पापजन्य रोगोके दूर करनेवाले व्रतोंका परिचय देनेके पहले पापों और तज्जन्य रोगोंका दिग्दर्शन हो जानेसे व्रत - प्रेमी मनुष्योंको अपने इच्छित और यथोचित व्रत करनेमें सुविधा मिलती है - इसी विचारसे यहाँ ' उपोदघात ' लिया जाता है । किसी जन्मनें अधिक पाप हो जानेसे नारकीय दुःख - भोगके पीछे भी मनुष्ययोनिमें उसका दुःखदायी फल रोगके रुपमें भोगना पड़ता है, परंतु जो मनुष्य पाप नहीं करते, बल्कि पथ्य - भोजन, इन्द्रियरक्षण, सदाचार - पालन, गो - द्विज - देवादिकी भक्ति और स्वधर्ममें निरत रहते है, वे चाहे किसी भी वर्ण, आश्रम या अवस्थके हों, उन्हें रोग नहीं होते; वे सदैव नीरोग रहते हैं । वास्तवमें रोगकें मूल कारण पाप हैं और पापोंका प्रायश्चित करनेसे पाप और रोग दोनों क्षीण हो जाते हैं । प्रायश्चित्तमें स्त्रान, दान, व्रत, उपवास, जप, हवन और उपासना आदि मुख्य हैं । किसमें क्या करना चाहिये यह पापानुकूल प्रत्येक व्रतमें बतलाया गया है । ' पाप ' - उपपातक, महापातक और अतिपातकरुपसे तीन प्रकारके होते हैं । विशेषता यह है कि ' उपातक ' से यकृत प्लीहा, शूल, श्वास, छर्दि, अजीर्ण और विसर्प आदि रोग होते हैं । ' महापातक ' से कोढ़, अर्बुद, संग्रहणी और राजयक्ष्मा आदि होते हैं और ' अतिपातक ' से जलंधर, भगंदर, नासूर, कृमिपरिवार और जलोदरादि होते हैं । देहधारियोंके शरीरमें वात, पित्त और कफ - ये तीन ' महादोष ' हैं । ये जबतक समान रहें तबतक कोई उपद्रव नहीं होता, इनमें विषमता आनेसे दुःखदायी रोग हो जाते हैं । वे चाहे सह्य हों या असह्य, उनसे प्राणिमात्रको क्लेश होता ही है । आयुवेंदमें स्वाभाविक, आगन्तुक, कायकान्तर और कर्मदोषज - ये चार प्रकारके रोग बतलाये हैं । इनमें भूख - प्यास, निद्रा, बुढ़ापा और मृत्यु - ये ' स्वाभाविक ' हैं । काम - क्रोध, लोभ - मोह, भय, लज्जा, अभिमान, ईर्ष्या, दीनता, शोक, अपस्मार, पागलपन, भ्रम, तम, मूर्छा, संन्यास और भूतावेश आदि ' आगन्तुक ' हैं । पाण्डुरोग, अन्त्नवृद्धि, जलोदर और प्लीहा आदि ' कायकान्तर ' हैं और पूर्वजन्ममें किया हुए पापजन्य सभी रोग ' कर्मदोषज ' हैं । अथवा जो रोग दीखनेमें सरल - साध्य किंतु बड़े - बड़े उपायोंसे भी छूटें नहीं - बढ़ते ही रहें या बहुत भयंकर अथवा असाध्य होकर भी साधारण - से उपायसे ही शान्त हो जायँ, वे ' कर्मदोषज ' होते हैं । वास्तवमें पूर्वजन्मके पापोंकी जबतक निवृत्ति नहीं होती, तबतक कर्मदोषज कोई भी रोग उपाय करनेपर भी घटते नहीं, बढ़ते ही हैं और जब सदनुष्ठान आदिके द्वारा पापोंकी निवृत्ति हो जाती हैं, तब वे बढ़ते नहीं, घटते हैं । अतएव पापोंकी निवृत्तिके निमित्तसे ' पापसम्भूत ' सर्वरोगार्तिहर व्रत अवश्य ही आरोग्यप्रद और श्रेयस्कर हैं ।
१. समानानि विजानीयान्मद्यान्येकादशैव तु ।
द्वादशं तु सुरा मद्यं सर्वेषामधमं स्मृतम् ॥ ( पुलस्त्य )
गौडी माध्वी च पैष्टी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा । ( मनु )
२. रोगास्तु दोषवैशम्यं दोषसाम्यरोग्यता ।
रोगा दुःखस्य दातारो ज्वरप्रभृतयो हि ते ॥ ( वाग्भट्ट )
३. यथाशास्त्रं तु निर्णीतो यथाव्याधि चिकित्सितः ।
न शमं याति यो व्याधिः स ज्ञेयो कर्मजो बुधैः ॥ ( भाव )
४. स्वाभाविकागन्तुककायकान्तरा रोगा भवेयुः किल कर्मदोषजाः ॥ ( शार्ङ्गधरसंहिता )