काय सोचत बारोबारा । हरका नाम लेले गवांरा ॥ध्रु०॥
कछु पढा और कछु बाचा कछु सुना वेद पुरान ॥ हरका०॥१॥
जो पढे बाचे सूध होई उनकू सहेज मिले सांईरे ॥ हरका०॥२॥
पांच चोर मिल घर भाज्या घर लुटत देन उर संजोरे ॥ हरका०॥३॥
जिस घरपति भक्कम होई सो घर लूट न सके कोईरे ॥ हरका०॥४॥
ये तो बेली बेलि जिसे कहीये बांकी बेलत सिचन रहीये ॥ हरका०॥५॥
जब पानो फुलो फल लागा जब जनन मरन गये भागा ॥ हरका०॥६॥
जब दरपन मांजत रहिये तव मुखरा देखत पाईये ॥ हरका०॥७॥
जब दरपन चढी काठही पे तब दरशन किये न जाईये ॥ हरका०॥८॥
कछु किया न कछु कीजिये सांई आगु लेखा लीजिये ॥ हरका०॥९॥
जाकी करनिमे कुछ खुटे वाकूं पकर पकर जम लुटे ॥ हरका०॥१०॥
एक बेल हमारा खोरा बेल तेरा भाव भरा ॥ हरका०॥११॥
मैं बारबार पस्तानी तले किचर चोर उधर पानी ॥ हरका०॥१२॥
जाको जम सरिरको बेली सो क्यौं सोवे निंद बनेरा ॥ हरका०॥१३॥
जब पार उतरनहारे चाहिये तबकेवटसे मिल रहिये ॥ हरका०॥१४॥
जब उतरेगा ओह पारा तब हम तुम कौन संसारा ॥ हरका०॥१५॥
अंधारमें दीपक चाहिये तब वसत गोचर पायीये ॥ हरका०॥१६॥
जब वसत अगोचर पाई तब सेजे सोत समाई ॥ हरका०॥१७॥
बाजीघरमें बाजा बजाये सारी आलम तमाशेकू आये ॥ हरका०॥१८॥
बाजीघरमें बाजा जो खोला सो आपही आकेला ॥ हरका०॥१९॥
दास कबीरने जोग जाना जोग आना जोग माना ॥ हरका०॥२०॥
दास कबीर हरद्वार रीझे मुरख क्या जोग बुझे ॥२१॥