जो सुमुरूँ तौ पूरन राम,
अगम अपार, पार नहिं जाको, है सब संतनका बिसराम ।
कोटि बिस्नु जाके अगवानी, संख चक्र सत सारँगपानी ॥
कोटि कारकुन बिधि कर्मधार, परजापति मुनि बहु बिस्तार ।
कोटि काल संकर कोतवाल, भैरव दुर्गा धरम बिचार ॥
अनंत संत ठाढ़े दरबार, आठ सिधि नौ निधि द्वारपाल ।
कोटि बेद जाको जस गावैं, विद्या कोति जाको पार न पावैं ॥
कोटि अकास जाके भवन दुवारे, पवन कोटि जाके चँवर ढुरावै ।
कोटि तेज जाके तपै रसोय, बरुन कोटि जाके नीर समोय ॥
पृथी कोटि फुलबारि गंध, सुरत कोटि जाके लाया ब्म्ध ।
चंद सूर जाके कोटि चिराग, लक्षमी कोटि जाके राँधै पाग ॥
अनंत संत और खिलवत खाना, लख-चौरासी पलै दिवाना ।
कोटि पाप काँपैं बल छीन, कोटि धरम आगे आधीन ॥
सागर कोटि जाके कलसधार, छपन कोटि जाके पनिहार ।
कोटि सन्तोष जाके भरा भंडार, कोटि कुबेर जाके मायाधार ॥
कोटि स्वर्ग जाके सुखरूप, कोटि नर्क जाके अंधकूप ।
कोटि करम जाके उत्पतिकार, किला कोटि बरतावनहार ॥
आदि अंत मद्ध नहिं जाको, कोई पार न पावै ताको ।
जन दरियाका साहब सोई, तापर और न दुजा कोई ॥