राम मिलणरो घणो उमावो, नित उठ जोऊँ बाटड़ियाँ ।
दरस बिना मोहि कछु न सुहावै, जक न पड़त है आँखड़ियाँ ॥
तड़फत तड़फत बहु दिन बीते पड़ी बिरह की फाँसड़ियाँ ।
अब तो बेग दया कर प्यारा मैं छूँ थारी दासड़ियाँ ॥
नैण दुखी दरसण कूँ तरसैं नाभि न बैठे सासड़ियाँ ।
रात दिवस हिय आरत मेरो कब हरि राखे पासड़ियाँ ॥
लगी लगन छूटण की नाहीं अब क्यूँ कीजै आटड़ियाँ ।
मीरा के प्रभु कब र मिलोगे पूरो मनकी आसड़ियाँ ॥