मान्धातृ (यौवनाश्व) n. (सू.इ,) ऋग्वेद में निर्दिष्ट अयोध्या का एक सुविख्यात राजा, जो अश्विनों का आश्रित था
[ऋ.१.११२.१३] । ऋग्वेद में इसका निर्देश अनेक बार प्राप्त है, किंतु वहॉं प्रायः सर्वत्र इसे ‘मंधातृ’ कहा गया है । ‘मान्धातृ’ का शब्दशः अर्थ ‘पवित्र व्यक्ति’ है, जिस आशय में इसका निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है
[ऋ.१.११२.१३, ८.३९.८, १०.२.२] । अन्य एक स्थान पर इसे अंगिरस् की भॉंति पवित्र कहा गया है
[ऋ.८.४०.१२] । लुडविग के अनुसार, यह एक राजर्षि था, यह एवं नाभाक दोनों एक ही व्यक्ति थे
[ऋ.८.३९-४२] ;
[लुडविग-ऋग्वेद अनुवाद ३. १०७] । यह इक्ष्वाकुवंशीय युवनाश्व (द्वितीय) अथवा सौद्युम्नि राजा का पुत्र था, एवं इसकी माता का नाम गौरी था, जो पौरव राजा मतिनार राजा की कन्या थी । इसी कारण इसे ‘यौवनाश्व’ पैतृकनाम, एवं ‘गौरिक’ मातृक नाम प्राप्त हुआ था
[वायु.८८.६६-६७] । पुराणों में इसे विष्णु का पॉंचवॉं अवतार, ‘चक्रवर्तिन’ ‘सम्राट’, ‘दानशूर धर्मात्मा’ एवं सौ अश्वमेध एवं राजसूय करनेवाला बताया गया है । यह मनु वैवस्वत के वंश में बीसवी पिढी में उत्पन्न हुआ था, जिस कारण इसका राज्यकाल २७४० ई.पू.माना जाता है (मनु वैवस्वत देखिये) । यह यादव राजा शशबिन्दु का समकालीन था, जिससे इसका आजन्म शत्रुत्व रहा था । इसने इन्द्र का आधा सिंहासन जीत लिया था । इसने अपने राज्य के सीमावर्ती पौरव एवं कान्यकुब्ज राज्यों को जीता था, एवं उत्तरीपश्चिम में स्थित दुह्यु एवं आनव राजाओं को परास्त किया था । यादव राजा इअसके रिश्तेदार थे, जिस कारण इसने उनपर आक्रमण नही किया था । किन्तु पश्चिमी भारत में स्थित हैहय राजाओं को इसने जीता था ।
मान्धातृ (यौवनाश्व) n. इसके पिता युवनाश्व राजा को सौ पत्नियॉं थी, परन्तु उनमें से किसी को भी कोई संतान न थी । अतएव वह हमेशा दुःखी रहता था । एक बार वह जंगल में घूमते घूमते एक आश्रम में आ पहुँचा । वहॉं के ऋषियों ने उसके द्वारा पुत्र प्राप्ति के लिए एक यज्ञ करवाया । यज्ञ समाप्त होने के बाद, जब सारे लोग भोजन कर रात्रि को सो रहे थे, तब युवनाश्व राजा की नींद टूटी, तथा वह अत्यधिक प्यासा हुआ । प्यास बुझाने के लिए यज्ञमंडप में रक्खे हुए हविर्भागयुक्त पेय पदार्थ (पृषदाज्य) उसने भूल से प्राशन किया, जो ऋषियों ने उसकी राजपत्नियों को गर्भवती होने के लिए रक्खा था । कालान्तर में उसके द्वारा पिया गया ‘पृषदाज्य जल’ इसके उदर में गर्भ का रुप धारण कर बढने लगा, तब ऋषियों ने युवनाश्व राजा की कुक्षि का भेद कर उसके उदर से बालक को बाहर निकाला । यही मांधातृ है ।
मान्धातृ (यौवनाश्व) n. अब यह समस्या थी कि, इसका पालनपोषण कौन करे । समय भगवान् इन्द्र प्रत्यक्ष प्रकट हुए, तथा उन्होंने कहा, ‘यह मुझे पान करेगा (मांधाता), अर्थात इसका पोषण मैं करुँगा’। ऐसा कह कर इंद्र ने अपनी अमृतपूर्ण करांगुली इसे पीने के लिए दे दी । इसीलिए इस बालक नाम ‘मांधातृ’ (मुझे चूसनेवाला) रक्खा गया
[म.व.१२६] ;
[द्रो.परि.१.क्र.८.पंक्ति.५२८-५४१] ;
[म.शां.२९-७४-८६] ;
[देभा.७.९-१०] ।
मान्धातृ (यौवनाश्व) n. इन्द्रहस्त के पान करने के कारण, यह अत्यन्त बलवान् हुआ, एवं शीघ्रता के साथ बढने लगा । बारह दिन की हे आयु में यह बारह वर्ष के लडके के समान दिखाई देने लगा । शीघ्र ही यह सब विद्याओं का परमपंडित हो कर तप करने में तत्पर हुआ । अपने तप के सामर्थ्य पर ही इसने ‘अजगव’ नामक धनुष, तथा अन्य दिव्यास्त्रों को प्राप्त किया । यह बडा वीर एवं पराक्रमी राजा था, जिसने अंगार, मरुत्त, गय तथा बृहद्रथ आदि को युद्ध में परास्त किया था । द्रुह्यु राजवंश के बभ्रु राजा के पुत्र रिपु के साथ इसका चौदह माह तक घोर संग्राम चलता रहा । किन्तु अन्त में इसने उसे पराजित कर उसका वध किया
[वायु.९९.८] । यही नहीं, इसने अपने बलपौरुष से रावण को भी पराजित किया था
[भा.९.६.२६-३८] । यह इतना बहादुर था कि, एक दिन में ही इसने सारी पृथ्वी जीत ली थी
[म.शां.१२४.१६] । तथा जयसूचक सौ राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ किये थे । इसके पराक्रम का वर्णन विष्णु पुराण में निम्नलिखित रुप से किया गया है यवत्सूर्य उदेति स्म, यावच्च प्रतितिष्ठति । सर्व तद्यौवनाश्वस्य, मांधातुःक्षेत्रमुच्यते ॥
[विष्णु.४.२.१९] । शूरवीर होने के साथ साथ यह दानवीर भी था । इसने बृहस्पति से गोदान के विषय में प्रश्न किया था ।
[म.अनु.७६.४] । यही नही, यह सदा लाखों गोदान भी करता था
[म.अनु.८१.५-६] । दस्युओं से इसने अपने प्रजा की रक्षा की थीं, जिससे इसे ‘त्रसद्स्यु’ नाम प्राप्त हुआ था । इसने एक बार दानस्वरुप अपना रक्तदान भी दिया था ।
मान्धातृ (यौवनाश्व) n. प्रजापालन के प्रति इसकी कर्तव्यभावना तथा दयालुता का परिचय पद्मपुराण से मिलता है । एक बार इसके राज्य में वर्षा न हुयी, जिसके कारण सारे देश में अकाल पड गया । सारे देश में हाहाकार मच गया, लोग अपने नित्यकर्मो को भूल गये । वेदों का पठनपाठन बन्द हो गया । प्रजा की इस दशा को देखकर यह बडा दुःखी हुआ, एवं इसका कारण जानने के लिए इसने आंगिरस् ऋषि से पृच्छा की । तब उसने बताया, ‘तुम्हारे राज्य में एक वृषल तप कर रहा है, इसीलिए यह अकाल फैला है जब तक उसक अवध न किया जायेगा, तब तक जलवर्षा न होगी’। किन्तु इसने तपस्वी का वध करना उचित न समझा, तथा दुर्भिक्ष को समाप्त करने के लिए, पद्मा नामक एकादशी का व्रत करना प्रारंभ किया । उस व्रत के कारण, सारे राज्य में खूब वर्षा हुयी, एवं लोगों को भी अकाल से छुटकारा मिला
[पद्म.उ.५७] । पद्मपुराण में अन्यत्र कहा है कि, इसने ‘वरुथिनी एकादशी’ का व्रत भी किया था
[पद्म.उ.४८] ।
मान्धातृ (यौवनाश्व) n. इसका विभिन्न ऋषिमुनियों के अतिरिक्त अन्य देवीदेवताओं के साथ भी संबंध था । इंद्र इसका परम मित्र था । सुञ्जय को समझाते हुए नारदजी ने इसकी महत्ता का वर्णन किया था
[म.द्रो.५९] । श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने मुख से इसके गुणों का गान करते हुए, इसके यज्ञों के प्रभाव का वर्णन किया था
[म.शां.२९.७४-८६] । राजधर्म के विषय में इंद्र रुपधारी विष्णु के साथ इसका संवाद हुआ था
[म.शां.६४-६५] । अंगिरापुत्र उतथ्य ने इसे राजधर्म विषय में उपदेश दिया था, जो ‘उतथ्य गीता’ नाम से सुविख्यात है
[म.शां.९१-९२] । इसके राज्य में मांसभक्षण का निषेध था
[म.अनु.११५.६१] । इसने वसुहोम (वसुदम) से दंडनीति के विषय में जानकारी पूछी थी
[म.शां.१२२] ।
मान्धातृ (यौवनाश्व) n. बाद में दैवयोग से इसके मन में अपने पराक्रम के प्रति गर्व की भावना उत्पन्न हो गयी, एवं इंद्र के आधे राज्य को प्राप्त करने की इच्छा से, इसने उसे युद्ध के लिए चुनौती दी । इंद्र ने स्वयं युद्ध न कर के इसे लवणासुर से युद्ध करने के लिए कहा । पश्रात् लवण से इसे युद्ध में पराजित कर इसका वध किया
[वा.रा.उ.६७.२१] । आगे चल कर यही लवण दशरथ के पुत्र शत्रुघ्न के द्वारा मारा गया था ।
मान्धातृ (यौवनाश्व) n. मांधातृ क्षत्रिय था, किंतु अपनी तपस्या के बल पर ब्राह्मण बन गया था
[वायु.९१.११४] । मांधातृ का विवाह यादव राजा शशबिन्दु की कन्या बिन्दुमती से हुआ था, जिसकी माता का नाम चैत्ररथी था । उससे इसे मुचुकंद, अम्बरीष तथ अपुरुकुत्स नामक पुत्र हुए थे
[वायु.८८.७०-७२] । पद्मपुराण में इसके पुरुकुत्स धर्मसेतु, मुचुकुंद, शक्रमित्र नामक चार पुत्र दिये गये हैं
[पद्म.सृ.८] । इसे पचास कन्याएँ भी थीं, जिनका विवाह सौभरि ऋषि के साथ हुआ था । इसे कावेरी नामक बहन भी थी, जिसका विवाह कान्यकुब्ज देश का राजा जह्रु से हुआ था । कई ग्रंथों में कावेरी को इसकी कन्या अथवा पौत्री कहा गया है । इसके पश्चात इसका ज्येष्ठ पुत्र पुरुकुत्स अयोध्या देश का राजा बन गया, जिसने अपने पिता का राज्य और भी विस्तृत किया । उसने नर्मदा नदी के तट पर रहनेवाले नाग लोगों की कन्या नर्मदा से विवाह कर, मौनेय गंधर्व नामक उनके शत्रुओं को परास्त किया था । इन सारे निर्देशों से प्रतीत होता है कि, पुरुकुत्स के राज्य का विस्तार नर्मदा नदी के किनारे तक हुआ था (पुरुकुत्स देखिये) । मांधातृ का तृतीय मुचुकंद एक पराक्रमी राजा था, जिसने नर्मदा नदी के तट पर ऋक्ष एवं पारियात्र पर्वतों के बीच एक नगरी की स्थापना की थी । वही नगरी आगे चलकर ‘माहिष्मती’ नाम से सुविख्यात हुयी (मुचुकुंड एवं महिष्मत देखिये) ।