साँवरिया अरज मीरा की सुण रे ।
मैं नुगरी म्हारो सुगरो साँवरियो, ओगुण गारी रा कुणरे ॥१॥
राणा विष का प्याला भेज्या, नित चरणामृत को पण रे ।
तारण वारो म्हारो स्याम धणी है, मारण वारो कुण रे ॥२॥
निस दिन बैठी पंथ निहारुँ, व्याकुल भयो म्हारो मन रे ।
म्हारे तो दिल में ऐसी भावे, जाय बसूँ माधोवन रे ॥३॥
निस दिन मोहे विरह सतावे, लकड़ी में लाग्यो घुण रे ।
जैसे जल बिन मछली तड़पे, वैसे ही म्हारो मन रे ॥४॥
राम समा म्हारो श्याम विराजे, जाँ पे वारुँ तन-मन रे ।
मीरा के प्रभु गिरिधर मिलिया, ओराँने ध्यावे कुण रे ॥५॥