साहब मेरे राम हैं, मैं उनकी दासी;
जो बान्या सो बन रह्या, आज्ञा अबिनासी ।
अरध उरध षट कँवल बिच, करतार छिपाया;
सतगुरु मिल किरपा करी, कोइ बिरले पाया ।
तीन लोक, चौदह भुवन, केवल वह भरपूरा;
हाजिराँसे हाजिर सदा, वह दूराँसे दूरा ।
पाप-पुन्य दोउ रूप हैं, उनहींकी माया;
साधनके बरतन सदा, भरमै भरमाया ।
जन 'दरिया' इक राम भज, भजबेकी बारा;
जिन यह भार उठाइया, उनके सिर भारा ।