हे भव ! (भगवान् शिव !) मनुष्य विद्याध्ययन करने वाला ब्रह्यचारी हो , गृहस्थ हो , वानप्रस्थी यति हो , सन्यासी हो , अथवा इनसे भी अलग कोई और हो -कोई भी हो , इससे क्या होता है ? यदि , हे पशुपति ! उसका ह्रदय -कमल आपके अधीन हो तो आप उसके हो जाते हैं , और उसका सांसारिक भार स्वयं वहन करते हैं । ॥११॥
कोई भले ही घर में रहे , चाहे बाहर रहे , वनों में रहे चाहे पर्वतों की चोटियों पर , पानी में रहे चाहे अग्नि में -कही भी निवास करे । बताइये निवास -स्थान का क्या महत्व है । हे शिवशंकर ! यदि किसी का अन्त :करण सदा आपके चरणॊं में स्थित है , जो आपका अनन्य भक्त है , तो वही योग है , वह भक्त ही परमयोगी और परमसुखी है । ॥१२॥
अपनी जड़ता के कारण संसार में आने -जाने के व्यर्थ चक्कर में पडा हुआ , और आपके भजन से दुर मुझ विवेकहीन अंधे पर आप भक्त वत्सल की कृपा उचित ही है । मुझ जैसा दीन -मलीन और आप जैसा दीन -दुखियों की रक्षा करने में निपुण , हे पशुपति ! और कहाँ मिलेगा ॥१३॥
हे प्रभो ! आप दीनों के परम हितकारी बन्धु हैं । हे पशुपति ! दीन -दुखियों में मैं अग्रगण्य हूँ । यह बन्धुत्व का कैसा संयोग है ! इसलिए , हे शिव ! मेरे समस्त अपराध आप द्वारा क्षमा करने योग्य है | यदि कुछ कठिनाई भी हो , कुछ प्रयत्न भी करना पडे , तो भी मेरी रक्षा का भार आप पर है । बन्धुओं में सम्बन्धों की यही रीति प्रचलित है । ॥१४॥
हे प्रभो पशुपति ! ऐसा लगता है कि आप मेरी ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं । यदि ऐसा नहीं होता तो आप मेरी उस भाग्य -लिपी को क्यों नही मिटाते जिसमें आपके ध्यान से विमुख होना , और बुरी -बुरी कामनाएँ करना लिखा है। आप यह नहीं कर सकते यह तो संभव नहीं है । यह सर्वविदित है कि आपने सहजभाव से , विना किसी प्रयत्न किये , ब्रह्या का वह पाँचवाँ मस्तक हाथ के नाखूनों से नोंच कर अलग कर दिया था । ॥१५॥