श्रीकेशवस्वामी - भाग २५

केशवस्वामींनी मनोभावेंकरून आपल्या कार्यातून हिंदू जनतेस त्यांच्या ठिकाणी आपला धर्म, आपला देश, आपली संस्कृती, आपली भाषा इत्यादिकांसंबंधी जागॄत केले.


० पद ६१६ वें

जीने धनिका हुकुम किया । जीने बोधका प्याला लीया ।

जीने भेदकू गोश दिया । वो आपेही वासुदेव भया बे ॥ध्रु॥

यंउ आपे बिर वासुदेव बोले । ज्यो आनंद मद सूं झ्यूले ।

ज्यो ख्यालमें मिलकर खेले । वो जीवते मुजेसुं मीले बे ॥१॥

मा-बाप-बेटे-ज्योरू-लडके । सब देखत लोकन सरीके ।

गुण गावत गुरु नरहरके । हम सेवक हैं उस घ्ज्ञरके बे ॥२॥

ज्याकी ममता नास कर गई । ज्याकी माया सो मरकर रहीं ।

ज्यो अपस्कु समज्या सही । दास केशवको साहब वोही बे ॥३॥

यउं आप.

० पद ६१७ वें

गठी चोडा घरकू आया । घरका ममज पाया ॥ध्रु॥

पकड इसे पकड इसे । नंगाव ताव जीसे उसे ॥१॥

नारद कुंबा जी दीया । मनम गठडी छिनलिया ॥२॥

शुककू नंगा खुला किया । सुख में लीडा दिया ॥३॥

अपने रंग वो रंग जगावे । जगावने में जगन गावे ॥४॥

केशव सांई घरकू आया । घरका मालिक होकर रह्या ॥५॥

० पद ६१८ वें (राग -हुसेनी मुंढा)

धमक म्याने गमक मुढे गमक में चमक ।

चेमक म्याने ज्योति मुंढे ज्योतिमें झेमक ॥ध्रु॥

हारे मुंढे हुशार मुंढे देख मुंढे भाई ।

डोंगी नजर देखते बाबा नजिकई लाई ॥१॥

चद सुरीज मंद ज्याहा खिन्न भय तारे ।

सोही असल रूप बाबा देखनारे न्यारे ॥२॥

तेजबिना ज्योति मुंढ ज्योतबिना प्रकाश ।

रंगबिना रूप मुंढे रूपबिना बास ॥३॥

आगे भरपुर, पीछे भरपुर, भरपुर सब ले ठार ।

पुरा गुरुपाई यतो हरवख्त खुदीदार ॥४॥

वस्तादकी सौगंद मुजे हम तो बाबा हारे ।

कहत केशव गगन मगन सोई अल्ला के प्यारे ॥५॥

० पद ६१९ वें

चेटकनी बाला लटकती आवे । बोधका प्याला लेकर रही बेशक होकर गावे ॥१॥

दुनियाका धंदा सारा छोड दिया भाई । यखत्यारसुं नजर बडे साहेबसुं लाई ॥

निजानंद मदसुं भुली बिसर चेली काया । दिल्ल ज्यांहांसु धनीकुं मिली अब कहांकी माया ॥२॥

मकर बिना ख्याल करे हालमें मस्त माई ।

शकरगंज आजे केशवराज प्रभु पाई ॥३॥

० पद ६२० वें

परपुरुषकी चेटकी नारी नाचती निज्यानंद ।

बोधप्याला भरभर पीवे डुलती ब्रह्मानंद ॥ध्रु॥

नाचती दरबार चेटकी छ्य़ांडी सब काम ।

बार बार बोले राम रहीम यही नाम ॥१॥

सदसलीते शिरपर लीते विशम नहीं भावे ।

नित्यानंद गावत फिरे चेटकी भुली ज्यावे ॥२॥

चेटकदानी वख्तयानी आवे मेहरबानी ।

चिदजेरीना पेन सुख-साहेबका पछ्य़ानी ॥३॥

साहेब मेहेर धरे तब चेटकी ख्याल करे ।

मुसलं देहभाव बिसरी उसी ख्यालमें भरे ॥४॥

सद्गुरु पाया चेटका लाया चेटकी भई मस्त ।

कहत केशव उस मस्तीमें साहेब किया दस्त ॥५॥

० पद ६२१ वें

घर घर अमल सब जन खावे । सोखी न माही उतर ज्यावे ॥ध्रु॥

बाजी गिरी रंग दिखावे । ऐसा अंमल मुझे नहि भावे ॥१॥

तो गुरुका अमल खावो भाई । इस अमलकी बहुत मिठाई ॥

गुरुकृपें केशव लज्जत पाई । तो अपनी सुद आप गमाई ॥२॥

सद्गुरुनाथ अमलमस्त । उस अमलमें साहेब दस्त ॥

सिद्ध साधु खाते समस्त । तो घर बैठे पावे भिस्त ॥३॥

गुरुकृपें केशव अमलदार । अमल खाते अपना दीदार ॥

तुम लीज्यो भाई एकही बार । इस अमलकू चढना उतार ॥४॥

० पद ६२२ वें

तो सुनहो पंडता मेरी बात । आत्मतत्त्वकी केउ बखानु ज्यात ॥

निर्गुण ब्रह्म हम पढत हैं शास्त्र । तो फिर फिर कैसे गफलत खात ॥१॥

तो निर्गुण ब्रह्मकु तुम नही ज्याने । तो काहे बखाने शास्त्रके माने ॥

अपस्कों बिसरे आपस म्याने । देखत पंडत कैसे दिवाने ॥२॥

तो तत्त्वकी बात करे सब कोय । तत्त्व जाने सो विरला होय ॥

आपस्म्याने आप समावे । कहे केशव तत्त्वकु पावे ॥३॥

० पद ६२३ वें (राग - हुसेनी मुढा)

रामसुं राजी वो मेरा मन रामसुं राजी वो ॥

गरीबनवाजकी चाकरी लागी जेमकुं दीया बाजी ॥ध्रु॥

रघुपतसिंु नेह लागा । दिलका धोका सकल भागा ॥

निरंजनके चरणकमल । अचल किया ज्यागा ॥१॥

गुरुमुख सुराम दीठा । संसार-जंजाल तूटा ॥

कहत केशवराज कवी । लागीया रघुनाथ मीठा ॥२॥

० पद ६२४ वें (अडीच ताल)

बलाय ज्याउं मैं तेरे चरण उपरसुं ॥ध्रु॥

महबुब साहेब तूही । पिरतम तुज बाज नहीं ॥

हीरद-कमलमांही । तेरो ध्यान करती हूं ॥१॥

आनंद-घन मदन तात । कमलापति भुवननाथ ॥

देखत सब गलित गात ॥ बात केउं कहूं ॥२॥

कहत केशवराज कवी । तूंही धनी तूंही नबी ॥

भेद बीसरी तेरी छबी । मनमें धरती हूं ॥३॥

० पद ६२५ वें (कडके केशवाचे)

सर्वगताप्रती मती देई । निर्मन चिन्मन सुख घेईं ॥

सुखरूप मी विसरून हेंही । हे परमदशा निजनिर्वाहीं ॥१॥

मेरा मेरा दिलमें धरते है । बिशय बिश खा मरते हैं ॥

हरिचरण अंतरते हैं । वे जमके फांसे परते हैं ॥२॥

० पद ६२६ वें (उत्तरादि राग -केदार)

देखोरी भाई नंदकिशोर । श्यामसुंदर चित्त-नवनीतच्योर ॥ध्रु॥

दीनदयाकर त्रिभुवननाथ । खेलत गोविंद गोपीसंगात ॥१॥

सुखघन निर्गुण हरि अबिकारी । भगतकाज भयो सगुण मुरारी ॥२॥

आदिमध्यअंतरहित गोपाळ । केशवराज प्रभु परम कृपाळ ॥३॥

० पद ६२७ वें

लागी हो गोविंदासे पिरती ॥

हृदयकमलमें जबतब देखूं । परमसुंदर भरी श्यामकी मूरती ॥ध्रु॥

धनसुतसंपति कछु नहि भावत । निशिदिन सुखरूप हरिगुण गावत ॥१॥

आदिपुरुष हरि नंदका सुत । निरखत नयनो डरे जमदुत ॥२॥

आनंदघ्ज्ञन मनमोहनश्याम । कहत केशव मोकुं मिलिया राम ॥३॥

० पद ६२८ वें

आवो रे नंदा नंदन प्यारे ॥ध्रु॥

तन धन ज्योबन पतिसुतसंपति । भाव तनहि तुजबीन पियारे आ ॥१॥

आदिपुरुष तूं त्रिभुवननायक । शुकसनकादिक मुनिको सांई ॥२॥

जननमरणदुःख सखल निवारण । चरणकमलदल तेरो गुसाई ॥३॥

तुही मेरो माता तुही मेरो पिता । तुही मेरो भ्राता परम दयानिधी ॥४॥

केशवराज प्रभू तिहारे मिलनसुं । सकल सुखकी गती पाउंगी बीरधी ॥५॥

० पद ६२९ वें

आज मेरे घर आयो गोविंद राज्या ॥ध्रु॥

श्यामसुंदर कमलापति गिरिधर । बाजत धिमधिम नामको बाज्या ॥१॥

चंदनबिलेपित आंग सुहावत ॥ भाल कस्तुरीभा मुकुट बिराजित ॥२॥

पीतपटधारी गोकुलबिहारी । मदनमुरती प्राणनाथ मुरारी ॥३॥

भवदुःखवारण कंसाबिदारण । पतीततारण केशव नारायण ॥४॥

० पद ६३० वें

राम-सुमरिरण अभागी ॥ध्रु॥

त्रिभुवननाथ सीतापति राघव । हृदयकमल में धरीय अभागी ॥१॥

नवविध भजन गुरुमुख करीके । त्रिविधताप-दुःख हरीय अभागी ॥२॥

निशिदिन सुखघन रामचिंतनसु । अचलमोक्ष० पद चढिय अभागी ॥३॥

काहेकु उपजीय काहेकु मरीय । काहेकु काल कुंडरीय अभागी ॥४॥

कहत केशव राम पूर्ण मंगलधाम । समज भवार्णव तरीय अभागी ॥५॥

० पद ६३१ वें

ज्याहां ज्याय तहां माधो हय रे ॥ध्रु॥

ज्यो सुरत सुमरत वांकी । सब घट भरिया सोही रे बाबा ॥१॥

धरित्री आकाश सप्तही पाताल । आपही भरपुर रहीयो रे बाबा ॥२॥

खाली कठोर कहा कबहुं न देखो । देखत सब ज्यागा वोही रे बाबा ॥३॥

कसे करीय अबकहां ज्याईय । अंतर्बाह्य महाराज रे बाबा ॥४॥

केशो-प्रभुबिन ० पदारथ नहीं रे । सबही भेष आपे धरीयो रे बाबा ॥५॥

० पद ६३२ वें

ताली बजाऊं गाउं रामको नाम । और देवनसे नही मेरो काम ॥ध्रु॥

गलेमें तुलशी मनमे रो शाम । जित देखों तित रामही राम ॥१॥

अंदर राम बाहिर राम । राम बिना नहि खाली ठाम ॥२॥

केशव को प्रभु देखी पाई बिश्राम । भक्तबत्सल हय मेघश्याम ॥३॥

० पद ६३३ वें

रामही माता रामही पीता । राम भगिनी राम भ्राता रे ॥

धनसुतसंपति रामरमापति । आर नहीं मैं ध्याता रे बाबा ॥ध्रु॥

राम सगा मेरो राम सगा रे । राम बिना नही कोहु रे बाबा ॥

रामही जीवन राम परमधन । राम सकळ सुखदाता रे ॥१॥

हृदयकमल में रामही भरीया । ताथे बीसर गई दोउ रे बाबा ॥

राम दयानिधि दिनकर कुलदीप । रामचरण चित राता रे बाबा ॥२॥

केवल मुरती राम सदाफल । राम निरंजन सांई रे ॥

रामरसामृत केशव लेकर । रमत निजानंदमाही रे ॥३॥

० पद ६३४ वें

मन में गंगा मन में काशी । मन में सदाशिव गुरु अविनाशी ॥ध्रु॥

मनको मरम न जाने कोय । मन समजे सो विरला होय ॥१॥

मन में जेमुना मन में द्वारका । मन में ब्रिंदावन प्रभुहरी सारीखा ॥२॥

प्रिंड-ब्रह्मांड की मन में रचना । कहत केशव कन ब्रह्मही समजना ॥३॥

० पद ६३५ वें

राम सुमीरन करनाही रे बाबा ॥ध्रु॥

काम क्रोध मद मत्सर छांडको । यो भवसागर तरना रे बाबा ॥२॥

गमनागमन निवारण हरिगुण । गावत वैकुंठ-चरणा रे बाबा ॥३॥

ग्यानध्यानसुं अंग मिलरहणा । मन में दयानिधि भरणा रे बाबा ॥४॥

कहत केशव अब आवेगो मरणा । बिसरुं नको रघुनाथ

की चरणा ॥५॥

० पद ६३६ वें

आज राम मेरो मन में भरो रे ॥

देह.विदेह की सुद बिसरो रे । लोकलाज को काम सरो रे ॥ध्रु॥

शामसुंदर की रती मकुं लागी । और कछु समजत नही रे ॥

आसन बसन सबही भुल गई । रूप निरखिते थकित रही रे ॥१॥

प्रेमनीर अखियॉं झरत । रोम फरकते बुंद ढरे रे ॥

मै तो पिया के दर्शि मगन भई । मन माने कोउ कैसे कहो रे ॥२॥

अष्टभावसुं गात्र गळित मेरो । नाथजीने चित्त हर लीनो रे ॥

केशव प्रभुसुं निकट मिल रही । जेलमाही जैसे लवन गिरो रे ॥३॥

० पद ६३७ वें

महाराज कोण लीला धरे हो ॥ध्रु॥

अनंत ब्रह्मांड ज्याके उदर मों । सो सुखके कोण माहे परे हो ॥१॥

शेष बिरंची भजत है ज्याको । ज्या कारण मुनी नज्ञ फिरे हो ॥२॥

सो ठाकुर को मंतर छाकरे । देखि सदाशिव प्रेमभरे हो ॥३॥

ज्याकी माया जगत्र भुलाया । सो हरि आपे आजि भुले हो ॥४॥

केशव प्रभु की गत कोन जाने । अपने ख्याल में आप खेले हो ॥५॥

० पद ६३८ वें

आज मिलो पितांबर पीर ॥ध्रु॥

तुम ज्यात शरीर बिकल मेरो ॥ चित्त रहत नही क्षण एक थीर ॥१॥

तन मेरो जनमो मन भीमातीर ॥ हृदयमो धरीयो बिठल-पीर ॥२॥

केशव को प्रभु देखी शामसुंदर धीर ॥ नावे तो बाउगी करवत सीर ॥३॥

० पद ६३९ वें

तुम मेरे जियाके प्यारे । तुजविण भवदुःख कोण निवारे ॥ध्रु॥

तेरो नाम-सुमीरण जो कोही करे रे । तिनको ही जमकाल डरो रे ॥१॥

कहत केशव हम दास तिहारे । दरशन को हय प्यास पिया रे ॥२॥

० पद ६४० वें ( राग - गौडी)

क्या कहूं माई अब हरिसुख पाई । सकलही गति मेरी हरीने चुराई ॥ध्रु॥

हरिगुण-माला पेनी हूं मन में । हरिके चरण के थीर रहूं मधुबन में ॥१॥

निशिदिन मन में हरिसुं लगाई । हरिके भजनसुं प्राण जगाई ॥२॥

हरिसुं निबरी जनसुं मैं बिगरी । केशवसाही के संग सब बिसरी ॥३॥

० पद ६४१ वें

हरिरस-प्याला लेउं गी मैं

ज्यो मागे उसे भर देउं गी । निज मतवालीन होउंगी मैं ॥ध्रु॥

मदन गोपाल के गुण गाउं गी । कर बिन तालि बजाउं गी मैं ॥१॥

ब्रिंदावनकु चल जाउं गी । भक्तवछल रिझाउं गी मैं ॥२॥

बनमालीसुं मन लाउं गी । गले बनमाला बाउं गी मैं ॥३॥

केशवसांई की गति पाउं गी । पाउं गी फिर नाउं गी मैं ॥४॥

० पद ६४२ वें

मैं राम जपति हुं माई री मैं ॥ध्रु॥

आसनमुद्रा बहुत चेऱ्हाइ के । चरणसुं पीरत लगाई री ॥१॥

पति सुत मित गृह सकलही तजी के । संतन के घर आई री ॥२॥

तन धन ज्योबन कछु नहि भावत । भावत हरि सुखदायी री ॥३॥

कहत केशव कवि शामसुंदर-छबी । मती गती तहां मैं छपाई री ॥४॥

० पद ६४३ वें

मोहन के गुण गावति हुं मैं ॥ध्रु॥

अति सुखसागर नागर मुरती । नीरख नीरख सुख पावति हुं मैं ॥१॥

सुमरण किरतन करती हुं धनी को । मन में ध्यान लगावति हुं मैं ॥२॥

केवल निरमल निरंजन के संग । अंतररंग जे गावति हुं मैं ॥३॥

श्रवण मनन निजध्यास करी करी । ज्योतिसुं ज्योति मिलावत हुं मैं ॥३॥

नाम-नरूपन-रंग केशव प्रभु । निपटतां हाही समावति हुं मैं ॥५॥

० पद ६४४ वें

लालन सुं मेरी प्रित जरी हो ॥ध्रु॥

ज्यागति सोबति राम की मुरती । देखती हुं ज्याहां तहां खरी हो ॥१॥

साट धरीमो साई की बीसर । परत नही मकुं येक घरी हो ॥२॥

प्रेमनीर नयन बरसन लागो । लोकनसुं सब लाज उरी हो ॥३॥

काहा कहूं कछु कहने न आवे । शामबदन देख भुल लही हो ॥४॥

केशव को प्रभु गिरिधर नागर । चरणकमल वाके बिलगी परी हो ॥५॥

० पद ६४५ वें

लालच देखो मेरे लोचन की हो ॥ध्रु॥

जब तब लाल की मुरती देखत । अझ्युनही पुरत धन इनकी हो ॥१॥

केशव सांईके चरणसुं लीन भई । याद नही कछु तन-धन की ॥३॥

० पद ६४६ वें

नोबत बाजत है हरिनाम की । गलित भई गति सकलही काम की ॥५॥

मन में पैठी मुरत शाम की । फीत दुराई राजा राम की ॥१॥

ध्यान सी लेह कीय अष्ट ज्याम की । मंगल चाकरी केशव गुलाम की ॥२॥

० पद ६४७ वें

हम तो ब्रह्मभुवन के राजे । बोध दमामा जब तब बाजे ॥ध्रु॥

सत्य छत्तर शिर उपर बिराजे । आत्मज्ञानसुं भक्त न बाजे ॥१॥

कहत केशव रहे सुखरूप केवल । मार चेलाया सकल त्रिगुण दल ॥२॥

० पद ६४८ वें

बोध बिराज्यार घ्ज्ञर कुं बुलावूं । कामक्रोध कूं जहर पिलावूं ॥ध्रु॥

तोही सखी मैं संत की चेरी । बहुत क्या बोलूं बात घनेरी ॥१॥

चिंता वारूं ममता ज्यारूं । समतामाईके ० पदरज झ्यारूं ॥२॥

प्रेमभुवन में आसन बाउं । हृदयनिवासी के दरसन पाउं ॥३॥

सहजसमाधी के सेज बिछाउं । केशव सांईसुं मील मील ज्याऊं ॥४॥

० पद ६४९ वें

संतन मी मई बेटी हो बाबा ॥ध्रु॥

भजन-दाल ज्ञान-घृतसुं । खावती आनंद-रोटी हो बाबा ॥१॥

प्रेम निजामृत पीवत पीवती । बहुत पडी हय लाठी हो बाबा ॥२॥

ब्रह्मयोग से अचल सबल भरीय । काल की गती सब लोटी हो बाबा ॥३॥

अंदर की गत मेरी मैं समज्युं । समजत नही मेरी कोहु कसोटी ॥४॥

केशव साई के ० पदरंग माती । पिंडब्रह्मांड के मुजमे समेटी ॥५॥

० पद ६५० वें

संत की चाकरी कर रे बाबा ॥ध्रु॥

इस तन का क्या भरोसा । अब ज्यावेगा मर ॥१॥

निरंजन का सरूप समज । छोड दे कर कर ॥२॥

कहत केशव रामकु पाया । वो नर अमर ॥३॥ संत की.

० पद ६५१ वें

मेरे हात में दिया राम । मेरा मार चेलाया काम ॥ध्रु॥

लीजे उस धनी का नाम । कीजे बार बार सलाम ॥१॥

दिखलाकर बस्त । मेरे अंदर किया स्वस्थ ॥२॥

चित्० पद ईनाम दिया । केशव कूं न्याहल किया ॥३॥

० पद ६५२ वें

सौंसार मंडण सारा मार चेलाया । गरिब नवाजे रघुगज मैं पाया ॥ध्रु॥

डर चुका बे मेरा डर चुका बे । देवन का देव ‘राजाराम’ देख्या बे ॥१॥

काम का माबाप भेद काफर मुवा । कहत केशवराज बडा आनंद हुवा ॥२॥

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Last Updated : October 11, 2012

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