विद्यादान करके ' निरहंकार ' नामक स्वर्गको प्राप्त होता है ॥३७ - ४१॥

मनुष्य जिस - जिस भावनासे जो - जो दान देता है और उससे जो - जो फल चाहता है, तदनुसार ही विभिन्न स्वर्गलोकोंको पाता है । कन्या, गौ, भूमि तथा विद्याइन चारोंके दानको ' अतिदान ' कहा गया है । ये चार वस्तुएँ दान की जानेपर दाताका नरकसे उद्धार कर देती हैं । इतना ही नहीं, बैलपर सवारी करने और गायको दुहनेसे जो दोष होता है, उससे भी मनुष्य मुक्त हो जाता है । जो ब्राह्मणोंको सब प्रकारके दान अर्पित करता है, वह शान्त एवं निरामय स्वर्गलोकको प्राप्त होकर फिर वहाँसे नहीं लौटता है । मेरुगिरिके पश्चिम शिखरपर, जहाँ स्वयं ब्रह्माजी विराजमान है, वहीं वह स्वयं भी वास करता है । पूर्वश्रृङ्गपर साक्षात् भगवान् विष्णु और मध्यम श्रृङ्गपर शिवजी विराजमान हैं ॥४२ - ४५॥

विप्रेन्द्र ! इसके बाद आप स्वर्गके इन ' निर्मल ' तथा ' विशाल ' मार्गका वर्णन सुनें । स्वर्गलोकके दस मार्ग हैं । ये सभी एकके ऊपर दूसरोंके क्रमसे स्थित हैं । प्रथम मार्गपर कुमार कर्तिकेय और दूसरेके मातृकाएँ रहती हैं । द्विज ! तीसरे मार्गापर सिद्ध - गन्धर्व, चौथेपर विद्याक्षर, पाँचवोंपर नागराज और छठेपर विनतानन्दन गरुडजी विराजमान हिं सातवेंपर दिव्य पितृगण, आठवेंपर धर्मराज, नवेंपर दक्ष और दसवें मार्गपर आदित्यकी स्थिति हैं ॥४६ - ४८॥

भूलोकसे एक लाख दो हजार योजनकी ऊँचाईपर सूर्यदेव विचरते हैं । उस ऊँचाईपर सब ओर उनके रुकनेके लिये आधार हैं तथा उस ऊँचाईसे तीन गुने प्रमाणमें सूर्युमण्डलका दीर्घ विस्तर है । जिस जम होते - से प्रतीत होती हैं । जिस समय अमरावतीपुनती मध्याह्ने समय सूर्य रहते हैं । उस समय संयकमती पुरीमें उदित होते दीख पड़ते हैं । भगवान् सूर्य सदा मेरुगिरिकी पक्रिमा करते हुए ही सुशोभित होते हैं । वे ध्रुवके आधारपर स्थित हैं । उनक उदय होते हैं । वे ध्रुवके आधारपर स्थित हैं । उनके उदय होते समय बालखिल्यादि ऋषि उनकी स्तुति करते हैं ॥४९ - ५२॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' भूगोलवर्णन ' विषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३०॥

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Last Updated : July 25, 2009

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