परखो शब्द निजसारा हंसा । परखो शब्द निज साराजी ॥ध्रु०॥
बिन परखे कोई पारन । पावे भूला जग संसाराजी ।
सबही संत मिलजो हरी कहावे । ना कोई पारख पाईजी ॥१॥
आयेथे बेपार करनेकूं । घरकी नुमा गमाई जी ।
बङे बङे साधु जन छानी बानी । राग भाग दोये किनीजी पर ॥२॥
आखर पारख कर लेना । मन माया नहीं चिनाजी ।
सुकदेव मुनीश्वर आतम चीना । आतम चीनी मायाजी पर०॥३॥
पर आतम अजपाजप चेते । नहे अछेर भेद नहीं पायाजी ।
अब तुम सुनो जव्हारी मोठा । खरा खोटा नहीं बुझेजी पर०॥४॥
सिव गोरख समान कोई जोगी । उनकू कौनही सुजेजी ।
जो कोई जगमें होवे हरी सो । या पदकु बुझेजी पर०॥५॥
कहे कबीर हम सबही देखो । सबही लोभको धायेजी ।
सतगुरु मिलें जिन पारख लखाई । ढीक ढौरत है सुजेजी ॥ परखो०॥६॥