चल-चल रे हंसा, राम-सिंध, बागड़में क्या तू रह्यो बन्ध ॥
जहँ निर्जल धरती, बहुत धूर, जहँ साकित बस्ती दूर-दूर ।
ग्रीषम ऋतुमेम तपै भौम, जहँ आतम दुखिया रोम-रोम ॥
भूख प्यास दुख सहै आन, जहँ मुक्ताहल नहि खान-पान ।
जउवा नारू दुखित रोग, जहँ मैं तैं बानी हरष-सोग ॥
माया बागड़ बरनी येह, अब राम-सिन्ध बरनूँ सुन लेह ।
अगम अगोचर कथ्या न जाय, अब अनुभवमाहीं कहूँ सुनाय ॥
अगम पंथ है राम-नाम, गिरह बसौ जाय परम धाम ।
मानसरोवर बिमल नीर, जहँ हंस-समागम तीर-तीर ॥
जहँ मुक्ताहल बहु खान-पान, जहँ अवगत तीरथ नित सनान ।
पाप-पुन्यकी नहीं छोत, जहँ गुरु-सिष-मेला सहज होत ॥
गुन इन्द्री मन रहे थाक, जहँ पहुँच न सकते बेद-बाद ।
अगम देस जहँ अभयराय, जन दरिया, सुरत अकेली जाय ॥