मुरली कौन बजावै हो, गगन-मँडलके बीच ॥
त्रिकुटी-संगम होयकर, गंग-जमुनके घाट ।
या मुरलीके सब्दसे, सहज रचा बैराट ॥
गंग-जमुन-बिच मुरली बाजै, उत्तम दिसि धुन होहि ।
वा मुरलीको टेरहि सुन-सुन रहीं गोपिका मोहि ॥
जहँ अधर डाली हंसा बैठा, चूगत मुक्ता हीर ।
आनँद चकवा केल करत है, मानसरोवर-तीर ॥
सब्द धुन मिरदंग बजत है; बारह मास बसंत ।
अनहद ध्यान अखंड आतुर वै, धारत सब ही संत ॥
कान्ह गोपी करत नृत्यहिं, चरन बपु ही बिना ।
नैन बिन 'दरियाव' देखै, आनँदरुप घना ।