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युधिष्ठिर n. ( सो. कुरु. ) पाण्डुराजा की पत्नी कुन्ती का ज्येष्ठ पुत्र [भा. ९.२२.२७] ;[म. आ. ९०.६९] । युधिष्ठिर n. एक धीरोदात्त, ज्ञानी, धर्मनिष्ठ एवं तात्विक प्रवृत्तियों का महात्मा मान कर, युधिष्ठिर का चरित्रचित्रण श्रीव्यास के द्वारा महाभारत में किया गया है । एक महाधनुर्धर एवं पराक्रमी व्यक्ति के नाते से अर्जुन महाभारत का नायक प्रतीत होता है । किन्तु अर्जुन की एवं समस्त पाण्डवों की सर्वोच्च प्रेरकशक्ति एवं अधिष्ठाता पुरुष, वास्तव में युधिष्ठिर ही है । अपने समय का सर्वश्रेष्ठ शत्रिय होते हुये भी, सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण के सारे गुण इसमें सम्मिलित थे । इस तरह इसका व्यक्तिमत्त्व तत्कालीन क्षत्रिय नृपो से नही. बल्कि विदेह देश के तत्वचिंतक एवं तत्वज्ञ राजाओं से अधिक मिलता जुलता था । ‘विदेह’ जनक से ले कर गौतम बुद्ध तक के जो तत्त्वदर्शी राजा प्राचीन भारत में उत्पन्न हुये, उसी परंपरा का युधिष्ठिर भी एक तत्वदर्शी राजा था महाभारत में प्राप्त युधिष्ठिर के अनेक नीतिवचन एवं विचार गौतमबुद्ध के वचनों से मिलते जुलते है । चिंतनशील व्यक्तित्त्व - युधिष्ठिर पाण्डवों का ज्येष्ठ भ्राता था, जिस कारण यह आजन्म उनका नेता रहा । फिर मी इसका व्यक्तित्त्व क्रियाशील क्षत्रिय के बदले, एक तत्त्वदर्शी एवं पूर्णतावादी तत्त्वज्ञ होने के कारण, स्वयं पराक्रम न करते हुये भी इसे अपने भाईयों को कार्यप्रवण करने का मार्ग अधिक पसंद था । इसी कारण अपने पराक्रमी भाईयों को कार्यप्रवण करने का, एवं उनके कर्तृत्व को पूर्णत्व प्राप्त कराने का कार्य यह करता रहा । स्वभाव से यह पूर्णतावादी था, इसलिए इसे जीवन की त्रुटियाँ तथा अपूर्णता का ज्ञान एवं विवेक अधिक था । इसकी चिंतनशीलता एवं अन्य पाण्डवों की क्रियाशीलता का जो आंतरिक विरोध इसकी आयु में चलता रहा, वही पांडवों का संघर्ष एवं परस्परसौहाई का अधिष्ठान था । स्वभाव से अत्यंत चिंतनशील एवं अजातशत्रु हो कर भी, इसे सारी आयु:काल में अपने कौरव भाईयों के साथ झगडना पडा, एवं उत्तरकालीन आयु में उनके साथ महायुद्ध भी करना पडा । फिर भी धर्म, नीति, न्याय, क्षमा, आत्मौपम्य आदि जिन धारणाओं को इसने जीवन का मूलाधार मानने का व्रत स्वीकृत किया था, उससे यह आजन्म अटल रहा । धर्म का आद्य मूलतत्त्व उच्चतम नीतिमत्ता है, ऐसी इसकी धारणा थी । उसी नीतिमत्ता का पालन वैयक्तिक, कौटुंबिक एवं राजनैतिक जीवन में होना चाहिये, इस ध्येयपूर्ति एक लिए यह आजन्म झगडता रहा । धर्म का अधिष्ठान अध्यात्म में नहीं, बल्कि दया, क्षमा, शांति जैसे आचरण में है, ऐसी इसकी भावना थी । इसी कारण, धर्माचरण मोक्षप्राप्ति के लिए नाही, बल्कि अपने बांधवों के सुखसमाधान के लिए करना चाहिये, ऐसी इसकी विचारधारा थी । अपने इन अभिमतों के सिध्यर्थ, इसे आजन्म कष्ट सहने पडे, शत्रुमित्रों की एवं पाण्डव बांधवों की नानाविध व्यंजना सुननी पडी । फिर भी यह अपने तत्वों से अटल रहा । अपनी इसी विचारों के कारण, यह आजन्म एकाकी रहा, एवं एकाकी अवस्था में ही इसकी मृत्यु हुयी । युधिष्ठिर n. तूल राशि में जब सूर्य, तथा ज्येष्ठा नक्षत्र में जब चन्द्र था, तब दिन के आठवें अभिजित् मुहुर्त पर आश्विन सुदी पंचमी के दिन दूसरे प्रहर में इसका जन्म हुआ [म. आ. ११४.४] ;[नीलकंठ टीका. १२३.६] । युधिष्ठिर आदि सभी पाण्डव इन्द्रांश थे [मार्कं ५.२०-२६] । इसके जन्मकाल में आकाशवाणी हुयी थी-‘पाण्डुका यह प्रथम पुत्र युधिष्ठिर नाम से विख्यात होगा, इसकी तीनों लोकों में प्रसिद्धी होगी । यह यशस्वी, तेजस्वी तथा सदाचारी होगा । यह श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्माओं में अग्रगाण्य, पराक्रमी एवं सत्यावादी राजा होगा’ [म. आ. ११४. ५-७] । युधिष्ठिर n. यह शरीर से कृश तथा स्वर्ण के समान गौरवर्ण का था । इसकी नाक बडी तथा नेत्र आरक्त एवं विशाल थे । यह लम्बे कद का था, एवं इसका वक्ष:स्थल विशाल था । इसके स्नायु प्रमाणबद्ध थे [म. आश्र. ३२६] । युधिष्ठिर n. इसके धनुष्य का नाम ‘माहेन्द्र’ एवं शंख का नाम ‘अनंतविजय’ था । इसके रथ के अश्व हस्तिदंत के समान शुभ्र थे, एवं उनकी पूँछ कृष्णवर्णीय थी । इसके रथ पर नक्षत्रयुक्त चंद्रवाला स्वर्णध्वज था । उस पर यंत्र के द्वारा बजनेवाले ‘नंद’ तथा ‘उपनंद’ नामक दो मृदंग थे [म. द्रो. २२.१६२. परि, १.क्र. ५. पंक्ति ४-७] । युधिष्ठिर n. इसके संस्कारों के विषय में मतभेद है । किसी प्रति में लिखा है कि सभी संस्कार शतशृंग पर हुए, और किसी में हस्तिनापुर के बारे में उल्लेख मिलता है । कहते हें कि, शतशृंगनिवासी ऋषियीं द्वारा इसका नामसंस्कार हुआ [म. आ. ११५.१९-२०] , तथा वसुदेव के पुरोहित काश्यप के द्वारा इसके उपनयनादि संस्कार हुए [म. आ परि १-६७] । शर्यातिपुत्र शुक्र से इसने धनुवेंद सीखा, तथा तोमर चलाने की कला में यह बडा पारंगत था [म. आ. परि. १.६७.२८-३] । प्रथम कृप ने, तथा बाद में द्रोणाचार्य ने इसे शस्त्रास्त्र विद्या सिखायी थी [म. आ. १२०.२१.१२२] । कौरव पाण्डवों की द्रोण द्वारा ली गयी परीक्षा में इसने अपना कौशल दिखा कर सब को आनंदित किया था [म. आ. १२४-१२५] । गुरुदक्षिणा देने के लिए इसने भीमार्जुन की सहाय्यता ली थी [म. आ. परि. ७८. पंक्ति. ४२] । पाण्डवों के पिता पाण्डु का देहावसान उनके वाल्यकाल में ही हुआ था । कौरव बांधवों की दुष्टता के कारण, इसे अपने अन्य भाइयों के भाँति नानाविध कष्ट सहने पडे । किन्तु इसी कष्टों के कारण इसकी चिंतनशीलता एवं नीतिपरायणता बढती ही रही । कौरवोंकी जिस दुष्टता के कारण, अर्जुन ने ईर्ष्यायुक्त बन कर नवनवीन अस्त्र संपादन किये, एवं भीम में अत्यधिक कटुता उप्तन्न कर वह कौरवो के द्वेष में ही अपनी आयु की सार्थकता मानने लगा, उन्ही के कारण युधिष्ठिर अधिकाधिक नीतिप्रवण एवं चिंतनशील बनता गया । भारतीययुद्ध जैसे संहारक काण्ड के समय, भीष्मद्रोणादि नीतिपंडितों की सूक्तासूक्तविषयक धारणाएँ जडमूल से नष्ट हो गयी, उस प्रलयकाल में भी युधिष्ठिर की नीतिप्रवणता वैसी हि अवाधित एवं निष्कलंक रही । युधिष्ठिर n. यह क्षात्रविद्यासंपन्न होने पर, धृतराष्ट्र ने भीष्म की आज्ञा से इसे यौवराज्याभिषेक किया, एवं अर्जुन इसका सेनापति बनाया गया [म. आ. परि. १. क्र. ७९. पंक्ति, १९१-१९३] । इसने अपने शील, सदाचार एवं प्रजापालन की प्रवृत्तियों के द्वारा अपने पिता पाण्डु राजा की कीर्ति को भी ढक दिया । इसकी उदारता एवं न्यायी स्वभाव के कारण, प्रजा इसे ही हस्तिनापुर के राज्य को पाने के योग्य वताने लगी । पाण्डवों की बढती हुयी शक्ति एवं ऐश्वर्य को देख कर दुर्योधन मन ही मन इसके विरुद्ध जलने लगा, एवं पाण्डवों की विनष्ट करने के षडयंत्र रचाने लगा, जिनमें धृतराष्ट्र की भी संमति थी [म. आ. परि. १. क्र. ८२. पंक्ति, ‘१३१-१३२] । युधिष्ठिर n. धार्तराष्ट्र एवं पाण्डवों के बढते हुऐ शत्रुत्व को देख कर, इन्हे कौरवों से अलग वारणावत नामक नगरी में स्थित राजगृह में रहने की आज्ञा धृतराष्ट्र ने दी । इसी राजगृह को आग लगा कर इन्हे मारने का पडयंत्र दुर्योधन ने रचा । किन्तु विदुर की चेतावनी के कारण, पाण्डव इस लाक्षागृह-दाह से बच गये । विदुर के द्वारा भेजे गये नौका से ये गंगानदी के पार हुये । पश्चात सभी पाण्डवों के साथ इसका भी द्रौपदी के साथ विवाह हुआ । युधिष्ठिर n. द्रौपदी-विवाह के पश्वात्, धृतराष्ट्र ने हस्तिनापुर के अपने राज्य के दो भाग किये, एवं उसमें से एक भाग इसे प्रदान किया । अपने राज्य में स्थित खाण्डवप्रस्थ नामक स्थान में इन्द्रप्रस्थ नामक नयी राजधानी बसा कर, यह राज्य करने लगा [म. आ. १९९] । युधिष्ठिर n. इसकी राजधानी इंद्रप्रस्थ में मयासुर ने मयसभा का निर्माण किया, जो स्वर्ग में स्थित इन्द्रसभा, वरुणसभा, ब्रह्मसभा के समान वैभवसंपन्न थी । एक बार युधिष्ठिर से मिलने आये हुये नारद ने मयसभा को देख कर अत्यधिक प्रसन्नता व्यक्त की, एवं कहा, ‘हरिश्चंद्र राजा ने राजसूय यज्ञ करने के कारण, जो स्थान इंद्रसभा में प्राप्त किया है, वही स्थान तुम्हारे पिता पाण्डु प्राप्त करता चाहते है । तदि तुम राजसूय यज्ञ करोगे तो तुम्हारे पिता कि यह कामना पूर्ण होगी’ [म, स. ५.१२] । नारद की इस सूचना का स्वीकार कर, युद्धिष्ठिर ने श्रीकृष्ण की सहाय्यता से राजसूययज्ञ का आयोजन किया । इस यज्ञ के सिध्यर्थ इसने अर्जुन, भीम, सहदेव एवं नकुल इन भाईयों को क्रमश: उत्तर, पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम दिशाओं में भेज दिया । इन दिग्विजयों से अपार संपत्ति प्राप्त कर, पाण्डवों ने अपने राजसूय-यज्ञ का प्रारंभ किया [भा. १०.७२.७४] । श्रीकृष्ण की आज्ञा से, इसने स्वयं राज्सूय यज्ञ की दीक्षा ली थी । इसके यज्ञ के प्रमुख पुरोहितगण निम्नलिखित थे---ब्रह्मा-द्वैपायन व्यास; सामग-सुसामन्: अध्वर्यु-ब्रह्मिष्ठ याज्ञवल्क्य; होता-वसुपुत्र पैल एवं धौम्य [म. स. ३०.३४-३५] । इस यज्ञ में कौरव, यादव एवं भारतवर्ष के अन्य सभी राजा उपस्थित थे । इस यज्ञ की व्यवस्था युधिष्ठिर के द्वारा निम्नलिखित व्यक्तियों पर सौंपी गयी थी---भोजनशाला-दुःशासन; ब्राह्मणों का स्वागत-अश्वत्थामा, दक्षिणाप्रदान-कृपाचार्य; आयव्ययनिरीक्षण-विदुर; ब्राह्मणों का चरणक्षालन-श्रीकृष्ण; सामान्य प्रशासन-भीष्म एवं द्रोण । इस यज्ञ में प्रतिदिन द्स हजार बाह्मणों को स्वर्ण की थालियों में भोजन कराया जाता था । एक लाख ब्राह्मणो को इस तरह भोजन दिया जाने पर, ‘लक्षभोजन’ सूचक शंखध्वनि की जाती थी [म. स.४५.३] । इस प्रकार इसका राजसूय यज्ञ सर्वतोपरि सफल रहा । युधिष्ठिर n. युधिष्ठिर के द्वारा किये गये इस यज्ञ की सफलता को देख कर दुर्योधन ईर्ष्या से जल-भून गया । युधिष्ठिर के द्वारा खर्च की गयी अगणित संपत्ति, एवं लोगों के द्वारा कि गयी युद्धिष्ठिर की प्रशंसा उसे असह्य प्रतीत हुयी [म. स. ३२.२७] ;[भा. १०.७४] । इसी कारण इसे जडमूल से उखाड फेंकने की योजनाएँ वह बनाने लगा । इसे युद्ध मे जीतना तो असंभव था । इसी कारण द्यूत के द्वारा इसकी समस्त धन-संपत्ति हरण करने की शकुनि मामा की सूचना उसने मान्य की । पश्चात इसी सूचना को स्वीकार कर, धृतराष्ट्र ने विदुर के द्वारा युधिष्ठिर को द्यूत खेलने का निमंत्रण दिया । युधिष्ठिर n. हस्तिनापुर में संपन्न हुए द्युतक्रीडा में, दुर्योधन के स्थान पर शकुनि नै बैठ कर युधिष्ठिर को पूरी तरह से हरा दिया, एवं इसका सबकुछ जीत लिया । यह धन, राज्य, भाई तथा द्रौपदी सहित अपने को भी हार गया । द्यूत खेल कर पाराजित होने के बाद, इसने बारहवर्ष का वनवास एवं वर्ष एक का अज्ञातवास स्वीकार किया, एवं यह भी शर्त मान्य की कि, यदि अज्ञातवास के समय पाण्डव पहचाने गये, तो इन्हे बारह वर्षों का वनवास और सहना पडेगा [म. स. ७१] । युधिष्ठिर n. कार्तिक शुक्त पंचमी के दिन यह अपने अन्य भाई एवं द्रौपदी के साथ वनवास के लिए निकला । यह जब अरण्य की ओर चला, उस समय हस्तिनापुर के अनेक नगरवासी इसके साथ जाने के लिए तत्पर हुये । इसने इन सभी लोगो को लौट जाने के लिए कहा, एवं ऋषिजनों में से केवळ इसके उपाध्याय धौम्य इसके साथ रहे । वनवास के प्रारंभ में ही इसने सूर्य की प्रार्थना कर, अक्षय्य अन्न-प्रदान करनेवाली एक स्थाली प्राप्त की । इस तरह अपनी एवं अपने बांधवों की उपजीविका का प्रश्न हल किया [म. व. १-४] । युधिष्ठिर के द्यूत खेलने के समय एवं द्रौपदी वस्त्रहरण के समय श्रीकृष्ण हस्तिनापुर में नही था, क्यों की, उसी समय शाल्व ने द्वारका पर आक्रमण किया था । पाण्डवों के वनवास की वार्ता ज्ञात होते ही वह इनसे मिलने वन में आया । उस समय धार्तराष्ट्रों पर आक्रमण कर, उनका राज्य पाण्डवों को वापस दिलाने का आश्वासन कृष्ण ने इसे दिया । किन्तु इसने द्दढता से कहा, ‘मैने कौरवों से शब्द दिया है कि, बारह साल वनवास एवं एक साल अज्ञातवास हम भुगत लेंगे । यह मेरी आन है, एवं उसे किसी तरह भी निभाना यह हमारा कर्तव्य है । इसी कारण वनवास की समाप्ति के पश्चात् ही हमे राज्य के पुन:प्राप्ति का विचार करना चाहिए’ । युधिष्ठिर n. पाण्डवों के वनवास के प्रारंभ में ही, द्वैत-वन में द्रौपदी ने युधिष्ठिर के पास अत्यधिक विलाप किया । उसने कहा, ‘द्रुपद राजा की कन्या, पाण्डुराजा की स्नुषा एवं-तुम्हारी पटरानी, जो मैं आज तुम्हारे कारण वनवासी बन गय़ी हूँ । भीम जैसे राजकुमार एवं अर्जुन जैसे योद्धा आज भूख एचं प्यास से व्याकुल होकर इधर उधर घूम रहे है । अपने बांधबो की यह हालत देख कर भी तुम चुपचाप क्यों बैठते हो ? । दुर्योधन अत्यंत पाणी एवं लोभी है, एवं उसका नाश करना ही उचित है । इस पर युधिष्ठिर ने कश्यपगीता का निर्देश करते हुए कहा, ‘क्षमा पर ही सारा संसार निर्भर है । राज्य के लोभ से अपने मन में स्थित क्षमाभावना का त्याग करना उचित नही है । लोभ से बुद्धि मलीन हो जाती है । केवल पाण्डवों का ही नही, बल्कि सारे भारत संशय का नाथ होने समव आज समीष आया है । फिर भी अपने मन की शान्ति हमें नहीं छोडनी चाहिये ’। युधिष्ठिर का यह वचन सुन कर द्रौपदी और भी क्रुद्व हुयी । समस्त सृष्टि के संचालक त्रिधातृ की दोष देते हुये उसने कहा, ‘तुम्हारे आत्यंतिक धर्मभाव से मैं तंग आयी हूँ । कहते है कि, धर्म का रक्षण करने पर वह मनुष्यजाति का रक्षण करता है । किन्तु धर्माचरण का कुछ भी फायदा तुम्हे नही हुआ है । अपनी समस्त आयु में तुमने यज्ञ किये, दान दिये, सत्याचरण किया । एक साया जैसे तुम धर्म का पीछा करते रहे । फिर भी उसके बदले हमे दुःख के सिवा कुल भी न मिला.’। द्रौषदी के इस कटुवचन को सुन कर युधिष्ठिर ने अत्यंत शान्ति से कहा, फलों की कामना मन में रखकर धर्म का आचरण करना उचित नहीं हैं । जो नीच एवं कमीने होते है, वे ही धर्म का सौदा करते है । अपने दुर्भाग्य के लिए देवताओं को दोष देना श्रद्धाहीनता का द्योतक है । धर्म असफल होने पर तप, ज्ञान एवं दान विष्फल हो जायेगा, एवं समस्त मनुष्य जति पशु बन जायेंगी । परमात्मा की कर्तृत्वशक्ति अगाध है । उसकी निंदा करने का पापाचरण तुमने न करना चाहिये’ । युधिष्ठिर ने आग कहा, ‘दुर्योधन की राजसभा में मैंने वनवास की प्रतिज्ञा की है, जो मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है । हमे सत्य कभी भी न छोंडना चाहिये [म. व. २८-३१] । इसी संभापण के अन्त में इसने अपने भाईयों से कहा ‘कौरवों के साथ द्यूत खेलते समय मैं हारा गया, इस कारण आप मुझे जुआँरी एवं मूरख कह कर दोष देते है, यह ठीक नही । जब मैं द्यूत के लिए उद्यत हुआ था, उस समय आप चुपचाप क्यों बैठे’? इसी समय व्यास ने युधिष्ठिर से कहा, ‘बांधवो के लिए यही अच्छा है कि, वे सदैव एकत्र न रहे । ऐसे रहने से प्रेम वढता नही, बल्कि घटता है’। इसी कारण, व्यास ने इन्हे एक ही स्थान पर न रहने की सुचना दी [म.व.अ ३७.२७-३२] । व्यास के इस वचन को प्रमाण मान कर इसने अर्जुन को ‘पाशुपतास्त्र’ प्राप्त करने के लिए भेज दिया एवं द्रौपदी का भार भीम पर सौंप कर यह निश्चिंत हुआ । इसके पश्चात यह कुछ काल तक काम्यकवन में रहा, जहाँ इसके दुःख का परिहार करने के लिए, वृदहश्व ऋषि ने नल राजा का चरित्र इसे कथन किया [म. व. ७८. १७] । इसी समय उसने इसे ‘अक्षहृदय’ एवं ‘अक्षविद्या’ प्रदान की, जिस कारण यह द्यूतविद्या में अजिंक्य बन गया । युधिष्ठिर n. एक बार लोमश ऋषि इसे वनवास में मिलने आये, एवं उन्होने इसे कहा, ‘अर्जुन को अपनी तपस्या से लौट आने में काफी समय लगनेवाला है । इसी कारण तुम्हारी मन:शांति के लिए तुम भारतवर्प की यात्रा करोगे, तो अच्छा होगा । इसी समय पुलस्त्य एवं धौम्य ऋषि ने भी इसे तीर्थयात्रा करने का महत्त्व कथन किया था [म. व. ८०-८३-८४-८८] । पश्चात् यह लोमश ऋषि के साथ तीर्थयात्रा के लिए निकल पडा । लोमश ऋषि ने इसे तीर्थयात्रा करते समय अनेकविध तीर्थस्थान, नदियाँ, पर्वत आदि का माहात्म्य कथन किया, एवं उस माहात्म्य के आधारभूत प्राचीन ऋषि, मुनि एवं राजाओं की कथा इसे सुनाई [म. व. ८९-१५३] । महाभारत के जिस ‘तीर्थयात्रा पर्व’ में युधिष्ठिर की इस यात्रा का वर्णन प्राप्त है, वहाँ पुष्करतीर्थ एवं कुरुक्षेत्र को भारतवर्ष के सर्वश्रेष्ठ तीर्थ कहा गया है, एवं समुद्रस्नान का माहात्म्य भी वहाँ कथन किया गया है । युधिष्ठिर n. तीर्थयात्रा समाप्त करने के पश्चात्, पाण्डव गंधमादन पर्वत पर गये । वहाँ अर्जुन भी पाशुपतास्त्र संपादन कर स्वर्ग से वापस आया था [म. व. १६२-१७१] । गंधमादन पर्वत के नीचे पाण्डव जिस समय अरण्य में संचार कर रहे थे, उस समय अजगर रुपधारी नहुष ने भीम को निगल लिया । नहुष के द्वारा पूछे गये धर्मविषयक अनेकानेक प्रश्नों के युधिष्ठिर ने सुयोग्य उत्तर दिये, एवं इस तरह भीम को अजगर से मुक्तता की [म. व. १७७-१७८] ; नहुष देखिये । तत्पश्चात् नह्ष की अजगरयोनि से मुक्त्तता हो कर वह भी स्वर्ग चला गया । भीम के शारीरिक बल से युधिष्ठिर का आत्मिक सामर्थ्य अधिक श्रेष्ठ था, यह बताने के लिए यह कथा दी गयी है । युधिष्ठिर n. पाण्डव जिस समय द्वैतवन में निवास करते थे, उस समय उन्हे अपना वैभव दिखाने के लिये दुर्योधन वहाँ ससैन्य उपस्थित हुआ । चित्रसेन गंधर्व ने उसे पकड लिया । तत्पश्चात् दुर्योधन के सेवक युधिष्ठिर के पास मदद की याचना करने के लिए आ पहुँचे । उस समय भीम ने कहा ‘दुर्योधन हमारा शत्रु है । उसकी जितनी वेइज्जती हो, उतना हमारे लिए अच्छा ही है’ । किन्तु युधिष्ठिर कहा, ‘दुर्योधन हमारा कितना ही बडा शत्रु हो, उसकी किसी दुसरे के द्वारा बेइज्जती होना हमारे कुरुकुलके के लिए लांछन है । कौरवों के साध संघर्ष करते समय, सौ कौरव एवं पाँच पाण्डव अलग अलग रहेंगे, किन्तु किसी परकीय शत्रु से युद्ध करते समय, हम दोनो एक सौ पाँच बन कर उसका प्रतिकार करे, यही उचित है - परस्पराणां संघर्षे, वयं पञ्च च ते शतम् । अन्यै: सह विरोधे तु, वयं पञ्चाधिंक शतम् । युधिष्ठिर n. इसीके ही पश्चात् थोडे दिन में जयद्रथ ने द्रौपदी का हरण करने का प्रयत्न किया [म. व. २५५.४३] । उसी समय भी इसने जयद्रथ धृतराष्ट्र की कन्या दुःशीला का पति है, यह जान कर उसकी मुक्तता की [म. व. २५६.२१-२३] । जयद्रथ के द्वारा किये गये द्रौषदीहरण से खिन्न हुये युधिष्ठिर को, मार्कंडेय ऋषि ने रावण के द्वारा किये गये सीताहरण की, एवं अश्वपति राजा की कन्या सावित्री की कथा सुनाई, एवं मन:शांति प्राप्त करा दी । युधिष्ठिर n. कालान्तर में यह काम्यकवन छोड कर फिर द्वैतवन में रहने लगा । एक बार सभी लोग प्यासे थे । इसने नकुल से पानी लाने के लिए कहा किन्तु नकुल वापस न लौटा । तब इसने बारी बारि से सहदेव, अर्जुन तथा भीम को भेजा । किन्तु कोई वापस न लौटा । हार कर यह जलाशय के तट पर आया तब अपने सभी भाइयों को मूर्च्छित देखकर अत्यधिक क्षुब्ध हुआ, एवं दुःख से पीडित हो कर विलाप करने लगा । तत्काल, इसे शंका हुयी कि दुर्योधन ने इस जलाशय में विष घुलवा दिया हो । इतने में एक ध्वनि आयी, ‘तुम मेरे प्रश्रों का उत्तर दो, फिर पानी ले सकते हो । यदि मेरी बात न मानोंगे, तो तुम्हारी भी यही हालत होगी, जो तुम्हारे भाइयों की हुयी है । तव बक रूप धारण कर, उस यक्ष ने इसे अस्सी प्रश्न किये, जो साधारण बुद्धि, तत्वज्ञान, दर्शन, धर्म तथा राजनीति सम्बन्धी थे । हसने उन सभी का उत्तर संतोषजनक दिया । उनमें से प्रमुख प्रश्न तथा उनके उत्तर निम्नलिखित थे । यक्ष प्रश्न की तालिका देखिये । १ यक्ष के प्रश्न - सूर्य का आधार क्या है ? युधिष्ठिर के उत्तर - ब्रह्म । २ यक्ष के प्रश्न - सूर्य के साथ कौन है ? युधिष्ठिर के उत्तर - देवता । ३ यक्ष के प्रश्न - धर्म का अधिष्ठान क्या है ? युधिष्ठिर के उत्तर - सत्य । ४ यक्ष के प्रश्न - आदमी को बल कैसे प्राप्त होता है ? युधिष्ठिर के उत्तर - धैर्य से । ५ यक्ष के प्रश्न - कौन आदमी मृत है ? युधिष्ठिर के उत्तर - धनहीन । ६ यक्ष के प्रश्न - कौन राष्ट्र मृत है ? युधिष्ठिर के उत्तर - जहाँ अराजकता है । ७ यक्ष के प्रश्न - ब्राह्मण देवत्व किस प्रकार पा सकता है ? युधिष्ठिर के उत्तर - विद्या से । ८ यक्ष के प्रश्न - क्षत्रिय देवत्व किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? युधिष्ठिर के उत्तर - शस्त्रादि से । ९ यक्ष के प्रश्न - जीवित कौन है ? युधिष्ठिर के उत्तर - देवता, अतिथि, नौकर - चाकर, पितर एवं आत्मा को तृप्त करनेवाला । इस प्रकार अपने सभी प्रश्नों का तर्कपूर्ण उत्तर पा कर, बकरूपधारी यक्ष ने सन्तुष्ट होकर युधिष्ठिर से कहा, ‘तुम अपने भाइयों में किसी एक को पुन: प्राप्त कर सकते हो’। तब इसने माद्रीयुत्र नकुल का जीवनदान माँगा । तब इसके पक्षपारहित समत्वबुद्धि को देख कर यक्ष प्रसन्न हो उठा । उसने इसके सभीं भाइयों को जीवित कर दिया, तथा बर दिया, ‘अज्ञातवास के समय तुम्हें कोई पहचान न सकेगा’। वह यक्ष कोई दूसरा न था, बलिक साक्षात यमधर्म ही था । उसने इसे विराटनगरी में रहने के लिए कहा, तथा ब्राह्मण की अरणी देते हुए वर प्रदान क्रिया, ‘लोभ, क्रोध तथा मोह को जीत कर दान, तप तथा सत्य में तुम्हारी आसक्ति हो [म. व २९५-२९८] युधिष्ठिर n. पाण्डवों के अज्ञातवास में इसने गुप्त रूप से जय, तथा प्रकट रूप से कंक नामक ब्राह्मण का रूप धारण किया था [म. वि. १.२०, ५.३०] अज्ञातवास शुरु होने के पूर्व धौम्य ऋषि ने इसे अज्ञात वास में किस तरह आचरण करना चाहिये, इस विषय में उपदेश किया था । पश्चात् अपने वन्धु एवं द्रौपदी के साथ, मत्स्यराज विराट के यहाँ इसने अज्ञातवास का एक वर्प विताया [म. वि. ६.११] यह द्यूतक्रीडा का बडा शौकिन एवं व्रडा प्रवीण खिलाडी था । यह द्यूत में विराट के धन को जीतता था, एवं गुप्त रूप से वह अपने भाईयो से देता था [म. वि. १२.५] एक बार द्युत खेलते समय इसने वृहन्नला ( अर्जुन ) की काफी तारीफ की, जिस कारण क्रुद्ध होकर विराट ने इसकी नाक पर एक फाँसा फेक कर मारा । उससे इसकी नाक से खूनवहने लगा, जिसे द्रौपदी ने अपने पल्ले से पोंछ लिया था [म. वि. ६३] युधिष्ठिर n. ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी के दिन पाण्डव अपने वनवास एवं अज्ञात वास से प्रकट हुये । तत्पश्चात इसने द्रुपद राजा के पुरोहित को राज्य का आधा हिस्सा माँगने के लिए भेज दिया [म. उ. ६.१८] पुरोहित ने धृतराष्ट्र से युधिष्ठिर का संदेश कह सुनाया, एवं भौष्म, द्रोणादि ने भी उसका समर्थन किया । धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर की माँग का सीधा जवाब नहीं दिया, किन्तु संजय के हाथों इतना ही संदेश भेद दिया, ‘मैं आप से सख्य भाव रखना चाहता हूँ । जो लोग मूढ एवं अधर्मज्ञ होते है, वे ही केवल युद्ध की इच्छा रखते है । तुम स्वयं ज्ञाता हो । इसी कारण अपने बांधवो को युद्ध से परावृत्त करो, यही उचित है’ । इस पर युधिष्ठिर ने जवाब दिया, ‘वनवास के आपकाल में पाण्डवों ने भिक्षा माँग कर अपना गुजारा किया है । अभी आपकाल समाप्त होने पर भिक्षावृत्ति से जीना इमारे लिए असंभव है । फिर भी शान्ति का आखिरी प्रयत्न करने के लिए मैं श्रीकृष्ण को धृतराष्ट्रके दरबार में भेज देता हुँ’ युधिष्ठिर n. युधिष्टिर पहले से हीं युद्ध करने के विरुद्ध था । इसी कारण, इसने कृष्ण से हर प्रयत्न से युद्ध टालने की प्रार्थना की । इसने कहा, ‘युद्ध में सर्वनाश के सिवा कुछ संपन्न नही होता है । जिस तरह पानी में मछलिया एक दूसरी के साथ झगडती हैं, एवं एक दूसरी को खा जाती है, उसी तरह युद्ध में क्षत्रिय, क्षत्रिय के साथ झगडते है, एवं एक दूसरे का संहार करते है । क्षत्रिय लोग युद्ध में पराजय की अपेक्षा मृत्यु को अधिक पसंत करते है । किन्तु जिस युद्ध में अपने सारे बान्धवों का संहार होता हैं, उससे सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है? शत्रुख युद्ध से घटता नही, बल्कि बढता है । इसी कारण शांति में जो सुख है, वह युद्ध में कहाँ’? इसी दौत्यकर्म के समय धृतराष्ट्र के रजगृह में रहनेवाली अपनी माता कुन्ती से मिलने के लिए, इसने श्रीकृष्ण को बार बार प्रार्थना की थी । इसने कहा, ‘हमारी माता कुन्ती को जीवनमें दुख के सिवा अन्य कुछ भी नही प्राप्त हुआ । फिर भी वाल्यकाल में उसने दुर्योधन से इमारा संरक्षण किया’ । युधिष्ठिर n. युधिष्ठिर के कहने पर श्रीकृष्ण दुर्योधन के दरवार में गया, एवं उसने कहा, ‘अविस्थल, वृकस्थल, माकंदी, आसंदी, वारणावत आदि पाँच गाँव पाण्डवों के भरणपोषण के लिए आप युधिष्ठिर को दे दे । इतना छोटा हिस्सा प्राप्त होने पर भी, युधिष्ठिर धार्मराष्ट्रों से संधि करने के लिए तैय्यार है [म. उ.७०-७५] किन्तु दुर्योधन ने सुई की नोंक के बराबर भी भूमि पाण्डवों को देना अमान्य कर दिया [म. उ. १२६.२६] अन्त में कुरुक्षेत्र में हिरण्यवती नदी के किनारे खाई खोद कर युधिष्ठिर ने अपनी सेना एकत्र की [म. उ. १४९.७-७४] युद्ध टालने का अखीर का प्रयत्न करने के लिए, इसने फिर एकवार उलूक राजा को मध्यस्थता के लिए दुर्योधन के पास भेज दिया, एवं कहा ‘भाईयो का यह रिश्ता न टूटे तो अच्छा’। किन्तु मामला उलझता ही गया, सुलझा नही, एवं भारतीय युद्ध का प्रारंभ हुआ [म. उ. १५७] . युधिष्ठिर n. भारतीय युद्ध प्राचीन भारतीय इतिहास का पहला महायुद्ध माना जाता है । इस कारण इस युद्ध में तत्कालीन भारतवर्ष का हर एक राजा, कौरव अथवा पाण्डव किसी न किसी पक्ष में शामिल था । भारतीय युद्ध में पाण्डवों के पक्ष में निम्नलिखित देश शामिल थे :--- १. मध्यदेश के देश---वत्स, काशी, चेदि, करुष, दशार्ण एवं पांचाल । पार्गिटर के अनुसार, मध्यदेश में से मत्स्य, पूर्व कोसल; एवं विंध्य एवं आडावला पर्वत में रहनेबाली वन्य जातियाँ भी पाण्डबों के पक्ष में शामिल थी । २. पूर्व भारत के देश---पूर्व भारत में से केवल पश्चिम मगध देश एवं उसका राजा जरासंधपुत्र सहदेव पाण्डवों के पक्ष में थे । ३. पश्चिम भारत---गुजरात में एवं गुजरात के पूर्व भाग में रहनेवाले यादव राजा, जैसे कि, वृष्णि राजा युयुधान एवं यादव राजा सात्यकि ४. उत्तरी पश्चिम भाग के देश---अभिसार देश, जो काश्मीर के दक्षिणी पश्चिम दिशा में स्थित था । पार्गिटर के अनुसार, इसी प्रदेश में स्थित केकय देश भी पांण्डवों के पक्ष में शामिल था । ५. दक्षिण भारत के देश--- पाण्डय देश एवं कर्नाटक में रहनेबाली कई द्रविड जातियाँ । उपर्युक्त नामावली से प्रतीत होता है कि, पाण्डवों के पक्ष में दक्षिण मध्यदेश के सारे देश, जैसे कि, मत्स्य, चेदि, करुष, काशी एवं पांचाल; पूर्व भारत के पश्चिम मगध आदि देश; गुजराथ के सारे यादव; एवं दक्षिणी भारत के पाण्डय राजा शामिल थे । पाण्डवों के पक्ष में पांचाल देश का राजा द्रुपद, चेदिराज धृष्टकेतु, मगधदेशाधिपति जयत्सेन, यमुना-तीर निवासी पाण्डय एवं यादव राजा सात्यकि प्रमुख थे । इनमें से द्रुपद पाण्डवों का, श्वशुर था एवं सात्यकि श्रीकृष्ण का रश्तेदार था । नकुलसहदेव का मामा मद्रराज शल्य एक अक्षौहिणी सैन्य ले कर पाण्डवों के सहाय्यार्थ निकला था । किन्तु रास्ते मे उसका विपुल आदरातिथ्य कर दुर्योधन ने उसे अपने पक्ष में शामिल करा लिया । विदर्भ देश का राजा रुक्मिन ससैन्य पाण्डवों की सहाय्यार्थ आया था । किन्तु उसका कहना था, ‘यदि पाण्डव मेरी सहाय्य की याचना करेंगे, तो ही मैं उनकी सहाय्यता करुंगा । इस पर अर्जुन ने उसे कहा, ‘यह युद्ध एक रणयज्ञ है । जिसकी जैसी इच्छा हो, उस पक्ष में हर एक राजा शामिल हो सकता है । किसी की हम याचना करने के लिए तैय्यार नही है’। बलराम पाण्डवों का रिश्तेदार था, किन्तु उसकी सारी सहानुभूति दुर्योधन की ओर थी । इस उलझन से झुटकारा पाने के लिए, वह किसी के पक्ष में शामिल न हो कर तीर्थयात्रा के लिए चला गया । कौरवपक्ष के देश---भारतीय युद्ध में कौरवों के पक्ष में निम्नलिखित देश शामिल थे :--- १. पूर्व भारत के देश---प्राचीन मगध साम्राज्य के पश्चिम मगध छोड कर बाकी सारे देश, जैसे कि, पूर्व मगध, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, जिन सारे देशों पर अंगराज कर्ण का स्वामित्व था; प्राग्ज्योतिष चीन एवं किरात जातियों के साथ । इस समय प्राग्ज्योतिष का राजा भगदत्त था । पार्गिटर के अनुसार, उत्कल, मेकल, आंध्र एवं उन सारे प्रदेशों में रहनेवाली वन्य जातियाँ भी कौरवों के पक्ष में शामिल थी । २. मध्यदेश के देश---कोसल, वत्स एवं शूरसेन । इस समय कोसल देश का राजा वृहद्वल था । ३. उत्तरीपश्चिम भारत के देश---सिन्धुसौवीर, गांधार त्रिगर्त, केकय, शिवि, मद्र, वाह्निक. क्षुद्रक, मालव, अंबष्ठ, एवं कंबोज । इनमें से सिन्धुसौवीर, गांधार, त्रिगर्त, मद्र, अंबष्ठ एवं कंबोज देशोंके राजा क्रमश: जयद्रथ, शकुनि, सुशर्मन्, शल्य, श्रुतायु एवं सुदक्षिण थे । पार्गिटर के अनुसार, इन देशों में रहनेवाल वन्य जातियाँ बी कौरवों के पक्ष शामिल थी । ४. मध्यभारत के देश---माहिष्मती, भोज-अंधकवृष्णि, विदर्भ, निषाद, शाल्व एवं अवंती देशों के यादव राजा । इन देशों में से माहिष्मती, भोज-अंधकवृष्णि एवं अवंती देशों के राजा क्रमशः नील, कृतवर्मन् एवं विंद-अनुविंद थे । पार्गिटर के अनुसार, आधुनिक बडौदा नगर के दक्षिण एवं दक्षिणीपूर्व प्रदेश में रहनेवाले सारे यादव राजा, दख्खन प्रदेश में रहनेवाली वन्य जातियाँ, एवं मध्य भारत में स्थित कुन्तुल देश भी कौरवों के पक्ष में शामिल था । उपर्युक्त नामावलि से प्रतीत होता है कि, कौरवों के पक्ष में उत्तर, उत्तरीपश्चिम, मध्य एवं पूर्व भारत के प्राय:सारे देश शामिल थे । उन देशों में उत्तर एवं दक्षिणी पूर्व भारत के सारे देश; बंगाल एवं पश्चिमी आसाम के सारे देश; बंगाल के दक्षिण में गोदावरी तक का फैला हुआ सारा प्रदेश; मध्यदेश के शूरसेन, वत्स एवं कोसल देश; उत्तरी भारत के शाल्व, मालव आदि सारे देश, एवं मध्य-भारत के अवन्ति आदि सारे देश समाविष्ट थे । कौरवों के पक्ष में शकयवनादि देशों का राजा, माहिष्मती का राजा नील, केकयाधिपति केकय, प्राग्ज्योतिषपुर का राजा भगदत्त, सौवीर देश का राजा जयद्रथ, त्रिगर्तराज सुशर्मन्. गांधारराज बृहद्वल, कौरव राजा भूरिश्रवस्, अंगराज कर्ण आदि राजा प्रमुख थे । इनमें सें जयद्रथ, सुशर्मन् एवं कर्ण का पाण्डवों से पुरातन शत्रुत्व था, जिस कारण वे कौरवों के पक्ष में शामिल हो गये थे इस प्रकार, कौरव एवं पाण्डवों के बीच हुआ भारतीय युद्ध वास्तव में एक ओर दक्षिण मध्य देश एवं पांचाल देश, एवं दूसरी ओर बाकी सारा भारत देश इनके बीच हुआ था । इस तरह सेनाबल के द्दष्टि से कौरवों का पक्ष पाण्डवों से कतिपय बलवान् था । कई अभ्यासकों ने आंशिक द्दष्टि से इस युद्ध को उभय पक्षीयों का अध्ययन करने का प्रयत्न किया है । किन्तु उसमें कुछ तथ्य नहीं प्रतीत होता है, क्यों कि, पाण्डव एवं कौरव इन दोनो पक्ष में शामिल हुए राजाओं में कौनसा भी वांशिक साधर्म्य नही था । इन दोनों पक्षों में शामिल होनेवाले देश प्राय: सर्वत्र अपने राजा के कारण विशिष्ट पक्ष में आये थे, एवं बहुत सारे स्थानों पर राजा एवं प्रजा अलग अलग वंशों के थे । युधिष्ठिर n. पाण्डवों के पक्ष का युद्धशिबिर मत्स्य देश की राजधानी उपप्लव्य नगरीं में था, एवं समस्त मत्स्य देश में उनकी सेना एकत्रित की गयी थी । कौरवपक्ष का युद्धशिबिर कुरु देश की राजधानी हस्तिनापुर में था । किन्तु उनका सैन्यविस्तार इतना प्रवंड था कि, दक्षिण पंजाब से ले कर उत्तर कृरुक्षेत्र से होता हुआ वह उत्तर पंचाल देश तक अधचंद्राकृति वह फैला हुआ था । उस शिबिर का विस्तार ५ योजन ४० मील था । एक प्रचंड नगर के समान उसकी शान थी, एवं वहाँ नौकर, शिल्पी, सूतमागध, गणिका आदि सारा परिवार उपस्थित था [म. उ. १. १९६.१५] युधिष्ठिर n. भारतीय युद्ध में पाण्डबों की सेनासंख्या सात अक्षौहिणी एवं कौरवों की सेनासंख्या ग्यारह अक्षौहिणी थी । कौरव पक्ष की ग्यारह अक्षौहिणी सेना में से एक एक अक्षौहिणी सेना निम्नलिखित दस राजाओं के द्वारा लायी गयी थी-भगदत्त, भूरिश्रवस, कृतवर्मन्, विंद, जयद्रथ, अनुविंद, सुशर्मन, नील, केकय, एवं कांबोज । महाभारत मे निर्दिष्ट ‘अक्षौहिणी,’ सैन्यसंख्या दर्शानेवाली एक सामान्य गणनापद्धति न हो कर, वह रथ, हाथी, अश्व, पैदल आदि विभिन्न प्रकार के सैनिको से बना हुआ एक ‘सैनिकी विभाग’ था । इस तरह एक अक्षौहिणी सेना में १०९३५० पैदल, ६५६१० अश्वदल, २१८७० गजदल, एवं २१८७० रथों का समावेश होता था । यह सेनाविभाग पत्ती, सेनामुख, गुल्म आदि उपविभागो में विभाजित किया जाता था, जिनमें से हर एक की गणसंख्या निम्नप्रकार रहती थी सेनागणना पद्धति की तालिका दखिये । सेनागणनापद्धति की तालिका रथ पत्ती - १ सेनामुख ( = ३ पत्ती ) - ३ गुल्म ( = ३ सेनामुख ) - ९ गण ( = ३ गुल्म ) - २७ वाहिनी ( = ३ गण ) - ८१ पृतना ( = ३ वाहिनी ) - २४३ चमू ( = ३ पृतना ) - ७२९ आनीकिनी ( = ३ चमू ) - २१८७ अक्षौहिनी ( = १० आनीकिनी ) - २१८७० हाथी पत्ती - १ सेनामुख ( = ३ पत्ती ) - ३ गुल्म ( = ३ सेनामुख ) - ९ गण ( = ३ गुल्म ) - २७ वाहिनी ( = ३ गण ) - ८१ पृतना ( = ३ वाहिनी ) - २४३ चमू ( = ३ पृतना ) - ७२९ आनीकिनी ( = ३ चमू ) - २१८७ अक्षौहिनी ( = १० आनीकिनी ) - २१८७० अश्व पत्ती - ३ सेनामुख ( = ३ पत्ती ) - ९ गुल्म ( = ३ सेनामुख ) - २७ गण ( = ३ गुल्म ) - ८१ वाहिनी ( = ३ गण ) - २४३ पृतना ( = ३ वाहिनी ) - ७२९ चमू ( = ३ पृतना ) - २१८७ आनीकिनी ( = ३ चमू ) - ६५६१ अक्षौहिनी ( = १० आनीकिनी ) - ६५६१० पैदल पत्ती - ५ सेनामुख ( = ३ पत्ती ) - १५ गुल्म ( = ३ सेनामुख ) - ४५ गण ( = ३ गुल्म ) - १३५ वाहिनी ( = ३ गण ) - ४०५ पृतना ( = ३ वाहिनी ) - १२१५ चमू ( = ३ पृतना ) - ३६४५ आनीकिनी ( = ३ चमू ) - १०९३५ अक्षौहिनी ( = १० आनीकिनी ) - १०९३५० युधिष्ठिर n. पाण्डवों की सात अक्षौहिणी सेना के निन्मलिखित सात सेनाप्रमुख अधिपति चुने गये थे:- द्रुपद, विराट, धृष्टद्युन्म, भीम, शिखंडिन्, चेकितान एवं सात्यकि । पाण्डवों का मुख्य सेनापति धृष्टद्युम्न था, जो युद्ध के अठरह दिन सैनापत्य का काम निभाता रहा । पाण्डव सेना का सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शक श्रीकृष्ण ही था । पाण्डवों की सेना में से रथी महारथी आदी विभिन्न श्रेणियों के योद्धाओं की विस्तृत जानकारी महाभारत में प्राप्त है ( भीष्म देखिये ) । कौरव पक्ष के ग्यारह अक्षौहिणी सेना के निम्नलिखित सेनाप्रमुख चुने गये थे---कृप, द्रोण, शल्य, कांबोज, कृतधर्मन्, कर्ण, अश्वत्थामन्, भूरिश्रवस्, जयद्रथ, सुदक्षिण एवं शकुनि [म. उ. १५२.१२८-१२९] भारतीय युद्ध के अठरह दिनों में कौरवपक्ष के निम्नलिखित सेनापति हुये थे:--- पहले १० दिन-भीष्म; ११-१५ दिन-द्रोण; १६-१७ दिन-कर्ण; १८ वें दिन का प्रथमार्ध-शल्य; द्वितायार्ध-दुर्योधन । युधिष्ठिर n. मार्गशीर्ष शुद्ध त्रयोदशी के दिन भारतीय युद्ध का प्रारंभ हुआ एवं पौष अमावस्या के दिन वह समाप्त हुआ । इस तरह यह् युद्ध अठारह दिन अविरत चलता रहा । युद्ध के पहले दिन पाण्डवों का सैन्य उत्तर की ओर आगे वढा एवं कुरुक्षेत्र की प्रश्चिम मे आ कर युद्ध के लिए सिद्ध हुआ । इस पर कौरव सैन्य कुरुक्षेत्र की पश्चिम में प्रविष्ट हुआ, एवं उसी मैदान में भारतीय युद्ध शुरू हुआ । युद्ध के प्रारंभ में युधिष्ठिर अपना कवच एवं शस्त्र उतार कर पैदल ही कौरव सेना की ओर निकला । इसका अनुकरण करते हुए इसके चारो भाई भी चल पडे । अपने गुरु भीष्म, द्रोण एवं कृपाचार्य से वंदन, कर इसने युद्ध करने की अनुज्ञा माँगी, एवं कहा, ‘इस युद्ध में हमें जय प्राप्त हो, ऐसा आशीर्वाद आप दे दिजिए’। गुरुजनों का आशीर्वाद मिलने के बाद, इसने अपने सेनापति को युद्ध प्रारंभ की आशा दी [म. भी. ४१.३२-३४] युधिष्ठिर n. प्रथम दिन के युद्ध में इसका शल्य के साथ युद्ध हुआ था । भीष्म के पराक्रम को देखकर इसे बडी चिन्ता हुई थी, एवं उसके युद्ध से भयभीत हो कर इसने धनुष्य बाण तक फेंक दिया था [म. भी. ८१.२९] इसने भीष्म के साथ युद्ध भी किया, किन्तु पराजित रहा । भीष्म का विध्वंसकारी युद्ध देखकर इसने बडे करुणपूर्ण शब्दों में भीष्मवध के लिए पाण्डवों की सलाह ली थी, तथा कृष्ण से कहा था, ‘आप ही भीष्म से पूछे कि, उनकी मृत्यु किस प्रकार हो सकती है [म. भी. १०३.७०-८२] युधिष्ठिर n. दुर्योधन ने भीष्म के बाद द्रोणाचार्य को सेनापति बनाया । द्रोण द्वारा वर माँगने के लिए कहा जाने पर, दुर्योधन ने उससे यह इच्छा प्रकट की थी कि, वह उसके सम्मुख युधिष्ठिर को जिंदा पकड लाये । तब द्रोण ने कहा था, ‘अर्जुन की अनुपस्थिति में ही यह हो सकता है’। दुर्योधन युधिष्ठिर को जीवित पकडकर इस लिए लाना चाहता था कि, उसे फिर द्यूत खेलने के लिए मजबूर करे, और समस्त पाण्डवों को फिर वनवास भेज कर चैन की बन्सी बजाओं । युधिष्ठिरने जब द्रोण की प्रतिज्ञा सुनी, इसने तब अर्जुन को अपने पास ही रहने के लिए कहा [म. द्रो, १३.७४२] । द्रोणाचार्य द्रारा निर्मित ‘गरुडव्यूह’ को देख कर यह अत्यधिक भय भीत हुआ था [म. द्रो १९.२१-२४] अभिमन्यु के मृत्यु के बाद इसने बहुत करुण विलाप किया था, तथा व्यासजी से मृत्यु की उत्पत्ति आदि के विषय में प्रश्न किया था । व्यास के द्वारा अत्यधिक समझाये जाने पर यह शोकरहित हुआ था [म. द्रो. परि. १.८] । इसने युद्ध में दुर्योधन एवं द्रोणाचार्य को मूर्च्छित कर परास्त किया था [म. द्रो. १३७.४२] किन्तु इसी युद्ध में कृतवर्मन् ने इसे परास्त किया था, एवं कर्ण से यह घबरा उठा था । अभिमन्यु की भाँति भीमपुत्र घटोत्कच की मृत्यु से भी यह अत्यधिक शोकविव्हल हो उठा था । पश्चात् द्रोण ने अपने अत्यधिक पराक्रम के बल से इसे विरथ कर दिया, एवं डर कर यह युद्धभूमि से भाग गया [म. द्रो. ८२.४६] अन्त में- ‘अश्वत्थामा हतो ब्रह्मन्निवर्तस्वाहवादिति’ कह कर यह द्रोण की मृत्यु का कारण बन गया द्रोण देखिये;[म. द्रो. १६४.१०२-१०६] द्रोणवध के समय इसने ‘नरो वा कुञ्जरो वा’ कह कर द्रोणाचार्य से मिथ्या भाषण किया, जिस कारण पृथ्वी पर निराधार अवस्था में चलनेवाला इसका रथ भूमि पर चलने लगा [म. द्रो १६४.१०७] । द्रोणाचार्य के सैनापत्य के काल में कौरव एवं पाण्डवों के सैन्य का अत्यधिक संहार हुआ, जिस कारण उन दोनों का केवल दो दो अक्षौहिणी सैन्य बाकी रहा । युधिष्ठिर n. द्रोण के उपरांत कर्ण सेनापति बना, जिसने इसका पराभव कर इसकी काफी निर्भर्त्सना की [म. क.४९. ३४-४०] । पराजित अवस्था में, इसका वध न कर कर्ण ने इसे जीवित छोड दिया । इस अपमानित एवं घायल अवस्था में लज्जित हो कर यह शिबिर में लौट आया । इतने में इसे ढुँढने के लिए गये कृष्ण एवं अर्जुन भी वापस आये । उन्हे देख कर यह समझा कि, वे कर्ण का वध कर के लौट आ रहे है । अतएव इसने उनका बडा स्वागत किया, किन्तु अर्जुन के द्वारा सत्यस्थिति जानने पर, यह अत्यंत शांत प्रकृति का धर्मात्मा क्रोध से पागल हो उठ, एवं इसने अर्जुन की अत्यंत कटु आलोचना की । युधिष्ठिर n. इस समय युधिष्ठिर एवं अर्जुन के दरम्यान जे संवाद हुआ, वह उन दोनों के व्यक्तित्व पर काफी प्रकाश डालता है । इसने अर्जुन से कहा, ‘बारह साल से कर्ण मेरे जीवन कां एक काँटा वन कर रह गया है । एक पिशाच के समान वह दिनरात मेरा पीछा करता है । उसका वध करने की प्रतिज्ञा तुमने द्वैतवन में भी की थी, किन्तु वह अधुरी ही रही । तुम कर्ण का वध करने में यद्यपि असमर्थ हो, तो यहीं अच्छा है कि, तुम्हारा गांडीव धनुष, बाण, एवं रथ यहीं उतार दो’। अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि, जो उसे गांडीत धनुष उतार देने को कहेगा, उसका वह वध करेगा । इसी कारण उसने युधिष्ठिर से कहा, ‘युद्ध से एक योजन तक दूर भागनेवाले तुम्हे पराक्रम की बातें छेडने का अधिकार नहीं है । यज्ञकर्म एवं स्वाध्याय जैसे ब्राह्मणकर्म में तुम प्रवीण हो । ब्राह्मण का सारा सामर्थ्य मुँह में रहता हैं । ठीक यही तुम्हारी ही स्थिति है । तुम स्वयं पाणी हो । तुम्हारे द्यूत खेलने के कारण ही हमारा राज्य चला गया, एवं हम संकट में आ गये । ऐसी स्थिति में मुझे गांडीव धनुष उतार देने को कहनेवाले तुम्हारा मैं यही शिरच्छेद करता हूँ’। अर्जुन जैसे अपने प्रिय बन्धु से ऐसा अपमानजनक प्राकृत भाषण सुन कर, पश्चाताप भरे स्वर में इसने उसे कहा, ‘तुम ठीक कह रहें हो । मेरी मूढता, कायरता, पाप एवं व्यसनासक्तता के कारण ही सारे पाण्डव आज संकट में आ गयें है । तुम्हारे कटु वचन मुझसे अभी नहीं सहे जाते हैं । इसी कारण तुम मेरा शिरच्छेद करो, यही अच्छा है । नही तो. मैं इसी समय वन में चला जाता हूँ’ । युधिष्ठिर की यह विकल मनस्थिति देख कर सारे पाण्डव भयभीत हो गये । अर्जुन भी आत्महत्त्या करने के लिए प्रवृत्त हुआ । अन्त में श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से आश्वासन दिया, ‘आज ही कर्ण का बध किया जाएगा’। इस आश्वासन के अनुसार, अर्जुन ने कर्ण का वध किया [म. क. परि. १.क्र. १८. पंक्ति ४५-५०] जिस कर्ण के बधके लिए यह तरस रहा था, वह पाण्डवों का ही एक भाई एवं कृती का एक पुत्र है, यह कर्ण-वध के पश्चात् ज्ञात होने पर, युधिष्ठिर आत्मग्लानि से तिलमिला उठा । कर्ण एवं कुंती के चेहरे में साम्य है, यह पहले से ही यह जानता था । इस साम्य का रहस्यमेद न करने से बन्धुवध का पातक अपने सर पर आ गया इस विचार से यह अत्यधिक खिन्न हुआ । यही नही, कर्णजन्म का रहस्य छिपानेवाली अपनी प्रिय माता कुन्ती को इसने शाप दिया । कर्णवध के पश्चात, शिबिर में सोये हुए पाण्डवपरिवार का अश्वत्थामन् ने अत्यंत क्रूरता के साथ बध किया, जिसमें सभी पाण्डवपुत्र मर गये । इस समाचार को सुन कर यह अत्यंत दुःखी हुआ था । बाद में द्रौपदी ने विलाप करते हुए इससे अश्वत्थामा तथा उसके सहकारियो के वध करने की प्रार्थना की । युधिष्ठिर ने कहा कि, वह अरण्य चला गया है । बाद को द्रौपदी द्वारा यह प्रतिज्ञा की गयी कि, अश्वत्थामा के मस्तक की मणि युधिष्ठिर के मस्तक पर वह देखेगी, तभी जीवित रह सकती है । तब भीम, कृष्ण अर्जुन तथा युधिष्ठिर के द्वारा द्रौपदी का प्रण पूरा किया गया [म. सौ.९.१६] युधिष्ठिर n. दुयोंधन एवं भीम के दरम्यान हुये द्वंद्वयुद्ध में भीम ने दुर्योधन की बायी जाँघ फाड कर उसे नीचे गिरा दिया, एवं उसी घायल अवस्था में लत्ताप्रहार भी किया । उस समय युधिष्ठिर ने भीम की अत्यंत कटु आलोचना की । इसने कहा, ‘यह तुम क्या कर रहें हो? दुर्योधन हमारा रिश्तेदार ही नही, बल्कि एक राजा भी है । उसे घायल अवस्था में लत्ताप्रहार करना अधर्म है’ । पश्वात् इसने दुर्योधन के समीप जा कर कहा, ‘तुम दुःख मत करना । रणभूमि में मृत्यु आने के कारण, तुम धन्य हो । सारे रिश्तेदार एवं बांधव मृत होने के कारण, हमारा जीवन हीनदीन हो गया है । तुम्हे स्वर्गगति तो जरुर प्राप्त होगी । किन्तु बांधवों के विरह की नरकयातना सहते सहते हमें यहाँ ही जीना पडेगा’ युधिष्ठिर n. दुर्योधनवध के पश्चात् भारतीय युद्धकी समाप्ति हुयी । कौरव एवं पाण्डवों के अठारह अक्षौहिणि सैन्य में से केवल दस लोग बच सके । उनमें पाण्डवपक्ष में से पाँच पाण्डव, कृष्ण एवं सात्यकि, तथा कौरवपक्ष में से कृप, कृत एवं अश्वत्थामन् थे [म. सौ. ९.४७-४८] । युद्धभूमि से बचें हुए इन लोगो में धृतराष्ट्र पुत्र युयुत्सु का निर्देश भी प्राप्त है, जो युद्ध के प्रारंभ में ही पाण्डवपक्ष में भिला था । भारतीययुद्ध के मृतकों की संख्या युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र को तीन करोड बतायी थी, जो सैनिक एवं उनके अन्य सहाय्यक मिला कर बतायी होगी । युद्धभूमि मे लडनेवाले एक सैनिक के लिए दस सहाय्यक रहते थे [म. स्त्री. २६.९-१०] युधिष्ठिर n. युद्ध में मृत हुए अपने बांधवों का अशौच तीस दिनों तक माननें के बाद युधिष्ठिर हस्तिनापुर में लौट आया [म. शां. १.२] युद्ध की विभीषिका को देख कर यह इतना दुःखी था कि, किसी से कुछ भी न कह पाता था, तथा मन ही मन आन्तरिक पीडा में सुलग रहा था । अपने मन की पीडा को अग्रजों से ही कह कर यह कुछ शान्ति का अनुभव कर सकता था, किन्तु कहे तो किससे? कृष्ण ने इसे युद्ध के लिए प्रेरित ही किया था, तथा उसका ढाँचा भी उसीके द्वारा बनाया गया था । धृतराष्ट्र स्वयं अपने सौ पुत्रों एवं साथियों की पीडा से पीडित था । व्यास भी दुखी था, कारण उसका भी तो कुल नाश हुआ था । इस प्रकार इसके मन में राज्यग्रहण के संबंध में विरक्ति की भावना उठी, एवं इसने राज्य छोड कर वानप्रस्थाश्रम स्वीकारने का निश्चय किया । इस समय, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव, द्रौपदी आदि ने इसे गृहस्थाश्रम एवं राज्यसंचालन का महत्त्व समझाते हुए इसकी कटु आलोचना की । युधिष्ठिर n. इस समय हुआ युधिष्ठिर-अर्जुनसंवाद अत्यधिक महत्वपूर्ण है । अर्जुन ने इसे क्रुद्ध हो कर कहा, ‘राज्य प्राप्त करने के पश्चात, तुम भिक्षापात्र लेकर वानप्रस्थाश्रम का स्वीकार करोगे तो लोग तुम्हे हँसेंगे । तुम युद्ध की सारी बाते भूल कर आनेवाले राज्यवैभव का विचार करो, जिससे तुम जीवन के सारे दुःखों को भूल जाओंगे । किन्तु मैं जानता हूँ कि, तुम्हारे लिए यह असंभव हैं. क्यों कि, सुख के समय भी, जीवन की दुःखी यादगारें तुम्हें आती ही रहती है’। इस पर युधिष्ठिर ने कहा, ‘जिसे तुम सुख तथा दुःख कहते हो, वह सापेक्ष है । विदेह देश का जनक राजा अपनी राजधानी मिथिला जलने पर भी शान्त रहा, क्यों कि, उसकी आध्यात्मिक संपत्ति अपार थी’। इस पर अर्जुन ने कहा, ‘अपना राज्य जला कर वानप्रस्थाश्रम लेनेवाले जनक जैसे मूढ राजा का द्दष्टान्त देना यहाँ उचित नही है । प्रजापालन एवं देवता, अतिथि एवं पंचमहाभूतों का पूजन यही राजा का प्रथम कर्तव्य है’। इस पर युधिष्ठिर ने कहा ‘ तुम केवल अस्त्रविद्या ही जानते हो, धर्म एवं शास्त्रों का उचित अर्थ तुम्हे समझाना असंभव है । मैंने वेद, धर्म एवं शास्त्रों का अध्ययन किया है । इसी कारण धर्म का सूक्ष्म स्वरूप केवल मैं ही जानता हूँ । धन एवं राज्य से तप अधिक श्रेष्ठ है, जिससे मनुष्यप्राणि को सद्गति प्राप्त होती है’। अंत में युधिष्ठिर एवं अर्जुनके बीच श्रीव्यास ने मध्यस्थता की । उसने कहा, ‘राज्य से सुख प्राप्त होता हो या न हो, उसका स्वीकार करना ही उचित है । आप्तजनों के सहवास की परिणति वियोग में ही होती है । इस कारण उनकी मृत्यु का दुःख करना व्यर्थ है । रही बात धन की, यज्ञ करने में ही धन की सार्थकता है । युधिष्ठिर n. धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की मृत्यु से हस्तिनापुर के कुरुवंश का राज्य नष्ट हुआ । बाद में कृष्ण ने इसका राज्याभिषेक किया, एवं मार्कंडेय ऋषि के कथनानुसार इससे प्रयागयात्रा करवायी [पद्म. स्व, ४०.४९] । तत्पश्वात व्यास की आज्ञानुसार इसने तीन अश्वमेध यज्ञों का आयोजन किया [म.आश्व, ९०.१५] ;[भा. १.१२.३४] । इस यज्ञ में व्यास प्रमुख ऋत्विज था, एवं बक दाल्भ्य, पैल, ब्रह्मा, वामदेव आदि सोलह ऋत्विज थे [म. आश्व.७१.३] । जैमिनि अश्वमेध में इन सोल्ह ऋत्विजों के नाम दिये हैं [जै. अ. ६३] । इस यज्ञ के लिए द्र्व्य न होने के कारण, इसने वह हिमवत् पर्वत से मरुत्तों से लाया [म. आश्व, ९.१९-२०] । इस यज्ञ की व्यवस्था इसने अपने भाईयों पर निम्न प्रकार से सोंपी थी---अश्वरक्षण-अर्जुन, राज्यपालन-भीम एवं नकुल; कौटुंबिक व्यवस्था-सहदेव [म. आश्व. ७१.१४-२०] । इस यज्ञ के समय, इसने पृथ्वी का अपना सारा राज्य व्यास को दान में दिया, जो व्यास ने इसे लौटा कर उसके मूल्य का धन ब्राह्मणों को दान में देने के लिए कहा [म. आश्व. ९१.७-१८१] । युधिष्ठिर n. अश्वमेध यज्ञ में एक नेवला के द्वारा किये गये युधिष्ठिर के गर्वहरण की चमत्कृतिपूर्ण कथा महाभारत में दी गयी है । अश्वमेध यज्ञ के पश्चात्, एक विचित्र नेवला इसके पास आया, जिसका आधा शरीर किसी ब्राह्मण द्वारा अन्नदान किया जाने पर छोडे गवे पानी में लोट लगाने के कारण, स्वर्णमय हो गया था । उसने आ कर युधिष्ठिर से कहा, ‘आपके अश्वमेध यज्ञ की प्रशंसा सुन कर अपने आधे बचे अंग को स्वर्णमय बनाने आया था । किन्तु, यहाँ यह शरीर स्वर्णमय न हो सका’। इससे यज्ञकर्ता युधिष्ठिर के मन में उत्पन्न हुआ अभिमान नष्ट हो गया, तथा नेवले का अर्धांग भी स्वर्णमय हो गया [म. आश्व. ९२-९५] ;[जै. अ. ६६] ; उच्छंवृत्ति देखिये युधिष्ठिर n. अश्वमेध यज्ञ के पश्वात् धृतराष्ट्र की अनुमति से युधिष्ठिर ने राज्यसंचालन आरंभ किया । पश्वात् धृतराष्ट्र ने अन्न-सत्याग्रह कर के, वन में जाने के लिए इससे अनुमति माँगी । यह अत्यधिक दुःखी हुआ, एवं उसे ही राज्य अर्पित कर इसने स्वयं वन में जाने की इच्छा प्रकट की [म. आश्र, ६.७-९] । पश्चात् व्यास के समझाने पर युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र को वन जाने की अनुमति दे दी [म. आश्र, ८.१] । चलते समय धृतराष्ट्र ने इसे राजनीति का उपदेश दिया [म. आश्र.९-१२] । वन में जाते समय धृतराष्ट्र ने अपने पूर्वजों का श्राद्ध करने के लिए हस्तिनापुर राज्य के कोशाध्यक्ष भीम के पास कुछ द्रव्य की याचना की । किन्तु भीम ने उसे देने से साफ इन्कार कर दिया । फिर युधिष्ठिर एवं अर्जुन ने अपने खासगी द्रव्य दे कर उसे विदा किया [म. आश्र, १७] । बाद को यह धृतराष्ट्र से मिलने के लिए ‘शतयूपाश्रम’ में भी गया था [म. आश्र, ३१-३२] । विदुर का निर्याण हिमालय में हुआ, जिस समय यह उसके पास था । विदुर की मृत्यु के पश्चात उसकी प्राणज्योति युधिष्ठिर के शरीर में प्रविष्ट हुयी, जिस कारण यह अधिक सतेज वना [म. आश्र, ३३.२६] युधिष्ठिर n. द्वारका में वृष्णि एवं यादव लोग आपस में झगडा कर के विनष्ट हुये । तत्पश्चात हुत कृष्णनिर्याण की वार्ता सुन कर वह अत्यधिक खिन्न हुआ । अभिमन्यु के ३६ साल के पुत्र परिक्षित को राज्याभिषेक कर, एवं धृतराष्ट्र को वैश्य स्त्री से उत्पन्न मृत्युत्सु नामक पुत्र को प्रधानमंत्री बना, कर, यह महाप्रत्थान के लिए निकल पडा । इस समय इसके पाण्डव बन्धु एवं द्रौपदी भी राज्य छोड कर इसके साथ निकल पडे [भा. १.१५. ३७-४०] । महाभारत के अनुसार, परिक्षित का भार उसके गुरु कृपाचार्य पर सौंप कर युधिष्ठिर ने महाप्रत्थान की तैयारी की परिक्षित राजा की गृहव्यवस्था इसने उसकी दादी सुभद्रा के उपर सौंप दी, एवं इंद्रप्रस्थ का राज्य श्रीकृष्ण का प्रपौत्र वञ्ज को दिया, जो यादवसंहार के कारण निराश्रित वन गया था । इसके पूर्व इसने राजवैभव छोड कर बल्कल धारण कियें एवं अग्निहोत्र का विसर्जन किया । इस तरह पाँच पांडव, द्रौपदी एवं इसके साथ सहजबश आया हुआ एक कुत्ता भारत प्रदक्षिणा के लिए निकले, एवं पूरव की ओर चल पडे । ‘लौहित्य’ नामक सलिलार्णव में अपने धनुष्य बाण विसर्जित कर ये निःशस्त्र हुयें । पश्चात् दक्षिणीपश्चिम दिशा में मुड कर ये द्वारका नगरी के पास आयें । अन्त में पुन: उत्तर की ओर मुड कर हिमालय में प्रविष्ट हुयें । वहाँ इन्होने वालुकार्णव एवं मेरुपर्वत के दर्शन लियें । पश्चात इन्होने स्वर्गारोहण प्रारंभ किया [म. महा. १-२] । युधिष्ठिर n. स्वर्गारोहण के समय, मार्ग में द्रौपदी, सहदेव, नकुल, अर्जुन एवं भीमसेन ये एक एक कर क्रमश; गिर पडे । अन्त मे युधिष्ठिर एवं श्वानरूपधारी यमधर्म ही बाकी रहे । ये दोनों स्वर्गद्वार पहूँचते ही, स्वयं इंद्र रथ ले कर इसे सदेह स्वर्ग में ले जाने के लिए उपस्थित हुआ । यह रथ में बैठनेवाला ही था कि, कुत्ते ने भी इसके साथ रथ में वैठना चाहा, जिसे इंद्र ने इन्कार कर दिया । इसने कुत्ते के सिवा स्वर्ग में प्रवेश करना अमान्य कर दिया । फिर यमधर्म अपने सही रूप में प्रकट हुआ, एवं इन्द्र इन दोनो को सदेह अवस्था में स्वर्गं ले गया । युधिष्ठिर n. महाभारत के भीष्म, द्रोण, कर्ण, दुर्योधन आदि व्यक्तियों की मुत्यु में जो नाटय प्रतीत होता है, वह युधिष्ठिर की मृत्यु में नहीं है । इसकी मृत्यु में उशत्तता जरुर है, किन्तु आजन्म सत्य एवं नीतितत्त्व के पालन में एकाकी अस्तित्व बितानेवाला युधिष्ठिर अपनी मृत्यु में भी एकाकी रहा । सारे तत्वदर्शी एवं ध्येयवादी व्यक्ति अपनी आयु में तथा मृत्यु मे एकाकी रहे, यही विधिघटना युधिष्ठिर की मृत्यु में पुन: एकबार प्रतीत होती है । युधिष्ठिर n. स्वर्ग में पहुँचते ही नारद ने इसकी स्तुति की, एवं इन्द्र ने इसकी उत्तम लोक में रहने की व्यवस्था की । किन्तु इसने स्वर्ग में प्रवेश करते ही अपने भाइयों के संबंध में पूछा । फिर यमधर्म ने इसकी सत्वपरीक्षा लेने के लिए, इसके सारे पाण्डव बांधव नर्कलोक में वास कर रहे है ऐसा मायावी द्दश्य दिखाया । यह द्दश्य देख कर इसने यमधर्म से कहा, ‘मैं अकेला स्वर्गमुख का उपभोग लेना नहीं चाहता हूँ । मेरे समस्त बांधव जिस नर्कलोक में वास कर रहे है, वही मैं उनके साथ रहना चाहता हूँ [म. स्व. २.१४] युधिष्ठिर n. इस पर यमधर्म ने अपने अंशावतार से उत्पन्न युघिष्ठिर को साक्षात् दर्शन दिया एवं कहा. ‘आज तक तीन बार मैंने तुम्हारी सत्त्वपरीक्षा लेनी चाही । किन्तु उन तीनो समय तुमने खुद को एक सत्त्वनिष्ठ क्षत्रिय साबित किया है । इसी कारण मैं तुमसे अत्यधिक प्रसन्न हूँ’ [म. स्व, ५.१९] । यमधर्म के द्वारा निर्दिष्ट युधिष्ठिर की सत्वपरीक्षा के तीन प्रसंग निम्न है---(१) यक्षप्रश्र, जिस समय यमधर्म ने यक्ष का रुप ले कर युधिष्ठिर के पाण्डव बांधवों में से किसी एक को जीवित करने का आश्वासन दिया था । इस समय युधिष्ठिर ने माद्री से उत्पन्न अपना सौतेला भाई सहदेव को जीवित करने को कहा था । (२) स्वर्गारोहण के समय,---यमधर्म ने कुत्ते का रुप धारण कर युधिष्ठिर की परीक्षा लेनी चाहीं । उस अवसर पर कुत्ते को साथ ले कर ही स्वर्ग में प्रवेश करने का निर्धार युधिष्ठिर ने प्रकट किया, एवं कुत्ते के बगैर स्वर्ग में प्रवेश करने से इन्कार कर दिया । (३) स्वर्ग में प्रवेश करने के पश्वात,---इसने अपने भाईओं के साथ नर्क में रहना पसंद किया । पश्वात युधिष्ठिर ने स्वर्ग में स्थित मन्दाकिनी नदी में स्नान कर अपने मानवी शरीर का त्याग किया, एवं यह दिव्य लोक में गया [म.अ स्व. ३.१९] वहाँ इसकी श्रीकृष्ण, अर्जुन आदि की भेंट हुयी । अन्त में यह यमधर्म के स्वरूप में विलीन हुआ [म. स्व. ३.१९] युधिष्ठिर n. युधिष्ठिर को द्रौपदी एवं पौरवी नामक दो पत्नियाँ थी । उन में से द्रौपदी से इसे प्रतिविंध्य एवं पौरवी से देवक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ [भा. ९.२२. २७-३०] । महाभारत में इसकी दूसरी पत्नी का नाम देविका, एवं उससे उत्पन्न इसके पुत्र का नाम यौधेय दिया गया है [म. आ. ९०.८३] । भारतीय युद्ध में इसके दोनों पुत्र मारे गये, जिस कारण इसके पश्चात् अभिमत्यु का उत्तरा से उत्पन्न पुत्र परिक्षित् हस्तिनापुर का रजा बन गया [भा. १.१५-३२] । परिक्षित राजा के राज्यारोहण से द्वापर युग समाप्त हो कर, कलियुग प्रारंभ हुआ ऐसा माना जाता है । पुराणों में प्राप्त प्राचीनकालीन राजवंश का इतिहास भी इसी घटना के साथ समाप्त होता है । परिक्षित् राजा के उत्तरकालीन राजवंशों की पुराणों में प्राप्त जानकारी वहाँ भविष्यकालीन कह कर बतायी गयी है परिक्षित देखिये । युधिष्ठिर n. युधिष्ठिर की आयु के संबंध में सविस्तर जानकारी महाभारत कुंभकोणम् संस्करण में प्राप्त है । कित्यु भांडारकर संहिता में उस जानकारी को प्रक्षिप्त माना गया है [म. आ. परि. १. क्र. ६७. पंक्ति ४५-६५] । इस जानकारी के अनुसार, सोलहवें वर्ष में यह सर्वप्रथम हस्तिनापुर आया । वहाँ तेरह वर्ष विताने के बाद छ; महीने तक जतुगृह में, छ; महीने एकचक्रा में, एक वर्ष द्रुपद के घर में, पाँच वर्ष दुर्योधनादि के साथ तथा तेइस वर्ष इन्द्रप्रस्थ में वितायें । बाद में कौरवों द्वारा द्यूतक्रीडा में हार जाने के कारण बारह वर्ष वनवास तथा एक वर्प अज्ञातवास में रहा । अज्ञातवास के उपरांत युद्ध हुआ, तथा युद्ध के बाद इसने छत्तीस वर्षों तक राज्य किया । इस प्रकार इसने अपने जीवन के एक सौ आठ वर्ष वितायें । इसके छोटे भाई इससे क्रमश: एक एक वर्ष से छोटे थे । कई ग्रंथों के अनुसार इसने नौ वर्षों तक राज्य किया था [गर्ग, सं. १०.६०.९] किन्तु यह जानकारी गलत प्रतीत होती है । युधिष्ठिर n. पुराणों में प्राप्त परंपरा के अनुसार, भारतीय युद्ध का काल ई. पू. ३१०२ माना गया है । युधिष्ठिर के नाम से ‘युधिष्ठिर शक’ अथवा ‘कलि अब्द’ नामक एक शक भी अस्तित्व में था, जिसका प्रारंभकाल पुराणों में ई. पू. ३१०२ बताया गया है । किन्तु शिलालेख ताम्रपटादि कौनसे भी ऐतिहासिक साहित्य में ‘युधिष्ठिर शक’ का निर्देश प्राप्त नहीं है । इस कारण आधुनिक शक का निर्देश प्राप्त नहीं है । इस कारण आधुनिक योरिपियन विद्वान् ‘युधिष्ठिर शक’ की धारणा निर्मूल एवं निराधार बताते हैं । आधुनिक विद्वानों के अनुसार भारतीय युद्ध का काल इ. पू. १४०० माना जाता है ( हिस्ट्री अँन्ड कल्चर ऑफ इंडियन पीपल १.३०४ ) । यद्यपि वेद एवं ब्राह्मण ग्रंथों में भारतीय युद्ध का निर्देश प्राप्त नही है, फिर भी सूत्र ग्रंथों में इस युद्ध का निर्देश प्राप्त नही है, फिर भी सूत्र ग्रंथों में इस युद्ध का निर्देश प्राप्त है आश्व, गृ. ३. ४.;[सां. श्रौ. १५.१६] । पाणिनि के काल में भारतीय युद्ध में भाग लेनेवाले कृष्ण-अर्जुनादि व्यक्तियो की देवता मान कर पूजा होगे लगी थी । युधिष्ठिर n. महाभारत में प्राप्त तिथिवर्णनों से प्रतीत होता है कि, उस समय चान्द्रमास का उपयोग किया जाता था । पाण्डवों ने अपना वनवास भी चान्द्रवर्ष के अनुसार ही बिताया था [म. वि. ४२.३-६,४७] युधिष्ठिर n. युधिष्ठिर के जीवन में से कई घटनाओं का तिथिवर्णन महाभारत में प्राप्त है, जो निम्न प्रकार है---युधिष्ठिर का जन्म-अश्विन शुल्क ५। कौरबों से द्यूत-अश्विन कृष्ण ८। वनवास का प्रारंभ-कार्तिक शुक्क ५। कौरबों की धोषयात्रा-ज्येष्ठ कृष्ण ८। अज्ञातवास की समाप्ति-ज्येष्ठ कृष्ण ८। अभिमन्यु एवं उत्तरा का विवाह-ज्येष्ठ कृष्ण ११। भारतीय युद्ध का प्रारंभ-मार्गशीर्ष शुक्क १३। अभिमन्यु की मृत्यु-पौष कृष्ण ११। भारतीय युद्ध की समाप्ति-पौष अमावस्या। युधिष्ठिर का हस्तिनापुर प्रवेश-माघ शुक्क १। अश्वमेध यज्ञ का प्रारंभ-चैत्र शुक्क १५।
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