शिवानन्दलहरी - श्लोक ५१ ते ५५

शिवानंदलहरी में भक्ति -तत्व की विवेचना , भक्त के लक्षण , उसकी अभिलाषायें और भक्तिमार्ग की कठिनाईयोंका अनुपम वर्णन है । `शिवानंदलहरी ' श्रीआदिशंकराचार्य की रचना है ।


५१

भृड्री .च्छानटनोत्क टः करिमदग्राही स्फुरन्माधवा -

ह्रादो नादयुतो महासितवपुः पच्चेषुणा चादृ तः ।

सत्प क्षःसुमनोवनेषु स प नः साक्षान्मदीये मनो -

राजीवे ममराधिपो विहरतां श्रीशैलवासी वि भुः ॥५१॥

 

५२

कारुण्यामृतवर्षिणं घनविपद्गग्रीष्मच्छिदाकर्मठं

विद्यासस्यफलोदयाय सुमनः संसेव्यमिच्छाकृतिम् ।

नृत्यद्वक्तमयूरमद्रिनिलयं चंचज्जटामण्डलं

शंभो वाच्छति नीलकंधर सदा त्वां मे मनश्चात कः ॥५२॥

 

५३

आकाशेन शिखी समस्तफणिनां नेत्रा कलापी नता -

ऽनुग्राहिप्रणवोपदेशनिन दैःकेकीति यो गीयते ।

श्यामां शैलसमुद्ववां घनरुचिं दृष्ट्‍वा नटन्तं मुदा

वेदान्तोपवने विहाररसिकं तं नीलकण्ठं भजे ॥५३॥

( इस पद्य में भगवान नीलग्रीव और नीले कण्ठ वाले मोर का साथ - साथ वर्णन हैं )

 

५४

संध्या घर्मदिनात्ययो हरिकराघात प्रभूतानक -

ध्वानो वारिदगर्जित्म दिविषदां दृष्टिच्छटा चच्चला ।

भक्तानां परितोषवाष्पविततिर्वृष्टिर्मयूरी शिवा

यस्मित्रुज्ज्वलताण्डवं विजयते तं नीलकण्ठं भजे ॥५४॥

५५

आद्यायामिततेजसे श्रुतिपदैर्वेद्याय साध्याय ते

विद्यानन्दमयात्मने त्रिजग तः संरक्षणोद्योगिने ।

ध्येयायाखिलयोगि भिः सुरगणैर्गेयाय मायाविने

सम्यक्ताण्डवसंभ्रमाय जटिने सेयं न तिः शंभवे ॥५५॥


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Last Updated : November 11, 2016

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