ज्वरहर बलिदानव्रत
( भैषज्यरत्नावली ) - चिरकालीन ज्वरकी शान्तिके लिये अष्टमीके अपराह्णमें चावलोंके चूर्णसे मनुष्यकी आकृतिका पुतला बनाकर उसके हलदीका लेप करे । मुख, हदय, कण्ठ और नाभिमें पीली कौड़ी लगावे, फिर खसके आसनपर विराजमान करके उसके चारों कोणोंमें पीले रंगकी चार पताका लगावे तथा उनके पास हलदीके रससे भरे हुए पीपलके पत्तोंके पत्तोके चार दोने रखे और
' मम चिरकालीनज्वरजनितपापतापादिशप्रशमनार्थं ज्वरहबलिदानं करिष्ये । '
यह संकल्प करके पुतलेका पूजन करे । सायंकाल होनेपर ज्वरवाले मनुष्यकी
' ॐ नमो भगवते गरुडासनाय त्र्यम्बकाय स्वस्तिरस्तु स्वस्तिरस्तु स्वाहा ।
ॐ कं ठं यं सं वैनतेयाय नमः । ॐ ह्लीं क्षः क्षेत्रपालाय नमः ।
ॐ ठः ठः भो भो ज्वर श्रृणु श्रृणु हल हल गर्ज गर्ज नैमित्तिकं मौहूर्त्तिकं एकाहिकं द्वयाहिकं त्र्याहिकं
चातुर्थिकं पाक्षिकादिकं च फट् हल हल मुञ्च मुञ्च भूम्यां गच्छ गच्छ स्वाहा ।'
इस मन्त्नसे तीन या सात आरती उतारकर पूर्वोक्त पुतलेको पूजा - सामग्रीसहित किसी वृक्षके मूल, चौराहे या श्मशानमें रख आवे । इस प्रकार तीन दिन करे और तीनों ही दिनोंमें नक्तव्रत ( रात्रिमें एक बार भोजन ) करे । स्मरण रहे कि पुत्तलपूजन बीमारके दक्षिण भागके स्थानमें करना चाहिये । इससे ज्वरजात व्याधियाँ शीघ्र ही शान्त होती हैं ।