शिवानन्दलहरी - श्लोक ५६ ते ६०

शिवानंदलहरी में भक्ति -तत्व की विवेचना , भक्त के लक्षण , उसकी अभिलाषायें और भक्तिमार्ग की कठिनाईयोंका अनुपम वर्णन है । `शिवानंदलहरी ' श्रीआदिशंकराचार्य की रचना है ।


५६

नित्याय त्रिगुणात्मने पुरजिते कात्यायनीश्रेयसे

सत्यायादिकुटुम्बिने मुनिमन ःप्रत्यक्षचिन्मूर्तये ।

मायासृष्टजगत्त्रयाय सकलाम्नायान्तसंचारिणे

सायंताण्डवसंभ्रमाय जटिने सेयं न तिःशंभवे ॥५६॥

 

५७

नित्यं स्वोदरपोषणाय सकलनुद्दिश्य वित्ताशया

व्यर्थ पर्यटनं करोमि भ वतः सेवां न जाने विभो ।

मज्जन्मान्तरपुण्यपाकबलतस्त्वं शर्व सर्वान्तर -

स्तिष्ठस्येव हि तेन वा पशुपते ते रक्षणीयोऽस्म्यहम् ॥५७॥

 

५८

एको वारिजबान्ध वः क्षितिनभोव्याप्तं तमोमण्डलं

भित्वा लोचनगोचरोऽपि भवति त्वं कोटिसूर्यप्र भः ।

वे द्यः किं न भवस्यहो घनतरं कीदृग्भवेन्मत्तम -

स्तत्सर्व व्यपनीय मे पशुपते साक्षात्प्रसन्नो भव ॥५८॥

 

५९

हंसः पद्मवनं समिच्छति यथा नीलाम्बुदं चात कः

को कः कोकनदप्रियं प्रतिदिनं चन्द्रं चकोरस्तथा ।

चेतो वाच्छति मामकं पशुपते चिन्मार्गमृग्यं विभो

गौरीनाथ भवत्पदाब्जयुगलं केवल्यसौख्यप्रदम् ॥५९॥

६०

रोधस्तोयह्र तः श्रमेण पथिकश्छायां तरोर्वृष्टितो

भी तःस्वस्थगृहं गृहस्थमतिथिर्दी नःप्रभुं धार्मिकम् ।

दीपं संतमसाकुलश्व शिखिनं शीतावृतस्त्वं तथा

चे तः सर्वभयापहं ब्रज सुखं शं भोः पदाम्भोरुहम् ॥६०॥

मैं जटाधारी भगवान शिव को प्रणाम करता हूँ । वे नित्य हैं , सत्व , रज , तम तीनों गुणॊं में व्याप्त हैं ; उन्होंने स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीर तीनों को वश में कर लिया है ; वे भगवती उमा के लिये परम श्रेय हैं , वे परम सत्य हैं , आदि कुटुम्बी हैं , मुनियों के मन में प्रत्यक्ष चिन्मूर्ती हैं , उन्होंने माया से तीनों लोकों की सृष्टी की है । वे समस्त वेदान्त में व्याप्त हैं , और सायंकाल में ताण्डवनृत्य करते हैं। ॥५६॥

इस पद में ह्रदय की निश्छल पुकार हैं । धन कमाने की दौंड़ में थक कर , केवल अपने पेट पालने के लिये लाभ की आशा में इधर -उधर के लोगों के पीछे चक्कर लगाने के बाद , इस सारे उद्योग की व्यर्थता दिखाई देने लगती है । मनुष्य पछताता है । हीरा -जैसा जीवन कौड़ियाँ बीनने में वीता दिखाई देता है । भगवान् शिव के प्रार्थना करता है , "प्रभो , बचाइये , मेरी रक्षा कीजिये " । ॥५७॥

हे पशुपति ! अकेला एक सूर्य पृथ्वी और आकाश में व्याप्त सारे अंधकार को चीरकर दृष्टिगोचर हो जाता है । आपकी तो करोड़ों सूर्यो जैसी प्रभा है । आप मुझे दर्शन क्यों नहीं देते ? मेरा ऐसा कितना घना अज्ञान है ? मैं आपको क्यों नहीं जान पा रहा हूँ ? इस सारे अंधकार को -मेरे घनीभूत अज्ञान को -दूर कर मुझे साक्षात् दर्शन दें । ॥५८॥

हे उमापति ! जैसे हंस पद्म सरोवर की अभिलाषा करता है , चातक जल से भरे श्याम घन की अभीप्सा करता है , जैसे गुलाबी रंग का हंस लाल कमल चाहता है , चकोर चन्द्रमा से प्रेम करता है , वैसे ही मेरा चित्त ज्ञानमार्ग से प्राप्य आपके मोक्षदायक चरणकमलों को चाहता है । ॥५९॥

जैसे पानी के थपेड़ों से आहत मनुष्य किनारे की ओर मुड़ता है , थका हुआ यात्री पेड़ की छाँया ढूँढ़ता है , वर्षा से डरा हुआ पक्का मकान चाहता है , अतिथि ऐसा गृहस्थ चाहता है जो सत्कार कर सके , दीन जन दानी धार्मिक की ओर देखता है , घने अंधकार में भटकता हुआ आदमी दीपक का सहारा लेता है , ठंड से चारों ओर घिरा हुआ आदमी तापने के लिये आग की अंगीठी की ओर जाता है , उसी भाँति मेरे मन , भय दूर करनेवाले भगवान् शिव के चरणकमलों का आश्रय ले । ॥६०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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