भाग्य -विधाता ब्रह्या चिरायु हों , उनके बचे हुए चार शिर रक्षा करने योग्य हैं । उन्होंने तो इस संसार में दु ःख ही दु ःख लोगों के भाग्य में लिखे हैं । लेकिन चिन्ता की कोई बात नहीं । हे शिवशम्भो ! आप का कृपा -कटाक्ष तो अपने -आप ही दीन -दुखियों की रक्षा में तत्पर रहता है । ॥१६॥
हे सर्वव्यापी परमेश्वर ! मेरे पुण्यों के फलस्वरुप अथवा मेरे ऊपर आपकी कृपा के कारण , आपके प्रसन्न होने पर भी , आपके दिव्य चरण कमलों को मैं कैसे देखूँ ? स्वामी ! आपकी वन्दना में पंक्तिवद्व देवताओं के सोने और लालमणियों से जुड़े मुकुटों की चकाचौंध मुझे आपके -चरण कमलों का दर्शन करने से रोकती है । ॥१७॥
हे परमेश्वर शिव ! लोगों के लिये परमफल -मुक्ति -केवल आप ही प्रदान करते हैं । विश्णु आदि देवगण , आपसे दिव्य पदवी प्राप्त कर , और अधिक ऊँची पदवी के लिये , फिर प्रार्थना करते हैं । आपकी कितनी बड़ी दयालुता है , और मेरी कितनी बड़ी अभिलाषा ! अपनी करुणाभरी दृष्टि से मेरी ओर कब आपका कृपाकटाक्ष होगा , और मेरी रक्षा का भार आप कब स्वीकार करेंगे ॥१८॥
हे शिवशंकर ! यह संसार दुर्वासनाओं से भरा है । यहाँ दुर्जन स्वामियों के द्वार पर माथा टेकना पड़ता है । इसका कोई अन्त नहीं है (अथवा इसका दुःख में अन्त होता है, यह आपदाओं का घर है , और दुःख उत्पन्न करनेवाला है । ऐसी अवस्था में आप मेरा दुःख , किसे उपकृत करने के लिये , दूर नहीं कर रहे हैं ? बताइये यदि मेरी यही स्थिति आपको अच्छी लगती है तो , हे शिव ! मैं इसमें भी कृतार्थ हूँ , आपकी इच्छा मुझे स्वीकार्य है । ॥१९॥
हे खप्पड़धारी भिक्षु ! मेरा यह मन बंदर के समान बड़ा चंचल है । बंदर की भाँति यह मोहरुपी जंगल में घूमता रहता है । काल्पनिक युवतियों के कुच शिखरों पर नाचता रहता है , और मनमाने उच्छ्रंखल , भाव से आशारुपी शाखाओं में इधर -उधर कूदता -फाँदता रहता है । हे सर्वव्यापी शिव ! मेरे इस ह्रदयरुपी चंचल बन्दर को अपनी भक्ति में पक्का बाँधकर अपने वश में कर लीजिये । ॥२०॥