हे प्रिपुरारि ! मेरा ह्रदय मदमस्त हाथी जैसा है । इसे धैर्य के दृढ़ अंकुश से , शीघ्र ही जोर से खींचकर भक्तिरुपी श्रृंखला से , ब्रह्यज्ञान की बेड़ियाँ डालकर आपके चरणों के खंभे से बाँध दीजिये । ॥९६॥
हे परमेश्वर ! मेरा मन अत्यंत बलवान मदमस्त हाथी के समान है । यह बड़ा उद्दंड होकर इधर -उधर , चारों ओर , घूमता है । इसे चतुराई से वश में कर , भक्तिरुपी रस्सी से दृढ स्थान (स्थाणुपदं का अर्थ शिव के चरण भी है ) पर ले जाइये । ॥९७॥
( यह बड़ा सुन्दर और महत्वपूर्ण पद है । इसमें आचार्य नवयौवना कमनीय कन्या के साड्र . रुपक द्वारा इस स्तोत्र के गुणों का वर्णन कर रहे हैं । शब्दार्थ में सौभाग्यकांक्षिणी कन्या के गुणॊं का वर्णन है । यहाँ कविता के गुण बताये जा रहे हैं ।
हे गौरीशड्क .र देव , मेरी इस कविता -स्तोत्र -को स्वीकार कीजिये । यह शब्दालंकार और अर्थालंकारों से युक्त है। इसकी सरल शैली है । इसके सीधी वृत्ति है । इसमें उपयुक्त वृत्त हैं । उत्तम वर्ण हैं । इसकी मनीषियों ने प्रशंसा की है । इसमें नवरसों के गुण हैं । इसका उद्देश्य शुभ है । यह काव्य लक्षणॊं से युक्त है । उज्ज्वल विशेषताओं वाली है , और इसकी कोमल गति है । इसकी अर्थसारिणी बड़ी महत्त्वपूर्ण है । यह पाठकों के लिये कल्याणकारी है । ॥९८॥
हे करुणासागर परमकल्याणकारी शिव ! क्या आपके लिये यह उचित है कि आपके पैर और शिर का दर्शन करने की कामना से ब्रह्या और विष्णु को हंस और शूकर का टेढ़ा रुप धारण करना पड़ा।
तब भी वे आकाश और पृथ्वी के भीतर ढूँढ़ते -ढूँढ़ते थक गये । शंभो स्वामी ! आप ही बताइये कि मेरे समक्ष आप किस भाँति प्रकट होंगे । ॥९९॥
अब स्तोत्र की समाप्ति । मैं बढ़ा -चढ़ा कर असत्य बात नहीं कह रहा हूँ । आपके सेवक ब्रह्या आदि देवता जब स्तुतियोग्यों की गणना करने लगे तो आपको ही अग्रगण्य स्वीकार किया । माहात्म्य में अग्रणी -प्रथमपूज्य -के विचार प्रकरण में दुसरे देवता धान के भूसे के समान उड़ गये , व्यर्थ समझे गये । शंभो आपको ही उत्तमोत्तम फल आदर्श -स्वीकार किया गया । ॥१००॥