सकुचत हौं अति राम कृपानिधि क्यों करि बिनय सुनावौं ।
सकल धरम बिपरीत करत, केहि भाँति नाथ मन भावौं ॥१॥
जानत हौं हरि रूप चराचर, मैं हठि नैन न लावौं ।
अंजन-केस-सिखा जुवती तहँ लोचन सलभ पठावौं ॥२॥
स्त्रवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझों समुझावौं ।
तिन्ह स्त्रवननि परदोष निरंतर, सुनि-सुनि भरि-भरि तावौं ॥३॥
जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौं ।
तेहि मुख पर अपवाद भेक ज्यों, रटि रटि जनम नसावौं ॥४॥
'करहु ह्रदय अति बिमल बसहिं हरि', कहि कहि सबहिं सिखावौं ।
हौं निज उर अभिमान-मोह मद-खल मण्डली बसावौं ॥५॥
जो तनु धरि हरिपद साधहिं जन सो बिनु काज गवावौं ।
हाटक-घट भरि धर्यौ सुधा गृह तजि नभ कूप खनावौं ॥६॥
मन-क्रम-बचन लाइ कीन्हें अघ, ते करि जतन दुरावौं ।
पर-प्रेरित इरषा बस कबहुँक, किय कछु सुभ सो जनावौं ॥७॥
बिप्र द्रोह जनु बाँट परयो, हठि सबसों बैर बढ़ावौं ।
ताहू पर निज मति-बिलास सब संत माँझ गनावौं ॥८॥
निगम-सेस सारद निहोरि जो, अपने दोष कहावौ ।
तौ न सिराहि कलप सत लगि प्रभु, कहा एक मुख गावौं ॥९॥
जो करनी आपनी बिचारौं तौ कि सरन हौं आवौं ।
मृदुल सुभाव सील रघुपतिको, सो बल मनहिं दिखावौं ॥१०॥
तुलसीदास प्रभु सो गुन नहिं जेहि सपनेहुँ तुमहिं रिझावौं ।
नाथ कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौं ॥११॥