जयो मन सुकृत सत् कबीर ॥ध्रु०॥
हंस होयको चलो घरको । उतरो भवजल तीर ।
चंदर सुरज गगन नहीं धरती नहीं धीर ॥ज०॥१॥
धूप छाया उष्ण नही बरसे नहीं नीर ।
बाल तरुण वृद्ध नहीं त्रिगुण ताप सरीर ॥ज०॥२॥
करे आनंद निरमुल मुक्ता गये सुकनी सीर ।
मुगुट देखे धीट होय बैठे वोढन अमर चीर ॥ज०॥३॥
मनका ज्योत अनुप अस्मानी रखा आग सरीर ।
धरमदास सत्य पाये । करम कागद चीर ॥जयो०॥४॥