मैं जटाधारी भगवान शिव को प्रणाम करता हूँ । वे नित्य हैं , सत्व , रज , तम तीनों गुणॊं में व्याप्त हैं ; उन्होंने स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीर तीनों को वश में कर लिया है ; वे भगवती उमा के लिये परम श्रेय हैं , वे परम सत्य हैं , आदि कुटुम्बी हैं , मुनियों के मन में प्रत्यक्ष चिन्मूर्ती हैं , उन्होंने माया से तीनों लोकों की सृष्टी की है । वे समस्त वेदान्त में व्याप्त हैं , और सायंकाल में ताण्डवनृत्य करते हैं। ॥५६॥
इस पद में ह्रदय की निश्छल पुकार हैं । धन कमाने की दौंड़ में थक कर , केवल अपने पेट पालने के लिये लाभ की आशा में इधर -उधर के लोगों के पीछे चक्कर लगाने के बाद , इस सारे उद्योग की व्यर्थता दिखाई देने लगती है । मनुष्य पछताता है । हीरा -जैसा जीवन कौड़ियाँ बीनने में वीता दिखाई देता है । भगवान् शिव के प्रार्थना करता है , "प्रभो , बचाइये , मेरी रक्षा कीजिये " । ॥५७॥
हे पशुपति ! अकेला एक सूर्य पृथ्वी और आकाश में व्याप्त सारे अंधकार को चीरकर दृष्टिगोचर हो जाता है । आपकी तो करोड़ों सूर्यो जैसी प्रभा है । आप मुझे दर्शन क्यों नहीं देते ? मेरा ऐसा कितना घना अज्ञान है ? मैं आपको क्यों नहीं जान पा रहा हूँ ? इस सारे अंधकार को -मेरे घनीभूत अज्ञान को -दूर कर मुझे साक्षात् दर्शन दें । ॥५८॥
हे उमापति ! जैसे हंस पद्म सरोवर की अभिलाषा करता है , चातक जल से भरे श्याम घन की अभीप्सा करता है , जैसे गुलाबी रंग का हंस लाल कमल चाहता है , चकोर चन्द्रमा से प्रेम करता है , वैसे ही मेरा चित्त ज्ञानमार्ग से प्राप्य आपके मोक्षदायक चरणकमलों को चाहता है । ॥५९॥
जैसे पानी के थपेड़ों से आहत मनुष्य किनारे की ओर मुड़ता है , थका हुआ यात्री पेड़ की छाँया ढूँढ़ता है , वर्षा से डरा हुआ पक्का मकान चाहता है , अतिथि ऐसा गृहस्थ चाहता है जो सत्कार कर सके , दीन जन दानी धार्मिक की ओर देखता है , घने अंधकार में भटकता हुआ आदमी दीपक का सहारा लेता है , ठंड से चारों ओर घिरा हुआ आदमी तापने के लिये आग की अंगीठी की ओर जाता है , उसी भाँति मेरे मन , भय दूर करनेवाले भगवान् शिव के चरणकमलों का आश्रय ले । ॥६०॥