कुटुंब तजि सरन राम ! तेरी आयो ।
तजि गढ़ लंक, महल औ मंदिर,
नाम सुनत उठि धायो ॥ध्रु०॥
भरी सभामें रावन बैठ्यौ चरन प्रहार चलायो ।
मूरख अंध कह्यो नहिं मानै बार-बार समुझायो ॥
आवत ही लंकापति कीनो, हरि हँस कंठ लगायो ।
जनम-जनमके मिटे पराभव राम-दरस जब पायो ॥
हे रघुनाथ ! अनाथके बंधु दीन जान अपनायो ।
तुलसीदास रघुबीर सरनतें भगति अभय पद पायो ॥