सौभरि n. एक ऋषि, जिसने मांधातृ राजा की पचास कन्याओं के साथ विवाह किया था । ऋग्वेद में एक वैदिक सूक्तद्रष्टा के नाते निर्दिष्ट सोभरि काण्व नामक ऋषि संभवतः यही होगा । ऋग्वेद में इसके द्वारा त्रसदस्यु राजा की पचास कन्याओं के साथ विवाह का निर्देश प्राप्त है
[ऋ. ८.१९.३६] । विष्णु में इसे बृहवृच् कहा गया है
[विष्णु. ४.२] ।
सौभरि n. मांधातृ राजा की सौ कन्याओं के साथ इसका विवाह किस प्रकार हुआ, इसकी कथा पौराणिक साहित्य में प्राप्त है । एक बार यमुना नदी के किनारे तपस्या करते समय, इसने रतिसुख में निमग्न एक मछली का जोड़ा देखा, जिसे देख कर इसके मन में विवाह की इच्छा उत्पन्न हुई । तदनुसार यह मांधातृ राजा के पास गया, एवं इसने उसकी एक कन्या विवाह के लिए माँगी । इसे बहुत बुढ़ा देख कर राजा के मन में इस प्रस्ताव के प्रति घृणा उत्पन्न हुई। इसी कारण इसे परेशान करने के हेतु उसने झूठी नम्रता से कहा ‘मेरी पचास कन्याओं में से जो भी कन्या आपका वरण करे उससे आप विवाह कर सकते है’। मांधातृ का कपट पहचान कर इसने अपने बुढ़े रूप का त्याग कर, एक नवयुवक का रूप धारण किया, एवं इसी वेष में यह उसके अंतःपुर में गया । इसके नये रूप को देख कर मांधातृ की सभी कन्याओं ने इसका वरण किया । आगे चल कर अपनी हर एक पत्नी से इसे सौ सौ पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार संसारसुख का यथेष्ट अनुभव लेने के पश्चात् इसके मन में पुनः एक बार वैराग्यभावना उत्पन्न हुई, एवं यह वन में चला गया । इसकी पत्नियाँ भी विरागी बन कर इसके साथ वन में चली गयी
[भा. ९.६.३८-५५] ;
[विष्णु. ४.२.३] ;
[पद्म. उ. २६२] ;
[गरुड १.१३८] ।
सौभरि II. n. एक ऋषि, जिसने गरुड को शाप दे कर, उसे यमुना नदी में आने में प्रतिबंध डाल दिया था
[भा. १०.१७.१०] ।
सौभरि III. n. एक आचार्य, जो भागवत के अनुसार व्यास की ऋक्शिष्यपरंपरा में से देवमित्र नामक आचार्य का शिष्य था ।
सौभरि IV. n. एक ऋषि, जिसका आश्रम विंध्य पर्वत पर स्थित था । युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ के समय अर्जुन इसके आश्रम में आया था, जहाँ इसने उसे उद्दालक ऋषि के द्वारा चंडी को दिये गये शाप की पुरातन कथा सुनायी थी । आगे चल कर इसने अर्जुन के द्वारा चंडी का उद्धार कराया
[जै. अ. ९६] ।