भगवान शिव की भक्ति मेघों से भरे आकाश की भाँति है । इससे जलभरे बादलों की पंक्ति के समान आनन्दरुपी जल की वर्षा होती है । जिस किसी का मनसरोवर इस जल की वर्षा से अच्छी तरह भर जाता है , उसी की जीवनरुपे खेती सफल होती है , दूसरों की नहीं । ॥७६॥
विरहिणी नवबधू के समान , जो अपने प्रियतम का स्मरण करती रहती है , भगवान् शिव के चरण -कमलों में अनुरक्त भक्ति , सुदृढ़ होने के लिये सद् -विचार , नामस्मरण , दर्शन , कीर्तन आदि में सम्मोहित -सी , शिवमन्त्र के जाप में संलग्न रहती है । ॥ ७७॥
जैसे नवोढ़ा वधू को उसके पति के सद्गगुणों की चर्चा द्वारा शिक्षित करते हैं , वैसे ही हे प्रभु ! मेरी इस बुद्बि को , जो उचित उपचारों में शिक्षित है , जो विनयशील है , हितैषियों के आश्रय में पली है , ऊपर -अपनी ओर -आकर्षित कीजिये । ॥७८॥
हे शंभो ! आपके चरणकमल तो अत्यंत कोमल हैं । योगियों के चित्तरुपी कमलदलों पर नित्य विहार करते हैं । इन कोमल चरणों ने यमराज के बक्षस्थल के कठोर कपाट कैसे तोड़े होंगे ? मैं यही चिन्ता करता रहता हूँ । आपके चरणयुगल तो बड़े कमनीय कोमल हैं । उन्हें मेरी आँखों के सामने प्रकट कीजिये । मैं हाथों से संवाहन करुँगा , उन्हें सहलाऊँगा । ॥७९॥
हे शंभो ! मैं कल्पना करता हूँ आपने सोचा होगा कि , "यह जन्मेगा और इसका कठोर मन होगा । मुझे इस कठोर मन पर ही नृत्य करता है । " तभी तो आप कठोर पहाड़ियों की तलहटियों पर नृत्य का अभ्यास करते हैं । यदि ऐसा नहीं है तो महलों , फूलों के गद्दों , और मनोरम वेदियों के होते हुए शिलातलों पर नृत्य का क्या अर्थ है ॥८०॥