हरबिना कोई काम न आयो । झूटे झूटे परपंचमें मोह्यो ।
रतन सरिखे जनम तूं खोये ॥ध्रु०॥
अनेक अनेक उपाय करता मातानें एक पुतर जिआयो ।
(हाँरे) रची लाड लडायो ॥१॥
गुरु धनी तेरी सेवा साची मेरी माया झूटी ।
(हाँरे) मैं तुई समरनको फल पायो ॥२॥
घरकी इस तिरया करती धनी तेरे संग चलुंगी ।
(हाँरे) धुत धन सब खायो ॥३॥
कंचन कलश समाल करके संसारमाही दुःख रह्यो ।
(हाँरे) एक रची रची भवन बनायो ॥४॥
जब तेरी पेगाम सरपर अंतकाल ललकारयो ।
(हाँरे) एक पलक रेहेने न पायो ॥५॥
झूट ठग माया मोहनो परपंच सब कियो ।
(हाँरे) रतन जैसो जनम गमायो ॥६॥
कहत कबीर सुन काल बखत छोड दिनो धागो ।
(हाँरे) ताटी अकेलो पोचायो ॥७॥