हे राजशेखर ! आपकी कृपा से अनादि अविद्या ह्रदय से दुर हो गई , और ह्रदय के लिये हितैषी विद्या ह्रदय में समा गई । अब मैं सदा शुभकारी और मुक्तिदायक आपके चरणकमलों का ध्यान करता हूँ और उनकी सेवा करता हूँ । ॥९१॥
हे गौरीपति ! आपके चरित्रों का निरन्तर पूर्णरुप से रसपान करते हुए मेरे दुःख , दुर्भाग्य , कष्ट बुरी दृष्टि , और बुरे वचन -सब दूर हो गये हैं । अपने कृपा कटाक्षों से मेरा उद्वार किजिये । ॥९२॥
जिन गिरिजापति शिव के मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट है , नवीन मेघ के समान अत्यन्त सुन्दर नीली ग्रीवा है , उन स्वामी में मेरा ह्रदय निरन्तर रमता रहे ।
इन पद्यों में फलश्रुति के रुप में भगवान् शिव की भक्ति का प्रताप वर्णन किया जा रहा है। अब प्रार्थना से अधिक अहोभाग्य का प्रदर्शन है । ॥९३॥
रसना वही जो उनका गुणगान करे , दो नेत्र वही जो उनका दर्शन करें , वे ही हाथ हैं जो उनकी अर्चना करें , और उनका स्मरण ही करने योग्य कार्य है । ॥९४॥
" मेरे चरण कोमल हैं , इसका ह्रदय कठोर है " इस सोच विचार को , हे गिरिजा पति ! त्याग दीजिये । हे शिव ! पर्वतों पर आपका प्रवेश कैसे हुआ ॥९५॥