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अध्याय ५०

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ५०

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


मार्कण्डेयजी बोले - वालीसे वैर हो जानेके कारण उसके लिये दुर्गम स्थानमें रहनेवाले वानरराज सुग्रीवने दूरसे ही श्रीराम और लक्ष्मणको आते देखा और देखकर पवनकुमार हनुमानजीसे कहा - ' ये दोनों किसके पुत्र हैं, जो हाथमेंख सुन्दर धनुष लिये, चीर एवं वल्कल - वस्त्र धारण किये, कमलों एवं उत्पलोंसे आच्छन्न इस दिव्य सरोवरको देख रहे हैं ।' जान पड़ता है, ये दोनों वालीके भेजे हुए बहुविधरुपाधारी दूत हैं, जो इस समय तपस्वीका वेष धारण किये यहाँ आ पहुँचे हैं । यह निश्चय करके सूर्यकुमार सुग्रीव भयभीत हो गये और समस्त वानरोंके साथ ऋष्यमूक पर्वतके कूदकर दूसरे वनमें स्थित अगस्त्यमुनिके उत्तम आश्रमपर चले गये ॥१ - ४॥

वहाँ स्थित होकर सुग्रीवने पुनः पवनकुमारसे कहा - ' हनुमन् ! तुम भी तपस्वीका वेष धारण करके शीघ्र जाओ और पूछो कि ' वे कौन हैं ? किसके पुत्र हैं ? और किस लिये वहाँ ठहरे हुए हैं ? ' महाबुद्धिमान् वायुनन्दन ! ये सब बातें सच - सच जानकर मुझसे बताओ ' ॥५ - ६॥

उनके इस प्रकार कहनेपर हनुमानजी संन्यासीके रुपमें पम्पासरके उत्तम तटपर गये और भाई लक्ष्मणके साथ विद्यमान श्रीरामचन्द्रजीसे बोले - ' महामते ! आप कौन हैं ? यहाँ कैसे आये हैं ? इस जनशून्य घोर वनमें आप कहाँसे आ गये ? यहाँ आनेका क्या प्रयोजन है ? - ये सब बातें मेरे समक्ष ठीक - ठीक बताइये ' ॥७ - ८॥

इस प्रकार पूछते हुए हनुमानजीसे अपने भाईकी आज्ञा पाकर लक्ष्मण बोले - ' मैं श्रीरामचन्द्रजीका वृत्तान्त आदिसे ही वर्णन करता हूँ, सुनो । इस पृथ्वीपर दशरथ नामके राजा बहुत प्रसिद्ध थे । महाबुद्धे ! ये मेरे बड़े भाई श्रीराम उन्हीं महाराजके ज्येष्ठ पुत्र हैं । इनका राज्याभिषेक होने जा रहा था, किंतु ( मेरी छोटी सौतेली माता ) कैकेयीने उसे रोक दिया । फिर, पिताकी आज्ञाका पालन करते हुए ये मेरे बड़े भ्राता श्रीराम मेरे तथा अपनी धर्मपत्नी सीताके साथ घरसे निकल आये । वनमें आकर इन्होंने अनेकों मुनियोंसे युक्त दण्डकारण्यमें प्रवेश किया । वहाँ जनस्थानमें निवास करते हुए इन महात्मा श्रीरामचन्द्रजीकी धर्मपत्नी सीताको वनमें किसी पापीने हर लिया । उन सीताजीकी ही खोज करते हुए ये वीरवर कमलनयन श्रीराम यहाँ आये हैं जिससे तुम्हें यहाँ इनका दर्शन हुआ है । बस, यही हमारा वृत्तान्त है, जो तुमसे बता दिया ' ॥९ - १४॥

महात्मा लक्ष्मणके वचन सुनकर उनपर विश्वास हो आनेके कारण वायुनन्दन हनूमानने अपने स्वरुपको प्रकट नहीं किया और रघुकुलनायक रामचन्द्रसे यह कहकर कि ' आप मेरे स्वामी हैं ' - उन्हें सान्त्वना देते हुए अपने साथ सुग्रीवके पास ले आकर उन दोनों भाइयोंकी सुग्रीवसे मित्रता करा दी । पीर श्रीरामचन्द्रजीके स्वरुपका परिचय प्राप्त हो जानेके कारण उनके चरण - कमलोंकी सिरपर धारणकर वानरराज सुग्रीवने मधुर वाणीमें कहा - ' राजेन्द्र ! इसमें संदेह नहीं कि आजसे आप हमारे स्वामी हुए और प्रभो ! मैं समस्त वानरोंके साथ आपका सेवक हुआ । रघुनन्दन ! आपका जो शत्रु है, वह आजसे मेरा भी शत्रु है और जो आपका मित्र है, वह मेरा भी श्रेष्ठ मित्र है; इतना ही नहीं, आपका जो दुःख है, वह मेरा भी हे तथा आपकी प्रसन्नता ही मेरी भी प्रसन्नता है ' यों कहकर सुग्रीवने पुनः श्रीरामचन्द्रजीसे कहा ॥१५ - १९ १/२॥

' प्रभो ! ' वाली ' नामक मेरा ज्येष्ठ भाई है, जो महाबलवान् और बड़ा ही पराक्रमी है; किंतु वह हदयका अत्यन्त दुष्ट है । उसने कामासक्त होकर मेरी भार्याका अपहरण कर लिया है । पुरुषश्रेष्ठ ! इस समय आपके सिवा दूसरा कोई वालीको मारनेवाला नहीं है । राजकुमार ! पुराणवेत्ताओंने कहा है कि जो ताड़के इन सात वृक्षोंको एक साथ ही काट डालेगा, वही वालीका वध कर सकेगा ' ॥२० - २२॥

[ यह सुनकर ] श्रीमान् रामचन्द्रजीने भी सुग्रीवका प्रिय करनेके लिये आधे खींचे हुए बाणसे ही उन सात महावृक्षोंको एक ही साथ काट डाला । उन महावृक्षोंका भेदन करके श्रीरामने राजा सुग्रीवसे कहा - ' सूर्यनन्दन सुग्रीव ! मेरे पहचाननेके लिये अपने शरीरमें कोई चिह्न धारण करके तुम जाओ और वालीके साथ युद्ध करो ।' उनके यों कहनेपर सुग्रीवने चिह्न धारणकर वालीके साथ युद्ध किया और श्रीरामने भी वहाँ जाकर एक ही बाणसे वालीको बीध दिया । इससे पराक्रमी वाली पृथ्वीपर गिरा और मर गया । तब श्रीरामचन्द्रजीने अत्यन्त डरे हुए वालिकुमार अङ्गदको , जो बहुत ही विनयी और संग्राममें कुशल था , युवराजपदपर अभिषिक्त करके ताराको सुग्रीवकी सेवामें अर्पित कर दिया । तत्पश्चात् कमलनयन धर्मात्मा श्रीराम सुग्रीवसे बोले - ' तुम वानरोंके राज्यकी देख - भाल कर लो, फिर मेरे पास आना और कपीश्वर ! सीताकी खोज करानेका शीघ्र ही यत्न करना ' ॥२३ - २८ १/२॥

उनके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर सुग्रीवने लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजीसे कहा - ' रघुनन्दन ! इस समय महान् वर्षाकाल आ पहुँचा है; इन्द्रके वर्षा करते रहनेपर इस वनमें वानरोंका चलना - फिरना न हो सकेगा । राजेन्द्र ! वर्षा बीतने और शरत्काल आ जानेपर मैं समस्त दिशाओंमें अपने वानर दूतोंको भेजूँगा ।' यह कहकर वानरराज सुग्रीवने श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम किया और पम्पापुरमें प्रवेश करके वे ताराके साथ रमण करने लगे ॥२९ - ३२॥

इधर महामति श्रीरामचन्द्रजी भी अपने भाई लक्ष्मणके साथ उस महावनमें ' नीलकण्ठ ' नामक पर्वतकी चोटीपर विधिपूर्वक रहने लगे । ( सीताके वियोगमें ) उनका वर्षाकाल बड़ी कठिनाईसे बीता । जब शरत्काल उपस्थित हुआ तब श्रीरामचन्द्रजीने सीताके वियोगसे व्यथित हो सुमित्रानन्दन लक्ष्मणसे इस विषयमेम वार्तालाप किया । उस समयतक वहाँ न आकर सुग्रीवने अपनी पूर्व प्रतिज्ञाका उल्लङ्हन किया था । इसलिये भ्रातृवत्सल ककुत्स्थनन्दन श्रीरामने लक्ष्मणसे क्रोधपूर्वक कहा ' लक्ष्मण ! तुम पम्पापुरमें जाओ । देखो, क्या कारण है कि वह दुष्ट वानरराज अभीतक नहीं आया । पहले तो वह यही कहकर गया था कि ' वर्षाकाल बीतनेपर मैं अनेक वानरोंके साथ आपके पास आऊँगा ।' अब तुम जहाँ वह वानरराज रहता है, वहाँ शीघ्रतापूर्वक जाओ । ताराके साथ रमण करनेवाले उस दुष्ट वानरको आगे करके समस्त वानरसेनाके सहित मेरे पास शीघ्र ले आओ । यदि ऐश्वर्य प्राप्त कर लेनेके कारण मदमें चूर हो सुग्रीव यहाँ न आये तुम उस असत्यवादीसे यों कहना - ' अरे दुष्ट ! श्रीरामने कहा है कि जिससे वलिका वध किया गया था, वह बाण आज भी मेरे हाथमें मौजूद है; अतः वानर ! इस बातको याद करके तू श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञाका पालन कर; इसीमें तेरा भला है ' ॥३३ - ४०॥

श्रीरामचन्द्रजीके ऐसी आज्ञा देनेपर लक्ष्मणने ' बहुत अच्छा ' कहकर उसे शिरोधार्य किया और उनको नमस्कार करके वे पम्पापुरमें गये, जहाँ सुग्रीव रहता था । वहाँ उन्होंने वानरराज सुग्रीवको देखकर कहा - '' अरे ! तू श्रीरामचन्द्रजीके कार्यसे मुँह मोड़कर यहाँ ताराके साथ भोग - विलासमें फँसा हुआ है ? रे दुर्बुद्धे ! तूने श्रीरामके सामने जो यह प्रतिज्ञा की थी कि ' जहाँ - कहीं भी हो, सीताको ढूँढ़कर मैं आपको अर्पित करुँगा ' उसे क्या भूल गया ? अरे पापात्मा वानराज ! जिन्होंने वालिको मारकर पहले ही तुम्हें राज्य दे दिया, ऐसे परोपकारी मित्रका तेरे सिवा कौन अनादर कर सकता है ? तूने देवता, अग्नि और जलके निकट श्रीरामसे यह प्रतिज्ञा की थी कि ' राजन् ! मैं पत्नीसे वियुक्त हुए आपकी सहायता करुँगा । राजन् ! जो - जो आपके शत्रु हैं, वे - वे मेरे भी सदा ही मित्र हैं । राजन् ! मैं बहुत - से वानरोंके साथ सीताकी खोज करानेके लिये अवश्य ही आपके पास आऊँगा ।' भगवान् श्रीरामके निकट यों कहकर तुझ - जैसे दुष्ट पापीके सिवा दुसरा कौन है, जो इसके विपरीत आचरण करता । अरे दुष्ट वानर ! इस प्रकार तूने अपना काम तो उनसे करा लिया और उनका कार्य करना तू भूल गया ! इस समय ऋषियोंकी यह यथार्थ बात कि ' अपना काम सिद्ध हो जानेपर सभीकी बुद्धि बदल जाती है, जैसे बछड़ा माताके थनोंमें दूधकी कमी देखकर उसे छोड़ देता है [ फिर माताकी परवा नहीं करता ]' मुझे तुझमें ही ठीक - ठीक घटती - सी दीख रही है । संसारमें जो मनुष्योचित सदव्यवहारका ज्ञान रखनेवाले हैं, उन सर्वज्ञ महात्माओंमेंसे मैं किसीको भी ऐसा नहीं देखता, जो लोकमें दूसरोंके द्वारा किये हुए उपकारको न मानता हो । शास्त्रोंमें महापातकी पुरुषोंमें भी उद्धारका उपाय ( प्रायश्चित्त ) देखा गया है, किंतु दुष्ट वानर ! कृतघ्न पुरुषके उद्धारका उपाय मैंने पहले कभी नहीं देखा है । इसलिये तुझे कभी कृतघ्नता नहीं करनी चाहिये । अपनी की हुई प्रतिज्ञाको याद कर । अब आ, तेरे हितकी रक्षा करनेवाले ककुत्स्थकुलनन्दन भगवान् श्रीरामकी शरणमें चल । वानर ! यदि तू नहीं आना चाहता तो यह श्रीरामका वचन सुन । [ उन्होंने कहा है - ] ' मैं वालिकी ही भाँति सुग्रीवको भी यमपुर भेज दूँगा । जिससे वानरराज वालि मारा गया है, वह बाण अब भी मेरे पास मौजूद है '' ॥४१ - ५३ १/२॥

लक्ष्मणके इस प्रकार कहनेपर कपिराज सुग्रीव मन्त्रीकी प्रेरणासे बाहर निकले । उन्होंने लक्ष्मणको प्रणाम किया और उन महात्मासे कहा - ' महाभाग ! हमारे अज्ञानवश किये हुए अपराधोंको आप क्षमा करें । मैंने उस समय अमिततेजस्वी राजा रामचन्द्रके साथ जो प्रतिज्ञा की थी, उसका अब भी उल्लङ्घन नहीं करुँगा । महावीर राजकुमार ! मैं अब समस्त वानरोंको साथ लेकर आपके साथ श्रीरामके पास चलूँगा । मुझे वहाँ देखकर श्रीराचन्द्रजी मुझसे जो कुछ भी कहेंगे, उसे मैं शिरोधार्य करके निस्संदेह पूर्ण करुँगा । राजन् ! मेरे यहाँ बड़े - बड़े वीर वानर हैं । उन सबको मैं सीताजीकी खोज करनेके लिये समस्त दिशाओंमें भेजूँगा ' ॥५४ - ५९ १/२॥

वानरराज सुग्रीवके यों कहनेपर लक्ष्मणने कहा - ' आओ ! अब यहाँसे शीघ्र ही श्रीरामके पास चलें । वीर ! महामते ! वानरों और भालुओंकी सेना भी बुला लो, जिसे देखकर श्रीरामचन्द्रजी तुमपर प्रसन्न हों ।' लक्ष्मणद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर परम पराक्रमी सुग्रीवने पास ही खड़े हुए युवराज अङ्गदसे इशारेमें कुछ कहा । अङ्गदने भी जाकर सेनाका संचालन करनेवाले सेनपतिको प्रेरित किया । सेनापतिके बुलानेसे पर्वत, कन्दरा और वृक्षोंपर रहनेवाले करोड़ों वानर आये । पर्वतोंके समान आकारवाले उन भयंकर पराक्रमी वानरोंके साथ सुग्रीवने उस समय शीघ्रतापूर्वक पहुँचकर श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम किया । साथ ली लक्ष्मणजीने भी अपने भाईको प्रणाम करके कहा - ' राजन् ! इन विनयशील सुग्रीवपर अब आप कृपा करें ' ॥६० - ६६॥

भाई लक्ष्मणके इस प्रकार अनुरोध करनेपर श्रीरामचन्द्रजीने सुग्रीवसे कहा - ' महावीर सुग्रीव ! यहाँ आओ । कहो, कुशल तो है न ? ' श्रीरामचन्द्रजीका ऐसा कथन सुनकर और उन नरेशको प्रसन्न जानकर सुग्रीवने सिरपर अञ्जलि जोड़ उनसे कहा - ' राजन् ! प्रभो ! मेरी कुशल तो तभी होगी, जब मैं सीतादेवीको ढूँढ़कर आपको अर्पित कर दूँ; नहीं तो नहीं ' ॥६७ - ६९॥

सुग्रीवने जब यह बात कही, तब पवनकुमार हनूमानजी श्रीरामको नमस्कार करके कपिराज सुग्रीवसे बोले - ' सुग्रीव ! आप मेरी बात सुनें । ये राजा श्रीरामचन्द्रजी सीताके वियोगसे सदा ही बहुत दुःखी रहते हैं, इसलिये फल आदिका भी आहार नहीं करते । इन्हींके दुःखसे ये लक्ष्मण भी सदा दुःखित रहा करते हैं । इन दोनोंकी यहाँ जो अवस्था है, उसे सुनकर इनके छोटे भाई भरत भी दुःखी पड़े रहते हैं । राजन् ! चूँकि ऐसी स्थिति है, अतः आप बहुत शीघ्र सीताकी खोज कराइये ' ॥७० - ७३॥

बुद्धिमान् वायुनन्दनके यों कहनेपर अत्यन्त तेजस्वी जाम्बवान् श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करके सामने खड़े हो गये । वे नीतिज्ञ थे, अतः कपिराज सुग्रीवसे नीतियुक्त वचन बोले - ' सुग्रीव ! हनुमानजीने जो कहा है, उसे आप ठीक ही समझें । श्रीरामचन्द्रजीकी यशस्विनी भार्या विदेहकुलनन्दिनी जनककुमारी महाभागा पतिव्रता सीता जहाँ - कहीं भी होंगी, आज भी सदाचारसे सम्पन्न होंगी - यह विचार मेने मनमें निश्चितरुपसे जमा हुआ है । सुग्रीव ! सदा कल्याणस्वरुप श्रीरामचन्द्रजीमें ही मन लगाये रहनेवाली सीताजीका इस पृथ्वीपर किसीके द्वारा भी पराभव नहीं हो सकता । इसलिये आप अभी वानरोंको भेजें ' ॥७४ - ७७ १/२॥

जाम्बवानके इस प्रकार कहनेपर महान् बल और पराक्रमसे युक्त कपिराज सुग्रीवने प्रसन्न हो सीताकी खोजके लिये बहुत - से वानरोंको पश्चिम दिशामें भेजा तथा उन धर्मात्माने उत्तर दिशामें भी सीताको ढूँढ़नेके निमित्त एक लाख वानरोंको उसी समय भेज दिया । इसी प्रकार प्रतापी वानरराजने पूर्व दिशामें भी रामकी श्रेष्ठ भार्या सीताका अन्वेषण करनेके लिये बहुत - से वानर भेजे । बुद्धिमान् वानरराज सुग्रीवने इस प्रकार वानरोंकी भेज लेनेके बाद वालिकुमार अङ्गदसे कहा - ' अङ्गद ! तुम सीताकी खोज करनेके लिये दक्षिण दिशामें जाओ । तुम सीताकी खोज करनेके लिये दक्षिण दिशामें जाओ । मेरी आज्ञासे आज तुम्हारे चलते समय तुम्हारे साथ जाम्बवान् हनुमान, मैन्द, द्विविद और नील आदि महाबली एवं महापराक्रमी वानर जायँगे । बेटा ! तुम सभी लोग बहुत शीघ्र जाकर यशस्विनी सीताका दर्शन करो और यह भी पता लगाओ, ' वे कैसे स्थानमें हैं, किस रुपमें हैं ? विशेषतः उनका आचरण कैसा है ? कौन उन्हें ले गया है ? तथा उसने उन्हें कहाँ रखा है ?' - यह सब जानकर शीघ्र लौट आओ '' ॥७८ - ८५ १/२॥

अपने चाचा महात्मा सुग्रीवके इस प्रकार आदेश देनेपर अङ्गदने तुरंत उठकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की । सुग्रीवकी पूर्वोक्त आज्ञा सुनकर नीतिज्ञ जाम्बवानने सब वानरोंको कुछ दूर खड़ा कर दिया और श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव तथा हनुमानजीको एक जगह करके उनसे यह नीतियुक्त बात कही - ' नृपनन्दन श्रीरामचन्द्रजी ! सीताका अन्वेषण करनेके विषयमें इस समय आप मेरी एक बात सुनें और सुननेके बाद यदि वह अच्छी लगे तो उसे स्वीकार करें । जटायुने तपस्विनी सीताको जनस्थानसे रावणद्वारा ले जायी जाती हुई देखा था तथा उन्होंने उसके साथ यथाशक्ति युद्ध भी किया था । साथ ही, सीताजीने उस समय अपने आभूषण उतार फेंके थे, जिनको जटायुने और हम लोगोंने भी देखा था । उन आभूषणोंको हमने सुग्रीवको अर्पित कर दिया है । इस कारण राजेन्द्र ! जटायुके कथनानुसार आप इस बातको सत्य समझें कि सीताजीको वही दुष्ट राक्षस रावण ले गया है और महाबाहो ! वे इस समय लङ्कामें ही हैं । वहाँ रहकर भी वे आपके ही दुःखसे अत्यन्त दुःखी हो निरन्तर आपका ही स्मरण किया करती हैं । जनकनन्दिनी सीता लङ्कामें रहकर भी अपने सदाचारकी यत्नपूर्वक रक्षा कर रही हैं । वे सुमुखी सीतादेवी आपके ही ध्यानसे अपने प्राणोंको धारण करती हुई प्रायः आपके ही वियोग - दुःखमें डूबी रहती हैं । इसलिये राजन् ! इस समय आपके हितकी ही बात बता रहा हूँ, आप इस कार्यके लिये वायुपुत्र हनुमानजीको आज्ञा दें; क्योंकि ये ही समुद्र लाँघनेमें समर्थ हैं और सुग्रीव ! आपको भी चाहिये कि पवनकुमार हनुमानजीको ही वहाँ भेजें; क्योंकि वानरोंमें उनके अतिरिक्त कोई भी ऐसा नहीं है, जो समुद्रके पार जा सके तथा हे वीर ! इनके बराबर किसीका बल भी नहीं है । बस, मेरे मनमें यही विचार है । मेरे कधनका शीघ्र पालन किया जाय; क्योंकि यह हमारे लिये सदा ही हितकर और लाभकारी होगा ' ॥८६ - ९७ १/२॥

जाम्बवानके इस प्रकार थोड़े अक्षरोंमें नीतियुक्त वचन कहनेपर वानरराज सुग्रीव शीघ्र ही अपने आसनसे उठे और वायुनन्दन हनुमानजीके निकट जाकर उनसे बोले - ॥९८ - ९९॥

'' पवनकुमार वीर हनुमानजी ! तुम मेरी बातु सुनो । ये प्रतापी राजा श्रीरामचन्द्रजी इक्ष्वाकु वंशके भूषण हैं । ये अपने पिताकी आज्ञा मानकर भाई और पत्नीके सहित दण्डकारण्यमें चले आये थे । सदैव धर्ममें तत्पर रहनेवाले ये श्रीराम समस्त लोकोंके ईश्वर और सबके आत्मा साक्षात् भगवान् विष्णु ही हैं । इस समय मनुष्यरुपमें अवतीर्ण हुए हैं । इनकी धर्मपत्नी सीताको दुष्ट दुरात्मा रावणेने हर लिया है । ये प्रतापी वीर राजा उन्हींके वियोगजन्य दुःखसे पीड़ित हो वन - वनमें उन्हींकी खोज करते हुए आ रहे थे, जबकि तुमने इन्हें पहले - पहल देखा था । इनके साथ मिलकर हमने प्रतिज्ञा भी की थी । इन्होंने मेरे शत्रु महाबली वालिका वध किया तथा कपे ! इन्हींकी मेरे शत्रु महाबली वालिका वध किया तथा कपे ! इन्हींकी कृपासे मैंने इस समय अपना राज्य प्राप्त किया है और मैंने भी इनकी सहायताके लिये प्रतिज्ञा की है । पवननन्दन ! मैं अपनी उस प्रतिज्ञाको तुम्हारे ही बलपर पूर्ण करना चाहता हूँ । वीर ! समुद्रके पार जा पतिव्रता सीताको देखकर पुनः समुद्रके इस पार लौट आनेकी सामर्थ्य तुम्हारे सिवा वानरोंमेंसे किसीमें भी नहीं है । अतः महामते ! तुम्हीं अपने स्वामीके कार्यको ठीक - ठीक जान सकते हो; क्योंकि तुम बलवान् नीतिज्ञ और दूतकर्ममें दक्ष हो '' ॥१०० - १०७ १/२॥

महात्मा सुग्रीवके यों कहनेपर हनुमानजी बोले - ' आप ऐसी बात क्यों कहते हैं ? भला, अपने स्वामी भगवान् श्रीरामका कार्य क्या मैं नहीं करुँगा ? वायुनन्दनके इस प्रकार उत्तर देनेपर शत्रुविजयी महाबाहु राम सीताकी यादसे अत्यन्त दुःखी हो, आँखोंमें आँसू भरकर, सामने बैठे हुए हनुमानजीसे समयोचित वचन बोले - ' महामते ! मैं समुद्रके पार जाने आदिका भार तुम्हारे ही ऊपर रखकर सुग्रीवको अपने साथ रखता हूँ । हनुमत् ! तुम मेरी, इन वानर - बन्धुओंकी और विशेषतः सुग्रीव की प्रसन्नताके लिये दृढ़ निश्चय करके वहाँ ( लङ्कामें ) जाओ । महावीर ! प्रायः यही जान पड़ता है कि रावण नामक राक्षस ही सीताको ले गया है; अतः जहाँ सीता रखी गयी हो, वहाँ जाना । यदि वे पूछें कि ' तुम जिनके पाससे आते हो, उन श्रीराम और लक्ष्मणका स्वरुप कैसा है ?' तो इसका उत्तर देनेके लिये तुम मेरे शरीरको तथा मेरे छोटे भाई लक्ष्मणको भी अच्छी तरह देख लो । हम दोनोंके शरीरका प्रत्येक चिह्न देखकर उनसे बताना । नहीं तो सीता तुमपर विश्वास नहीं कर सकतीं - यह मेरे मनका दृढ़ विचार है ' ॥१०८ - ११५॥

भगवान् श्रीरामके यों कहनेपर महाबली वायुनन्दन हनुमान् उठकर उनके सामने खड़े हो गये और हाथ जोड़कर उनसे बोले - ' मैं आप दोनोंके सब लक्षण विशेषरुपसे जानता हूँ; अब मैं वानरोंके साथ जा रहा हूँ, आप खेद न करें । कमललोचन राजन् ! इसके अतिरिक्त आप मुझे कोई पहचानकी वस्तु दीजिये, जिससे आपकी महारानी सीताका मुझपर विश्वास हो ॥११६ - ११८॥

वायुनन्दन हनुमानके इस प्रकार अनुरोध करनेपर कमलनयन श्रीरामने अपनी अँगूठी निकालकर दे दी, जिसपर ' राम ' नाम खुदा हुआ था । उसे लेकर पवनकुमार हनुमानने भी श्रीराम, लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीवकी परिक्रमा की । फिर उन्हें प्रणामकर वे अञ्जनीनन्दन हनुमान वहाँसे शीघ्रतापूर्वक चले । तब सुग्रीव भी अपने आज्ञाकारी एवं बलाभिमानी वानरोंके विषयमें यह जानकर कि वे जानेके लिये उद्यत हैं, उन्हें आदेश देते हुए बोले - ' सभी वानर इस समय मेरी आज्ञाअ सुन लें - तुम पर्वतों और वनोंमें विलम मत जाना । शीघ्र जाकर महाभागा रामपत्नी पतिव्रता सीताका पता लगाकर लौट आना; मैं श्रीरामचन्द्रजीके पास ठहरता हूँ । यदि तुम मेरी आज्ञाके विपरीत चलोगे तो मैं तुम्हारी नाक और कान काट लूँगा ' ॥११९ - १२४॥

कपिराज सुग्रीवने इस प्रकार आज्ञापूर्वक उन्हें भेजा और वे वानर पश्चिम आदि दिशाओंमें चल पड़े । समस्त पर्वतोंके सानुओं ( उपत्यकाओं ) और शिखरोंपर, सारी नदियोंके तटोंपर, मुनियोंके आश्रमोंमें, खड्डोंमें, सब प्रकारके वनों और उपवनोंमें, वृक्षों और झाड़ियोंमें, कन्दराओं तथा शिलाओंमें, सह्यपर्वतके आस - पास, विन्ध्याचल और समुद्रके निकट, हिमालय पर्वतपर किम्पुरुष आदि देशोंमें, समस्त मानवीय प्रदेशोंमें, सातों पातालोंमें, सम्पूर्ण मध्यप्रदेशोंमें, कश्मीरमें, पूर्वदिशाके सारे देशोंमें, कामरुप ( आसाम ) और कोशल ( अवध ) - में, सम्पूर्ण तीर्थ - स्थानोंमें तथा सातों कोङ्कण देशोंमें भी जहाँ - तहाँ सर्वत्र सीताकी खोज करते हुए वे महाबली वानर उन्हें न पाकर लौट आये । आकर उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मणके चरणोंमें तथा विशेषतः सुग्रीवको प्रणाम किया और यह कहकर कि ' हमने कमललोचना महाभागा सीताको कहीं नहीं देखा ', वहाँ खड़े हो गये ॥१२५ - १३२॥

तब दुःखित हुए भगवान् रामसे कपिराज सुग्रीवने कहा - ' राजन् ! सीताजी दक्षिण दिशामें ही वनमें स्थित हैं; उन्हें वानरश्रेष्ठ बुद्धिमान् पवनकुमार ही देख सकते हैं । इसमें संदेह नहीं कि हनुमानजी सीताको देखकर ही आयेंगे । महाबाहु श्रीराम ! आप धैर्य धारण करें, मेरा यह कथन बिलकुल सत्य हैं ।' तब लक्ष्मणने भी शकुन देखकर यह बात कही - ' हनुमान् सर्वथा सीताको देखकर ही आयेंगे ।' इस प्रकार सुग्रीव और लक्ष्मण भगवान् श्रीरामको सान्त्वना देते हुए उनके पास रहने लगे ॥१३३ - १३६॥

इधर जो - जो श्रेष्ठ वानर अङ्गदजीको आगे करके यशस्विनी श्रीसीताजीकी यत्नपूर्वक खोज करनेके लिये गये थे, वे वनमें कहीं भी सीताजीका पता न पाकर बहुत थक गये तथा कष्टमें पड़ गये । यही नहीं, कुछ भोजन न मिलनेके कारण वे भूखसे भी बहुत पीड़ित हो गये । गहन वनमें घूमते हुए उन्होंने एक परम कान्तिमयी और उत्तम गुणोंवाली ऋषिपत्नी देखी, जो कन्दरामें निवास करनेवाली और सिद्धा थी । उसने उन वानरोंको अपने आश्रपर आया देख पूछा - ' आप लोग किसके दूत हैं ? कहाँसे आये हैं ? और यहाँ आनेका क्या प्रयोजन है ?' ॥१३७ - १४०॥

उसकी बात सुनकर महामति जाम्बवानने उस सिद्धा तपस्विनीसे कहा - ' शोभने ! पापहीने ! हम सुग्रीवके भृत्य हैं, श्रीरामचन्द्रजीकी भार्या सीताकी खोज करनेके लिये यहाँ आये हैं । हम किस दिशाको जायँ, इसका ज्ञान हमें नहीं रह गया है । सीताजीका पता न पानेके कारण अभीतक हमने कुछ भोजन भी नहीं किया है ' ॥१४१ - १४२॥

जाम्बवानके यों कहनेपर उस कल्याणी तपस्विनीने पुनः उन वानरोंसे कहा - ' मैं श्रीराम, लक्ष्मण, सीता और कपिराज सुग्रीवको भी जानती हूँ । वानरेन्द्रगण ! आप लोग यहाँ मेरा दिया हुआ आहार ग्रहण करें । आप लोग श्रीरामचन्द्रजीके कार्यसे यहाँ आये हैं, अतः हमारे लिये श्रीरामचन्द्रजीके समान ही आदरणीय हैं ।' यों कहकर उस तपस्विनीने अपने योगबलसे उन वानरोंको अमृतमय मधुर पदार्थ अर्पित किया तथा यथेष्ट भोजन कराकर पुनः उनसे कहा - ' सीताका स्थान पक्षिराज सम्पातिको ज्ञात है । वे इसी वनमें महेन्द्रपर्वतपर रहते हैं । वानरगण ! आप लोग इसी मार्गसे वहाँ पहुँच जायँगे । सम्पाति बहुत दूरतक देखनेवाले हैं, अतः वे सीताका पता बता देंगे । उनके बताये हुए मार्गसे आप लोग पुनः आगे जाइयेगा । जनकनन्दिनी सीताको ये पवनकुमार हनुमानजी अवश्य देख लेंगे ' ॥१४३ - १४८॥

उसके इस प्रकार कहनेपर वानरगण बहुत ही प्रसन्न हुए; उन्हें बड़ा उत्साह मिला । फिर वे उस तपस्विनीको प्रणाम करके वहाँसे प्रस्थित हुए । सम्पातिको देखनेकी इच्छासे वे वीर कपीश्वर महेन्द्रपर्वतपर गये तथा वहाँ बैठे हुए सम्पातिको उन्होंने देखा । तब पक्षिराज सम्पातिने वहाँ आये हुए वानरोंसे कहा - ' आप लोग कौन हैं ? किसके दूत हैं ? कहाँसे आये हैं ? शीघ्र बतायें ' ॥१४९ - १५१॥

सम्पातिके यों पूछनेपर वानरोंने सारा समाचार यथार्थरुपसे क्रमशः बताना आरम्भ किया - ' पक्षिराज ! हम सब श्रीरामचन्द्रजीके दूत हैं । कपिराज महात्मा सुग्रीवने हमें सीताजीकी खोजके लिये भेजा है । पक्षिवर ! एक सिद्धाके कहनेसे हम आपका दर्शन करनेके लिये यहाँ आये हैं । महामते ! महाभाग ! सीताके स्थानका पता आप हमें बता दें ।' वानरोंके इस तरह अनुरोध करनेपर गृध्र सम्पातिने अपनी दृष्टि दक्षिण दिशाकी ओर दौड़ायी और पतिव्रता सीताको देखकर बताया - ' सीताजी लङ्कामें अशोकवनके भीतर ठहरी हुई हैं ।' तब वानरोंने कहा - ' आपके भ्राता जटायुने सीताजीकी रक्षाके लिये ही प्राणत्याग किया है ।' यह सुनकर महामति सम्पातिने स्नान करके जटायुको जलाञ्जलि दी और योगधारणाका आश्रय ले अपने शरीरको त्याग दिया ॥१५२ - १५६॥

तदनन्तर वानरोंने सम्पातिके शवका दाह - संस्कार किया और उन्हें जलाञ्जलि दे, महेन्द्रपर्वतपर जाकर तथा उसके शिखरपर आरुढ़ हो, क्षणभर खड़े रहे । फिर समुद्रकी ओर देख वे सभी परस्पर कहने लगे - ' रावणने ही भगवान् श्रीरामकी भार्या सीताका अपहरण किया है, यह बात निश्चित हो गयी । सम्पातिके वचनसे आज सब बातें ठीक - ठीक ज्ञात हो गयीं । शोभाशाली वानरो ! अब आप सब लोग सोचकर बतायें कि यहाँ वानरोंमे कौन ऐसा वीर है, जो इस क्षार समुद्रके पार जा लङ्कामें घुसे और परम यशस्विनी श्रीरामपत्नी सीताजीका दर्शन करके पुनः समुद्रके पार लौट आनेमें समर्थ हो सके ' ॥१५७ - १६०॥

वानरोंकी यह बात सुनकर जाम्बवानने कहा - ' समुद्रको पार करनेमें तो सभी वानर समर्थ हैं, परंतु यह कार्य एक अन्यतम वानरसे ही सिद्ध होगा । मेरे विचारमें तो यह आता है कि इस कार्यको सिद्ध करनेमें केवल हनुमानजी ही समर्थ हैं । अब समय नहीं खोना चाहिये । हमारे लौटनेकी जो नियत अवधि थी । उससे पंद्रह दिन अधिक बीत गये हैं । वानरेन्द्रगण ! यदि हमलोग सीताको देखे बिना ही लौट जायँगे तो कपिराज सुग्रीव हमारी नाक और कान काट लेंगे । इसलिये मेरी राय यह है कि हम सब लोग इस कार्यके लिये वायुनन्दन हनुमानजीसे ही प्रार्थना करें ' ॥१६१ - १६३ १/२॥

यह सुनकर उन वानरोंने वृद्ध जाम्बवानजीसे कहा, ' अच्छा, ऐसा ही हो ।' तत्पश्चात् वे सभी वानर कार्यसाधनमें विशेष कुशल महाबुद्धिमान् पवनन्दन हनुमानजीसे प्रार्थना करने लगे - ' अञ्जनीनन्दन ! आप श्रीरामचन्द्रजीके प्रिय सेवक हैं । आप ही रावणको भय देनेके लिये लङ्कामें जायँ और हमारे वानरवृन्दकी रक्षा करें ।' वानरोंके यों कहनेपर पवनकुमार हनुमानजीने ' तथास्तु ' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की । एक तो श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञा थी, फिर अपने स्वामी सुग्रीवने भी आदेश दिया था, इसके बाद महेन्द्रपर्वतपर उन वानरोंने भी उन्हें प्रेरित किया, अतः अञ्जनीकुमार हनुमानजीने समुद्र लाँघकर निशाचरपुरी लङ्कामें जानेका निश्चय कर लिया ॥१६४ - १६७॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' श्रीरामावतारकी कथाविषयक ' पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५०॥

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Last Updated : October 02, 2009

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