श्रीसूतजी कहते हैं - शांतनुके योजनगन्धासे ' विचित्रवीर्य ' नामक पुत्र हुआ । राजा विचित्रवीर्य हस्तिनापुरमें रहकर धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते रहे और यज्ञोंद्वारा देवताओंको तथा श्राद्धके द्वारा पितरोंको तृप्त करके पुत्र पैदा होनेपर स्वर्गलोकको प्राप्त हुए । विचित्रवीर्यके अम्बालिकाके गर्भसे ' पाण्डु ' नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । पाण्डु भी धर्मपूर्वक राज्यपालन करके मुनिके शापसे शरीर त्यागकर देवलोकको चले गये । उन राजा पाण्डुके कुन्तीदेवीके गर्भसे ' अर्जुन ' नामक पुत्र हुआ । अर्जुनने बड़ी भारी तपस्या करके शंकरजीको प्रसन्न किया, उनसे ' पाशुपत ' नामक अस्त्र प्राप्त किया और स्वर्गलोकके अधिपति इन्द्रके शत्रु ' निवातकवच ' नामक दानवोंका वध करके अग्निदेवको उनकी रुचिके अनुसार खाण्डववन समर्पित किया । खाण्डववनको जलाकर, तृप्त हुए अग्निदेवसे अनेक दिव्य वर प्राप्त कर, दुर्योधनद्वारा अपना राज्य छिन जानेपर उन्होंने ( अपने भाई ) धर्म ( युधिष्ठिर ), भीम, नकुल, सहदेव और ( पत्नी ) द्रौपदीके साथ विराटनगरमें अज्ञातवास किया । वहाँ जब शत्रुओंने आक्रमण करके विराटकी गौओंको अपने अधिकारमें कर लिया, तब अर्जुनने भीष्म, द्रोण, कृप, दुर्योधन और कर्ण आदिको हराकर समस्त गौओंकिओ वापस घुमाया । फिर विराटराजके द्वारा भाइयोंसहित सम्मानित होकर कुरुक्षेत्रमें भगवान् वासुदेवको साथ ले अत्यन्त बलशाली धृतराष्ट्रपुत्रोंके साथ युद्ध किया और भीष्म, द्रोण, कृप, शल्य, कर्ण आदि महापराक्रमी क्षत्रियों तथा नाना देशोंसे आये हुए अनेकों राजपुत्रोंसहित दुर्योधनादि धृतराष्टपुत्रोंका उन्होंने भीम आदिके सहयोगसे वध करके अपना राज्य प्राप्त कर लिया । फिर भाइयोंसहित वे धर्मके अनुसार ( अपने सबसे बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिरको राजाके पदपर अभिषेक करके ) राज्यका पालन करके अन्तमें सबके साथ प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गलोकमें चले गये ॥१ - ३॥
अर्जुनको सुभद्राके गर्भसे ' अभिमन्यु ' नामक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने महाभारत - युद्धमें चक्रव्यूहके भीतर प्रवेश करके अनेक राजाओंको मृत्युके घाट उतारा था । अभिमन्युके उतराके गर्भसे परीक्षितका जन्म हुआ । धर्मनन्दन युधिष्ठिर जब वानप्रस्थ धर्मके अनुसार वनमें जाने लगे, तब वे भी धर्मपूर्वक राज्यका पालन करके अन्तमें वैकुण्ठधाममें जाकर अक्षय सुखके भागी हुए । परीक्षितसे मातृवतीके गर्भसे जनमेजयका जन्म हुआ, जिन्होंने ब्रह्महत्याके पापसे मुक्त होनेके लिये व्यासशिष्य वैशम्पायनके मुखसे सम्पूर्ण महाभारत आदिसे अन्ततक सुना था । वे भी धर्मपूर्वक राज्यका पालन करके अन्तमें स्वर्गवासी हुए । जनमेजयको अपनी पत्नी पुष्पवतीके गर्भसे ' शतानीक ' नामक पुत्र प्राप्त हुआ । उन्होंने धर्मपूर्वक राज्यका पालन करते हुए संसार - दुःखसे विरक्त हो, शौनकके उपदेशसे यागादि कर्मोंके द्वारा समस्त लोकोंके अधीश्वर भगवान् विष्णुकी निष्कामभावसे आराधना की और अन्तमें वैष्णवधामको प्राप्त कर लिया । शतानीकके फलवतीके गर्भसे सहस्रानीककी उत्पत्ति हुई । सहस्त्रानीक बाल्यावस्थामें ही राजाके पदपर अभिषिक्त हो भगवान् नृसिंहके प्रति अत्यन्त भक्तिभाव रखने लगे । उनके चरित्रका आगे वर्णन किया जायगा । सहस्त्रानीकके मृगवतीसे उदयन हुए । वे कौशाम्बीमें धर्मपूर्वक राज्यका पालन करके नारायणकी आराधन करते हुए वैकुण्ठधामको प्राप्त हुए । उदयनके वासवदत्ताके गर्भसे नरवाहन नामक पुत्र हुआ । वह भी न्यायतः राज्यका पालन करके स्वर्गको प्राप्त हुआ ।
नरवाहनके अश्वमेधदत्ताके गर्भसे क्षेमक नामक पुत्रका जन्म हुआ । क्षेमक राजाके पदपर प्रतिष्ठित होनेके पश्चात् प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करने लगे । उन्हीं दिनों म्लेच्छोंका आक्रमण हुआ और सम्पूर्ण जगत् उनके द्वारा पददलित होने लगा । तब वे ज्ञानके बलसे कलापग्राममें चले आये ॥४ - १२॥
जो उपर्युक्त राजाओंकी हरिभक्ति तथा चरित्रका श्रद्धापूर्वक पाठ या श्रवण करता है, वह विशुद्ध कर्म करनेवाला पुरुष संतति प्राप्त करके अन्तमें स्वर्गलोकमें पहुँचकर वहाँ सुदीर्घ कालतक सुखी रहता है ॥१३॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणे ' शांतनुकी संतातिका वर्णन ' नामक उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२९॥