हे उमा महेश्वर ! कुछ समय आपके चरणॊं की अर्चना करने से , कुछ आपके ध्यान और समाधि से , कुछ वन्दना से , कुछ आपके मनोरंजन के लिये नृत्य से , जो कथा सुनने से , कुछ आपके दर्शन करने से , कुछ ऐसी आत्मविभोर दशा प्राप्त कर लेता है , वह , सचमुच , इसी लोक में , जीते जी मुक्त हो जाता है । ॥८१॥
( इस पद्य में कई पौराणिक कथाओं की पृष्ठभूमि है । यहाँ भगवान शिव की हरिहर रुप में वन्दना है । भगवान् शिव ने विष्णु को बाण बनाकर त्रिपुर संहार किया । विष्णु वृषभरुप में शिव के वाहन बनतें हैं । विष्णु अर्धाड्रि . नी रुप में शिव की भार्या बने । शूकर बनकर विष्णु ने शिव के चरणों तक पहुँचने का प्रयास किया । मोहिनीरुप धारण कर विष्णु ने शिव की सहचरी का कर्तव्य निभाया । भस्मासुर बध के लिये भी विष्णु ने सुन्दर स्त्री का रुप स्वीकार किया । जब शिवजी नृत्य करते हैं तो विष्णु मृदड़ बजाते हैं । जब , अर्चना करते समय , हजार कमल के पुष्पों में एक कम पड़ गया , तो विष्णु ने अपना नेत्र अर्पण करना चाहा । )
हे उमापति ! भगवान विष्णु आपके लिये अनेक रुप धारण करते आये है । त्रिपुर संहार के लिये वाण बने , बृषभरुप में वाहन बने , अर्धाड्रि .नी के रुप में भार्या बने , शूकर बनकर पृथ्वी खॊदते -खोदते शिव के चरणॊं तक पहुँचने का प्रयास किया । मोहिनी रुप में सहचरी बने । और तो और , जब सहस्त्र कमल से अर्चना के समय एक कमलपुष्प कम पड़ गया तो , उसके स्थान पर , अपना नेत्र अर्पन करने को तत्पर हो गये । उनसे बढ़कर शिव का प्रिय दूसरा कौन हो सकता है ॥८२॥
जन्म लेनेवाले और मरनेवाले छोटे -बड़े देवताओं की सेवा से क्या लाभ ? उनकी सेवा से किंचित् मात्र भी सुख नहीं मिलता । इसमें कुछ भी संशय नहीं है । जो लोग अजन्मा और अमर भगवान् शिव की आराधना करते हैं उन्हें परम आनन्द प्राप्त होता है । ऐसे लोग ही धन्य हैं । ॥८३॥
हे शुभकर्ता ! हे जगत के कारण ! हे शिव -बन्धु ! हे सत्चित् और आनन्द के सागर ! हे दयालु ! आपकी सेवा में गौरी का हाथ बँटाने के लिये मैं अपनी गुणवती बुद्विरुपी कन्या को अर्पण करता हूँ। आप सदा मेरे ह्रदयरुपी घर में सुखपूर्वक निवास करें । ॥८४॥
( भगवान् शिव की सेवा में कालकुट हलाहल , सर्प , गजचर्म आदि रहते हैं । भक्त चिंतित है ऐसी सामग्री वह कहाँ से , कैसे , प्राप्त कर सकता है )
हे इन्दुशेखर शम्भो ! मैं न तो समुद्र मंथन जानता हूँ , इसलिये चन्दमा और हलाहल जैसी चीजें नहीं ला सकता । पाताल पहुँचकर आपकी सेवा में सर्प भी नहीं ला सकता । जंगल में शिकार करने में प्रवीण शिकारी नहीं हूँ कि गज चर्म आदि एकत्र कर सकूँ । अब आप ही बताइये , आपका नैवेद्य , पुष्प , आभूषण , वस्त्र आदि मैं कहाँ से लाऊँ ॥८५॥