कौन जतन बिनती करिये ।
निज आचरन बिचारि हारि हिय, मानि-जानि डरिये ॥१॥
जेहि साधन हरि द्रवहु जानि जन, सो हठि परिहरिये ।
जात बिपति जाल निसिदिन दुख, तेहि पथ अनुसरिये ॥२॥
जानत हुँ मन बचन करम परहित कीन्हें तरिये ।
सो बिपरित, देखि परसुख बिनु कारन ही जरिये ॥३॥
स्त्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये ।
निज अभिमान मोह ईर्षा बस, तिनहि न आदरिये ॥४॥
संतत सोइ प्रिय मोहि सदा जाते भवनिधि परिये ।
कहौ अब नाथ ! कौन बलतें संसार-सोम हरिये ॥५॥
जब-कब निज करुना-सुभावतें द्रव्हु तौ निस्तरिये ।
तुलसीदास बिस्वास आन नहिं, कत पचि पचि मरिये ॥६॥