पापमूलक रोगोंमें सर्वप्रथम ज्वरकी गणना की जाती हैं । अन्य रोगोंकी अपेक्षा प्रत्येक प्राणी इससे अधिक पीड़ित होते हैं । ज्वरके आक्रमणको देवता और मनुष्य ही सह सकते हैं । इतर जीव तो इसके आक्रमणसे जीवित ही नहीं रह सकते । पूर्वाचार्योंका कथन ४ है कि क्षय, पाप और मृत्यु ये ज्वरके ही प्रतिरुप हैं और इसकी उत्पत्ति भी दुष्कर्मोंसे ही होती हैं । तृष्णा, संताप, अरुचि, अङ्गपीड़ा और हदयकी वेदना - ये सब ज्वरकी शक्तियाँ हैं । समनस्क ( मनसंयुक्त ) शरीर ही ज्वरका अधिष्ठान है और शारिरीक तथा मानसिक संताप होना ही ज्वरका लक्षण है । ज्वर होनेके पीछे जिन्हें किसी प्रकारका कष्ट न हो ऐसे प्राणी संसारमें नहीं हैं । प्रत्यक्ष देखनेमें आता है कि या तो रोगादिकी असह्य पीड़ासे ज्वर होता है या ज्वर ही आगे चलकर दुश्चिकित्स्य होकर अन्य रोग उत्पन्न कर देता है । विशेषता यह है कि अन्य रोगोंकी अपेक्षा यह प्रत्येक प्राणीके रोम - रोममें व्याप्त हो जाता है । अतः प्रसङगवश यहाँ ज्वरक परिचय पहले दिया है । शास्त्रकारोंने ज्वरको ' रोगोंका १ राजा ' कहा है । सुश्रुतने इसको रुद्रकोपकी २ अग्निसे उत्पन्न और सम्पूर्ण प्राणियोंको तपानेवाला बतलाया है । पुराणोंमे इसको रुद्रसम्भूत ३ ' रोद्री ' ( उष्णज्वर ) और विष्णूसम्भूत ' वैष्णवी ' ( शीतज्वर ) लिखा है । सूर्यारुणादिने ४ इसको यमके समान भयकारी, महाकाय, ऊर्ध्वकेश, ज्वलरत्कान्ति, दीर्घरुप और तीन नेत्रोंवाला सूचित किया है । हरिवंशमें इसके तीन मस्तक, छः भुजा, नौ - नौ नेत्र और तीन चरण निर्दिष्ट किये हैं देवासम्भूत होनेसे विदेहने इसको ५ पूजनीय बतलाया है । वैज्ञानिक दृष्टिसे देखा जाय तो ज्वर होनेपर ऐसी ही परिस्थिति प्रतीत हुआ करती है । इस विषयमें एक कथा भी है । उसमें कहा है कि ' बाणासुरके साथ अनिरुद्धका युद्ध हुआ । उस समयी इसी ज्वरने बलरामको पराजित और श्रीकृष्णको स्तम्भित बनाया था । इससे प्रसन्न होकर श्रीकृष्णने इसके सर्वगत होनेका वर दिया था ।' वास्तवमें बहुत - से रोगोंका लय और उद्य ज्वरसे ही होता है । जन्म - मरण या जीवनमें भी ज्वर रहता है । दूसरे शब्दोंमे यह भी कह सकते हैं कि अधिकांश रोगी और रोग ज्वरसे ही जीते और मरते हैं । ज्वर प्राणिमात्रका प्राणान्तक, देह, इन्द्रिय और मनका संतापाक और बल, वर्ण, ज्ञान तथा उत्साहको शिथिल करनेवाला है । पूर्वोक्त कथके प्रसङ्गमें ही कहा गया है कि ' श्रीकृष्णने ज्वरको तीन भागोंमे विभाजित कर एक भागको चौपायोंमें, दूसरे भागको स्थावरों ( पर्वतादि ) में और तीसरे भागको मनुष्योंमें विभक्त किया । विशेषता यह की थी कि मनुष्योंके तीसरे भागको मनुष्योंमें विभक्त किया । विशेषता यह की थी कि मनुष्योंके तीसरे भागका चतुर्थांश ज्वर पक्षियोंमें नियुक्त किथा था । वृक्षोंकी १ जड़ोंमें कीड़ा,पत्तोमें पीलापन, फलोंमें विकार, कमलमें शीतलता, भूमिमें ऊषरता, जलमें सेंवाल या कुमुदिनी, मोंरोमें कलङ्गी, पर्वतोंमें गेरु और गोवंश ( गाय, बैल एवं भैस ) में मृगी ( या मूर्छा ) - ये सब उसी ( ज्वर ) के रुप है । ' इस बतलाया है । अस्तु, शरीरगत बात, पित्त कौर कफके बिगड़ने, सुधरने या समान रहेनेके अनुसार अनेक प्रकारका ज्वर होता है । उसमें जो ' संतत ' १ ( सात, दस या बारह दिन निरन्तर बना रहे ), ' सतत ' २ ( दिन - रात बना रहे ), ' अन्येद्युष्क ' ३ ( दिन - रातमें एक बार हो ), ' तृतीयक ' ४ ( तीसरे दिन हो ) और ' चातुर्थिक ' ५ ( चौथे दिन ) हो, वह ' विषम ज्वर ' माना गया हैं ६ । माधवने इसको भूतावेश बतलाया है और उसकी शान्तिके लिये पूजा और बलिदान निर्दिष्ट किये हैं । जिन कारणोंसे ज्वर होता है, उनमें अभिघात, अभिशाप, अभिचार, अहिताचरण, अगम्यागमन, मिथ्याहारविहार, अनुपयुक्त पुष्प - गन्ध या औषधगन्ध, अनुक्त औषध, ऋतुविपर्यय, मिथ्याभय, महाशोक, बहुभोजन, विषव्रण, परिश्रम, मृतवत्सप्रसव, क्षय, अजीर्ण और दुग्धपूर्ण स्तन आदि मुख्य हैं । ज्वर और उसके वर्ण - भेद या उपाय आदि आयुवेदके मान्यतम ग्रन्थोंमें बहुत कुछ बतलाये गये हैं । अतः यहाँ उनके विषयमें और कुछ लिखनेकी अपेक्षा व्रतोपवासादिके द्वारा ज्वरादि रोगोंसे मुक्त होने के साधन सूचित किये हैं । उनमें भी सर्वप्रथम ज्वरको ही लिया है ।
१. रोगः पाप्मा ज्वरो व्याधिर्विकारो दुःखमामयः ।
यक्ष्मातङ्कगदाबाधशब्दाः पर्यायवाचिनः ॥ ( मुक्तक )
२. देहेन्द्रियमनस्तापी सर्वरोगाग्रजो बली ।
ज्वरः प्रधानो रोगाणामुक्तो भगवता पुरा ॥ ( माधव )
३. रुद्रकोपाग्निसम्भूतः सर्वभूतप्रतापनः । ( सुश्रुत )
४. प्रोक्तःश्वोणज्वरो रौद्रः शीतलो वैष्णवज्वरः । ( सविता )
५. ज्वरस्त्रिनापदभव्यश्च दीर्घरुपो भयानकः ।
बृहत्त्रिनेत्रैर्सदनौस्त्रिभिश्च दशनैर्दृढः ॥
ऊर्ध्वकेशो महाकायो ज्वलत्कान्तिर्यमोपमः । ( सूर्यारुण )
६. ज्वरस्तु पूजनैर्वापि सहसैवोपशाम्पति । ( विदेह जनक )
७. नाना तिर्यगयोन्यादिषु च बहुविधैः श्रूयते । ( माधवी )
पाकलः स तु नागानामभितापश्च वाजिनाम् ।
गवामीश्वरंज्ञश्च मानवानां ज्वरो मतः ॥
अजावीनां प्रलापाख्यः करभे चालसो भवेत् ।
हरिद्रो माहिषाणां तु मृगरोगो मृगेषु च ॥
पक्षिणामभिघातस्तु मत्स्येष्विन्द्रे मदो मतः ।
पक्षपातः पतङ्गानां व्यालेष्वाक्षिकसंज्ञकः ॥ ( माधवटिप्पणी )
८. संततः सततोऽन्येद्युस्तृयीयकचतुर्थकौ ।
सप्ताहं वा दशाहं वा द्वादशाहमथापि वा ॥
संतत्या यो विसर्गी स्यात् संततः स निगद्यते ।
९. अहोरात्रे सततको द्वौ कालावनुवर्तते ।
१०. अन्येद्युष्करस्त्वहोरात्रमेककालं प्रवर्तते ।
११. तृतीयकस्तृतीयेऽह्नि ।
१२. चतुर्थेऽह्नि चतुर्थकः ।
१३. केचिद् भूताभिषङ्गोत्थं वदन्ति विषमज्वरम् । ( माधव )