थाँ न काँई काँई कह समझाऊँ, म्हारा बाला गिरधारी ।
पूर्व जन्मकी प्रीति हमारी, अब नहीं जात बिसारी ॥१॥
सुन्दर बदन निरखियों जबते, पलक न लागे म्हाँरी ।
रोम-रोममें अँखियाँ अटकी, नख सिककी बलिहारी ॥२॥
हम घर बेग पधारो मोहन ! लग्यो उमावो भारी ।
मोतियन चौक पुरावाँ बाला, तन मन थाँपर वारी ॥३॥
म्हारो सगपण थाँ से गिरधर ! मैं हूँ दासी थाँरी ।
चरन-शरन मोहे राखो साँवरा, पलक न कीजे न्यारी ॥४॥
वृन्दावनमें रास रचायो, संगमेम राध-प्यारी ।
मीराँ कह गोप्याँरो बालो, हमरी सुधहू बिसारी ॥५॥