निशि दिन बरसत नैन हमारे ।
सदा रहत पावस-ऋतु हम पर, जबतें श्याम सिधारे ॥१॥
अंजन थिर न रहत अँखियन में, कर कपोल भये कारे।
कचुंकि-पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे ॥२॥
आसूँ सलिल भये पग थाके, बहे जात सित-तारे ।
’सूरदास’ अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे ॥३॥