० पद ६१६ वें
जीने धनिका हुकुम किया । जीने बोधका प्याला लीया ।
जीने भेदकू गोश दिया । वो आपेही वासुदेव भया बे ॥ध्रु॥
यंउ आपे बिर वासुदेव बोले । ज्यो आनंद मद सूं झ्यूले ।
ज्यो ख्यालमें मिलकर खेले । वो जीवते मुजेसुं मीले बे ॥१॥
मा-बाप-बेटे-ज्योरू-लडके । सब देखत लोकन सरीके ।
गुण गावत गुरु नरहरके । हम सेवक हैं उस घ्ज्ञरके बे ॥२॥
ज्याकी ममता नास कर गई । ज्याकी माया सो मरकर रहीं ।
ज्यो अपस्कु समज्या सही । दास केशवको साहब वोही बे ॥३॥
यउं आप.
० पद ६१७ वें
गठी चोडा घरकू आया । घरका ममज पाया ॥ध्रु॥
पकड इसे पकड इसे । नंगाव ताव जीसे उसे ॥१॥
नारद कुंबा जी दीया । मनम गठडी छिनलिया ॥२॥
शुककू नंगा खुला किया । सुख में लीडा दिया ॥३॥
अपने रंग वो रंग जगावे । जगावने में जगन गावे ॥४॥
केशव सांई घरकू आया । घरका मालिक होकर रह्या ॥५॥
० पद ६१८ वें (राग -हुसेनी मुंढा)
धमक म्याने गमक मुढे गमक में चमक ।
चेमक म्याने ज्योति मुंढे ज्योतिमें झेमक ॥ध्रु॥
हारे मुंढे हुशार मुंढे देख मुंढे भाई ।
डोंगी नजर देखते बाबा नजिकई लाई ॥१॥
चद सुरीज मंद ज्याहा खिन्न भय तारे ।
सोही असल रूप बाबा देखनारे न्यारे ॥२॥
तेजबिना ज्योति मुंढ ज्योतबिना प्रकाश ।
रंगबिना रूप मुंढे रूपबिना बास ॥३॥
आगे भरपुर, पीछे भरपुर, भरपुर सब ले ठार ।
पुरा गुरुपाई यतो हरवख्त खुदीदार ॥४॥
वस्तादकी सौगंद मुजे हम तो बाबा हारे ।
कहत केशव गगन मगन सोई अल्ला के प्यारे ॥५॥
० पद ६१९ वें
चेटकनी बाला लटकती आवे । बोधका प्याला लेकर रही बेशक होकर गावे ॥१॥
दुनियाका धंदा सारा छोड दिया भाई । यखत्यारसुं नजर बडे साहेबसुं लाई ॥
निजानंद मदसुं भुली बिसर चेली काया । दिल्ल ज्यांहांसु धनीकुं मिली अब कहांकी माया ॥२॥
मकर बिना ख्याल करे हालमें मस्त माई ।
शकरगंज आजे केशवराज प्रभु पाई ॥३॥
० पद ६२० वें
परपुरुषकी चेटकी नारी नाचती निज्यानंद ।
बोधप्याला भरभर पीवे डुलती ब्रह्मानंद ॥ध्रु॥
नाचती दरबार चेटकी छ्य़ांडी सब काम ।
बार बार बोले राम रहीम यही नाम ॥१॥
सदसलीते शिरपर लीते विशम नहीं भावे ।
नित्यानंद गावत फिरे चेटकी भुली ज्यावे ॥२॥
चेटकदानी वख्तयानी आवे मेहरबानी ।
चिदजेरीना पेन सुख-साहेबका पछ्य़ानी ॥३॥
साहेब मेहेर धरे तब चेटकी ख्याल करे ।
मुसलं देहभाव बिसरी उसी ख्यालमें भरे ॥४॥
सद्गुरु पाया चेटका लाया चेटकी भई मस्त ।
कहत केशव उस मस्तीमें साहेब किया दस्त ॥५॥
० पद ६२१ वें
घर घर अमल सब जन खावे । सोखी न माही उतर ज्यावे ॥ध्रु॥
बाजी गिरी रंग दिखावे । ऐसा अंमल मुझे नहि भावे ॥१॥
तो गुरुका अमल खावो भाई । इस अमलकी बहुत मिठाई ॥
गुरुकृपें केशव लज्जत पाई । तो अपनी सुद आप गमाई ॥२॥
सद्गुरुनाथ अमलमस्त । उस अमलमें साहेब दस्त ॥
सिद्ध साधु खाते समस्त । तो घर बैठे पावे भिस्त ॥३॥
गुरुकृपें केशव अमलदार । अमल खाते अपना दीदार ॥
तुम लीज्यो भाई एकही बार । इस अमलकू चढना उतार ॥४॥
० पद ६२२ वें
तो सुनहो पंडता मेरी बात । आत्मतत्त्वकी केउ बखानु ज्यात ॥
निर्गुण ब्रह्म हम पढत हैं शास्त्र । तो फिर फिर कैसे गफलत खात ॥१॥
तो निर्गुण ब्रह्मकु तुम नही ज्याने । तो काहे बखाने शास्त्रके माने ॥
अपस्कों बिसरे आपस म्याने । देखत पंडत कैसे दिवाने ॥२॥
तो तत्त्वकी बात करे सब कोय । तत्त्व जाने सो विरला होय ॥
आपस्म्याने आप समावे । कहे केशव तत्त्वकु पावे ॥३॥
० पद ६२३ वें (राग - हुसेनी मुढा)
रामसुं राजी वो मेरा मन रामसुं राजी वो ॥
गरीबनवाजकी चाकरी लागी जेमकुं दीया बाजी ॥ध्रु॥
रघुपतसिंु नेह लागा । दिलका धोका सकल भागा ॥
निरंजनके चरणकमल । अचल किया ज्यागा ॥१॥
गुरुमुख सुराम दीठा । संसार-जंजाल तूटा ॥
कहत केशवराज कवी । लागीया रघुनाथ मीठा ॥२॥
० पद ६२४ वें (अडीच ताल)
बलाय ज्याउं मैं तेरे चरण उपरसुं ॥ध्रु॥
महबुब साहेब तूही । पिरतम तुज बाज नहीं ॥
हीरद-कमलमांही । तेरो ध्यान करती हूं ॥१॥
आनंद-घन मदन तात । कमलापति भुवननाथ ॥
देखत सब गलित गात ॥ बात केउं कहूं ॥२॥
कहत केशवराज कवी । तूंही धनी तूंही नबी ॥
भेद बीसरी तेरी छबी । मनमें धरती हूं ॥३॥
० पद ६२५ वें (कडके केशवाचे)
सर्वगताप्रती मती देई । निर्मन चिन्मन सुख घेईं ॥
सुखरूप मी विसरून हेंही । हे परमदशा निजनिर्वाहीं ॥१॥
मेरा मेरा दिलमें धरते है । बिशय बिश खा मरते हैं ॥
हरिचरण अंतरते हैं । वे जमके फांसे परते हैं ॥२॥
० पद ६२६ वें (उत्तरादि राग -केदार)
देखोरी भाई नंदकिशोर । श्यामसुंदर चित्त-नवनीतच्योर ॥ध्रु॥
दीनदयाकर त्रिभुवननाथ । खेलत गोविंद गोपीसंगात ॥१॥
सुखघन निर्गुण हरि अबिकारी । भगतकाज भयो सगुण मुरारी ॥२॥
आदिमध्यअंतरहित गोपाळ । केशवराज प्रभु परम कृपाळ ॥३॥
० पद ६२७ वें
लागी हो गोविंदासे पिरती ॥
हृदयकमलमें जबतब देखूं । परमसुंदर भरी श्यामकी मूरती ॥ध्रु॥
धनसुतसंपति कछु नहि भावत । निशिदिन सुखरूप हरिगुण गावत ॥१॥
आदिपुरुष हरि नंदका सुत । निरखत नयनो डरे जमदुत ॥२॥
आनंदघ्ज्ञन मनमोहनश्याम । कहत केशव मोकुं मिलिया राम ॥३॥
० पद ६२८ वें
आवो रे नंदा नंदन प्यारे ॥ध्रु॥
तन धन ज्योबन पतिसुतसंपति । भाव तनहि तुजबीन पियारे आ ॥१॥
आदिपुरुष तूं त्रिभुवननायक । शुकसनकादिक मुनिको सांई ॥२॥
जननमरणदुःख सखल निवारण । चरणकमलदल तेरो गुसाई ॥३॥
तुही मेरो माता तुही मेरो पिता । तुही मेरो भ्राता परम दयानिधी ॥४॥
केशवराज प्रभू तिहारे मिलनसुं । सकल सुखकी गती पाउंगी बीरधी ॥५॥
० पद ६२९ वें
आज मेरे घर आयो गोविंद राज्या ॥ध्रु॥
श्यामसुंदर कमलापति गिरिधर । बाजत धिमधिम नामको बाज्या ॥१॥
चंदनबिलेपित आंग सुहावत ॥ भाल कस्तुरीभा मुकुट बिराजित ॥२॥
पीतपटधारी गोकुलबिहारी । मदनमुरती प्राणनाथ मुरारी ॥३॥
भवदुःखवारण कंसाबिदारण । पतीततारण केशव नारायण ॥४॥
० पद ६३० वें
राम-सुमरिरण अभागी ॥ध्रु॥
त्रिभुवननाथ सीतापति राघव । हृदयकमल में धरीय अभागी ॥१॥
नवविध भजन गुरुमुख करीके । त्रिविधताप-दुःख हरीय अभागी ॥२॥
निशिदिन सुखघन रामचिंतनसु । अचलमोक्ष० पद चढिय अभागी ॥३॥
काहेकु उपजीय काहेकु मरीय । काहेकु काल कुंडरीय अभागी ॥४॥
कहत केशव राम पूर्ण मंगलधाम । समज भवार्णव तरीय अभागी ॥५॥
० पद ६३१ वें
ज्याहां ज्याय तहां माधो हय रे ॥ध्रु॥
ज्यो सुरत सुमरत वांकी । सब घट भरिया सोही रे बाबा ॥१॥
धरित्री आकाश सप्तही पाताल । आपही भरपुर रहीयो रे बाबा ॥२॥
खाली कठोर कहा कबहुं न देखो । देखत सब ज्यागा वोही रे बाबा ॥३॥
कसे करीय अबकहां ज्याईय । अंतर्बाह्य महाराज रे बाबा ॥४॥
केशो-प्रभुबिन ० पदारथ नहीं रे । सबही भेष आपे धरीयो रे बाबा ॥५॥
० पद ६३२ वें
ताली बजाऊं गाउं रामको नाम । और देवनसे नही मेरो काम ॥ध्रु॥
गलेमें तुलशी मनमे रो शाम । जित देखों तित रामही राम ॥१॥
अंदर राम बाहिर राम । राम बिना नहि खाली ठाम ॥२॥
केशव को प्रभु देखी पाई बिश्राम । भक्तबत्सल हय मेघश्याम ॥३॥
० पद ६३३ वें
रामही माता रामही पीता । राम भगिनी राम भ्राता रे ॥
धनसुतसंपति रामरमापति । आर नहीं मैं ध्याता रे बाबा ॥ध्रु॥
राम सगा मेरो राम सगा रे । राम बिना नही कोहु रे बाबा ॥
रामही जीवन राम परमधन । राम सकळ सुखदाता रे ॥१॥
हृदयकमल में रामही भरीया । ताथे बीसर गई दोउ रे बाबा ॥
राम दयानिधि दिनकर कुलदीप । रामचरण चित राता रे बाबा ॥२॥
केवल मुरती राम सदाफल । राम निरंजन सांई रे ॥
रामरसामृत केशव लेकर । रमत निजानंदमाही रे ॥३॥
० पद ६३४ वें
मन में गंगा मन में काशी । मन में सदाशिव गुरु अविनाशी ॥ध्रु॥
मनको मरम न जाने कोय । मन समजे सो विरला होय ॥१॥
मन में जेमुना मन में द्वारका । मन में ब्रिंदावन प्रभुहरी सारीखा ॥२॥
प्रिंड-ब्रह्मांड की मन में रचना । कहत केशव कन ब्रह्मही समजना ॥३॥
० पद ६३५ वें
राम सुमीरन करनाही रे बाबा ॥ध्रु॥
काम क्रोध मद मत्सर छांडको । यो भवसागर तरना रे बाबा ॥२॥
गमनागमन निवारण हरिगुण । गावत वैकुंठ-चरणा रे बाबा ॥३॥
ग्यानध्यानसुं अंग मिलरहणा । मन में दयानिधि भरणा रे बाबा ॥४॥
कहत केशव अब आवेगो मरणा । बिसरुं नको रघुनाथ
की चरणा ॥५॥
० पद ६३६ वें
आज राम मेरो मन में भरो रे ॥
देह.विदेह की सुद बिसरो रे । लोकलाज को काम सरो रे ॥ध्रु॥
शामसुंदर की रती मकुं लागी । और कछु समजत नही रे ॥
आसन बसन सबही भुल गई । रूप निरखिते थकित रही रे ॥१॥
प्रेमनीर अखियॉं झरत । रोम फरकते बुंद ढरे रे ॥
मै तो पिया के दर्शि मगन भई । मन माने कोउ कैसे कहो रे ॥२॥
अष्टभावसुं गात्र गळित मेरो । नाथजीने चित्त हर लीनो रे ॥
केशव प्रभुसुं निकट मिल रही । जेलमाही जैसे लवन गिरो रे ॥३॥
० पद ६३७ वें
महाराज कोण लीला धरे हो ॥ध्रु॥
अनंत ब्रह्मांड ज्याके उदर मों । सो सुखके कोण माहे परे हो ॥१॥
शेष बिरंची भजत है ज्याको । ज्या कारण मुनी नज्ञ फिरे हो ॥२॥
सो ठाकुर को मंतर छाकरे । देखि सदाशिव प्रेमभरे हो ॥३॥
ज्याकी माया जगत्र भुलाया । सो हरि आपे आजि भुले हो ॥४॥
केशव प्रभु की गत कोन जाने । अपने ख्याल में आप खेले हो ॥५॥
० पद ६३८ वें
आज मिलो पितांबर पीर ॥ध्रु॥
तुम ज्यात शरीर बिकल मेरो ॥ चित्त रहत नही क्षण एक थीर ॥१॥
तन मेरो जनमो मन भीमातीर ॥ हृदयमो धरीयो बिठल-पीर ॥२॥
केशव को प्रभु देखी शामसुंदर धीर ॥ नावे तो बाउगी करवत सीर ॥३॥
० पद ६३९ वें
तुम मेरे जियाके प्यारे । तुजविण भवदुःख कोण निवारे ॥ध्रु॥
तेरो नाम-सुमीरण जो कोही करे रे । तिनको ही जमकाल डरो रे ॥१॥
कहत केशव हम दास तिहारे । दरशन को हय प्यास पिया रे ॥२॥
० पद ६४० वें ( राग - गौडी)
क्या कहूं माई अब हरिसुख पाई । सकलही गति मेरी हरीने चुराई ॥ध्रु॥
हरिगुण-माला पेनी हूं मन में । हरिके चरण के थीर रहूं मधुबन में ॥१॥
निशिदिन मन में हरिसुं लगाई । हरिके भजनसुं प्राण जगाई ॥२॥
हरिसुं निबरी जनसुं मैं बिगरी । केशवसाही के संग सब बिसरी ॥३॥
० पद ६४१ वें
हरिरस-प्याला लेउं गी मैं
ज्यो मागे उसे भर देउं गी । निज मतवालीन होउंगी मैं ॥ध्रु॥
मदन गोपाल के गुण गाउं गी । कर बिन तालि बजाउं गी मैं ॥१॥
ब्रिंदावनकु चल जाउं गी । भक्तवछल रिझाउं गी मैं ॥२॥
बनमालीसुं मन लाउं गी । गले बनमाला बाउं गी मैं ॥३॥
केशवसांई की गति पाउं गी । पाउं गी फिर नाउं गी मैं ॥४॥
० पद ६४२ वें
मैं राम जपति हुं माई री मैं ॥ध्रु॥
आसनमुद्रा बहुत चेऱ्हाइ के । चरणसुं पीरत लगाई री ॥१॥
पति सुत मित गृह सकलही तजी के । संतन के घर आई री ॥२॥
तन धन ज्योबन कछु नहि भावत । भावत हरि सुखदायी री ॥३॥
कहत केशव कवि शामसुंदर-छबी । मती गती तहां मैं छपाई री ॥४॥
० पद ६४३ वें
मोहन के गुण गावति हुं मैं ॥ध्रु॥
अति सुखसागर नागर मुरती । नीरख नीरख सुख पावति हुं मैं ॥१॥
सुमरण किरतन करती हुं धनी को । मन में ध्यान लगावति हुं मैं ॥२॥
केवल निरमल निरंजन के संग । अंतररंग जे गावति हुं मैं ॥३॥
श्रवण मनन निजध्यास करी करी । ज्योतिसुं ज्योति मिलावत हुं मैं ॥३॥
नाम-नरूपन-रंग केशव प्रभु । निपटतां हाही समावति हुं मैं ॥५॥
० पद ६४४ वें
लालन सुं मेरी प्रित जरी हो ॥ध्रु॥
ज्यागति सोबति राम की मुरती । देखती हुं ज्याहां तहां खरी हो ॥१॥
साट धरीमो साई की बीसर । परत नही मकुं येक घरी हो ॥२॥
प्रेमनीर नयन बरसन लागो । लोकनसुं सब लाज उरी हो ॥३॥
काहा कहूं कछु कहने न आवे । शामबदन देख भुल लही हो ॥४॥
केशव को प्रभु गिरिधर नागर । चरणकमल वाके बिलगी परी हो ॥५॥
० पद ६४५ वें
लालच देखो मेरे लोचन की हो ॥ध्रु॥
जब तब लाल की मुरती देखत । अझ्युनही पुरत धन इनकी हो ॥१॥
केशव सांईके चरणसुं लीन भई । याद नही कछु तन-धन की ॥३॥
० पद ६४६ वें
नोबत बाजत है हरिनाम की । गलित भई गति सकलही काम की ॥५॥
मन में पैठी मुरत शाम की । फीत दुराई राजा राम की ॥१॥
ध्यान सी लेह कीय अष्ट ज्याम की । मंगल चाकरी केशव गुलाम की ॥२॥
० पद ६४७ वें
हम तो ब्रह्मभुवन के राजे । बोध दमामा जब तब बाजे ॥ध्रु॥
सत्य छत्तर शिर उपर बिराजे । आत्मज्ञानसुं भक्त न बाजे ॥१॥
कहत केशव रहे सुखरूप केवल । मार चेलाया सकल त्रिगुण दल ॥२॥
० पद ६४८ वें
बोध बिराज्यार घ्ज्ञर कुं बुलावूं । कामक्रोध कूं जहर पिलावूं ॥ध्रु॥
तोही सखी मैं संत की चेरी । बहुत क्या बोलूं बात घनेरी ॥१॥
चिंता वारूं ममता ज्यारूं । समतामाईके ० पदरज झ्यारूं ॥२॥
प्रेमभुवन में आसन बाउं । हृदयनिवासी के दरसन पाउं ॥३॥
सहजसमाधी के सेज बिछाउं । केशव सांईसुं मील मील ज्याऊं ॥४॥
० पद ६४९ वें
संतन मी मई बेटी हो बाबा ॥ध्रु॥
भजन-दाल ज्ञान-घृतसुं । खावती आनंद-रोटी हो बाबा ॥१॥
प्रेम निजामृत पीवत पीवती । बहुत पडी हय लाठी हो बाबा ॥२॥
ब्रह्मयोग से अचल सबल भरीय । काल की गती सब लोटी हो बाबा ॥३॥
अंदर की गत मेरी मैं समज्युं । समजत नही मेरी कोहु कसोटी ॥४॥
केशव साई के ० पदरंग माती । पिंडब्रह्मांड के मुजमे समेटी ॥५॥
० पद ६५० वें
संत की चाकरी कर रे बाबा ॥ध्रु॥
इस तन का क्या भरोसा । अब ज्यावेगा मर ॥१॥
निरंजन का सरूप समज । छोड दे कर कर ॥२॥
कहत केशव रामकु पाया । वो नर अमर ॥३॥ संत की.
० पद ६५१ वें
मेरे हात में दिया राम । मेरा मार चेलाया काम ॥ध्रु॥
लीजे उस धनी का नाम । कीजे बार बार सलाम ॥१॥
दिखलाकर बस्त । मेरे अंदर किया स्वस्थ ॥२॥
चित्० पद ईनाम दिया । केशव कूं न्याहल किया ॥३॥
० पद ६५२ वें
सौंसार मंडण सारा मार चेलाया । गरिब नवाजे रघुगज मैं पाया ॥ध्रु॥
डर चुका बे मेरा डर चुका बे । देवन का देव ‘राजाराम’ देख्या बे ॥१॥
काम का माबाप भेद काफर मुवा । कहत केशवराज बडा आनंद हुवा ॥२॥