मतंग II. n. एक महर्षि, जिसके मतंगाश्रम का निर्देश महाभारत में प्राप्त है
[म.व.८२.४२३ पंक्ति ३] । सम्भव है, मतंगकेदार नामक तीर्थशान का नामकरण इसीके नाम पर किया गया हो
[म.व.८३.१७] ।
मतंग III. n. एक तपस्वी, जिसकी व्यभिचरिणी ब्राह्मणी मॉं ने एक नाई के साथ संभोग करके इसे जन्म दिया था । अपने इस दूषित जन्म के कलंक को धोने के लिए, इसने आजीवन तपस्या की, किन्तु यह इस दोष से मुक्त न हो सका ।‘वंशानुक्रम से प्राप्त कलंक किसी प्रकार मिटाया नहीं जा सकता,’ इसी सत्य को प्रमाणित करने के लिए महाभारत में इसकी निम्न कथा दी गयी है
[म.अनु.२७-२९] ।
मतंग III. n. एक बार इसके ब्राह्मण पिता ने इसे यज्ञ करने के लिए जंगल से समिधा तथा दर्भ लने को कहा । पिता की आज्ञा को मानकर, गाडी में एक गर्दभी एवं उसके बच्चे को जोतकर यह जंगल की ओर चल पडा । राह में गर्दभी का बच्चा छोटा होने के कारण मॉं के बराबर न चल पा रहा था, जिससे क्रोधित हो कर इसने उस बच्चे के नाक पर लगातार चाबुक से कई चोटें की । गर्दभी का बच्चा चोटों से जख्मी हो गया, एवं दर्दपीडा में विह्रल होकर मॉं की ओर देखने लगा । तब गर्दभी ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा, ‘ब्राह्मण दयालु होते है, तथा चाण्डाल क्रूर । यह अपना जाति के अनुसार, तुमसे व्यवहार कर रहा है, इस लिए तुम्हें सहना ही पडेगा’। गर्दभी की इस बात को सुनक इसने तत्काल पूछा, ‘मैं ब्राह्मण हूँ, मेरे माता-पिता ब्राह्मण है, तब मै चाण्डाल कैसे हुआ? मैने किसे प्रकार अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया है, और मैं आज चाण्डाल हूँ?’ । तब गर्दभी ने बताया, तुम्हें ‘जन्म देनेवाला पिता एक नाई था, जो तुम्हारा माता क पति न था । अतएव तुम ब्राह्मण कहा से हुए, और तुममें ब्राह्मणत्व कहॉं?।
मतंग III. n. इस कथा को सुन कर यह तत्काल घर आया, और अपने पिता को अपने जन्म की कहानी बताकर, ब्राह्मणत्वप्राप्त करने के लिए तपस्या के लिए चल पडा । इसकी तपस्या से प्रसन्न होकर इन्द्र ने इसे दर्शन दिया, किन्तु इसके द्वारा ब्राह्मणत्व मॉंगे जाने पर इन्द्र ने कहा, ‘चांडालयोनि में उत्पन्न को ब्राह्मणत्व मिलना असम्भव है’। तब इसने एक पैर पर खडे होकर सौ वर्षौं तक और तपस्या की । किन्तु इन्द्र ने फिर प्रकट होकर यही कहा, ‘अप्राप्य वस्तु की कामना करना व्यर्थ है । ब्राह्मणत्व सरलता से नहीं प्राप्त होता, उसके प्राप्त करने के लिए अनेक जन्म लेने पडते है ’। किन्तु यह इन्द्रं के उत्तर से सन्तुष्ट न हुआ, और गया में जा कर अंगूठे के बल खडे होकर, इसने पुनःसौ वर्षों तक ऐसी तपस्या की, कि केवल अस्थिपंजर ही शेष बचा । अन्त में इन्द्र ने इसे पुन दर्शन दिया और कहा, ‘ब्राह्मणत्व छोडकर तुम कुछ भी मॉंग सकते हो’। तब इसने इन्द्र से निम्नलिखित वर प्राप्त कियेः---मनचाही जगहों पर विहार करना, जो चाहे वह रुप लेना, आकाशगामी होना, ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के लिए पूज्य होना, एवं अक्शय कीर्ति की प्राप्ति करना । इन्द्र ने इसे यह भी वर दिया, ‘स्त्रियॉं ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए तुम्हारी पूजा करेंगी, एवं छन्दोदेव नाम से तुम उन्हे पूज्य होगे।’ आगे चलकर मतंग ने देहत्याग किया, एवं इन्द्र से प्राप्त वरों के बल पर, यह समस्त मानवजाति के लिए पूज्य बना ।
मतंग IV. n. एक आचार्य, जो दाशरथि राम को फल देनेवाले शबरी का गुरु था
[वा.रा.अर.७४] ।
मतंग V. n. इक्ष्वाकुवंशीय राजा त्रिशंकु का नामांतर
[म.आ.६५.३१-३४] । वसिष्ठ ऋषि के पुत्रों के शाप के कारण, त्रिशकुं को मतंग-अवस्था प्राप्त हुयी, जिस कारण उसे यह नाम प्राप्त हुआ (त्रिशंकु देखिये) ।