हरि ! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों ।
साधन-नाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों ॥१॥
कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार ।
तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार ॥२॥
बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक ।
ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक ॥३॥
कृपा डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु चारो ।
एहि बिधि बेगि हरहु मेरो दुख कौतुक राम तिहारो ॥४॥
हैं स्त्रुति बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरै ।
तुलसीदास यहि जीव मोह रजु, जोइ बाँध्यो सोइ छोरै ॥५॥