हे पशुपति ! क्या यह आपका अद्वितीय परम उपकार पर्याप्त नहीं है कि जिस कालकूट विष के समुद्र से निकलते ही देवता भाग खड़े हुए थे , उसे आपने , अपने पेट में स्थित जड़ -चेतन गण को देखकर , और बाहर के प्राणियों की रक्षा के लिये न निगला न उगला । वह बड़ा तप्त और भयावह विष था। ॥३१॥
भगवान् शिव के परम प्रसिद्व अद्बभुत विषपान की कथा से प्रभावित भक्त आश्चर्यचकित हैं । उन्होंने ऐसे भयंकर हलाहल को कैसे देखा होगा , कैसे हाथ में लेकर हथेली पर रखकर जिह्रा से गले में उतारा होगा ? किन्तु ऐसे गले में रखकर तो भगवान् शिवशंकर नीलग्रीव , या यों कहें , श्रीग्रीव हो गये। यह विष उनके लिय नीलमणि विभूषण बन गया । ॥३२॥
का वा मुक्तिरित ः कुतो भवति चेत्किं प्रार्थनीयं तदा ॥३३॥
हे स्वामी देवदेव ! क्या मेरे जैसे आपके भक्तों के लिये यह पर्याप्त नहीं है कि वे , केवल एकबार , आपके सेवा , आपके सम्मुख नमन , नृत्य करलें , आपकी पूजा करलें , आपका नाम -स्मरण कर लें , आपकी कथा सुन लें , अथवा आपके दर्शन कर लें । अल्पकालीन देवताओं की सेवा करने से , उनके अनुसरण का प्रयास करने से क्या मिलेगा ? इस भक्ति के अतिरिक्त मुक्ति और क्या है , और किस चीज के लिये प्रार्थना की जाय ॥३३॥
हे प्राणियों के स्वामी ! आपके जैसे साहस और धैर्य का वर्णन कैसे करें ? ऐसी आत्मनिष्ठ स्थिति दूसरे लोग कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? महाप्रलय के समय जब देवगण स्थानच्युत होने लगते हैं , मुनिगण भयभीत हो जाते हैं , और यह सारा जगत्प्रपच्च नष्ट होने लगता है , तो केवल आप ही अकेले निर्भय होकर उसे आनन्दमग्न देखते रहते हैं । ॥३४॥
हे शंभॊ (हे शिवशंकर ! ) आप योग और क्षेम का वहन करने वाले हैं । समस्त ज्ञात और अज्ञात हितों को प्रदान करने के लिये सदा तत्पर रहते हैं । बाहर और भीतर सर्वत्र व्याप्त हैं । सब कुछ जानने वाले हैं , और परम दयालु हैं । फिर , ऐसी अवस्था में , मेरे द्वारा आपको बताने के लिये क्या रह जाता हैं ? आप मेरे घनिष्ट हितैषी हैं -में सदा -रातदिन -यहीं विचार करता रहता हूँ । ॥३५॥