जिस प्रकार पिस्ते के बीज , पेड से जा चिपकते हैं । जैसे सुई चुम्बक पत्थर से जा चिपकती है ; जैसे पतिब्रता पत्नी अपनी पति की ओर आकर्षित होती है ; जैसे लता पेड से , और नदी समुद्र के पास आकर मिल जाती है ; उसी भाँति , हे पशुपति ! जब चित्तवृत्ति आपके चरण -कमलों को प्राप्त कर , वहीं सदा स्थिर हो जाती है , तो वह ’भक्ति ’ कहलाती है । ॥६१॥
इस पद्य में भक्ति का माता के रुप में और भक्त का उसके बालक के रुप में वर्णन किया गया है । माता अपने बालक को स्नान कराती है , कपड़े पहानाती है , उसे दूध पिलाती है , और उसके शरीर पर रक्षासूत्र बाँधती है ।
भक्तिमाता अपने बालक भक्त को आनन्द के अश्रुओं से स्नान कराकर , निर्मलता रुपी वस्त्र पहनाती है। भगवान् शिव के चरितामृत से वाणीरुपी शंख द्वारा भूख मिटाती है । रुद्राक्ष और भस्म से उसके शरीर की रक्षा करती है । हे देव पशुपति ! आपकी भावना रुपी पलंग पर सुला कर रक्षा करती है। ॥६२॥
( अगर सच्ची भक्ति हो तो सेवा - पूजा के विधि - विधान की क्या आवश्यकता ? शिवभक्त कण्णपर का ही उदाहरण लें ) जंगली शिकारी शिवभक्त कण्णपन की चलते - चलते घिसी हुई पैरों की जूती दोनों भोंओं के बीच का स्थान निश्चित करने के लिए ठीक थी । मुँह में भरे पानी के कुल्ले से भगवान् शिव का अभिषेक हो गया । कुछ - कुछ खाये हुए माँस के कौर का नैवेद्य वन गया । अहा ! भक्ति क्या नहीं कर सकती ! जंगली शिकारी भक्त शिरोमणि हो गया । ॥६३॥
मार्कण्डेय की केवल सोलह वर्ष की निर्धारित आयु थी । माता -पिता बड़े चिन्तित हुए । किन्तु बालक शिवलिड्र . की पूजा में सम्पूर्ण रुप से संलग्न हो गया । यम के दूत लेने आये , किन्तु शिवमन्दिर के गर्भगृह में प्रवेश नहीं पा सके । अन्त में स्वयं यमराज आये । भगवान् शिव ने लिड्र . से प्रकट होकर यमराज की छाती पर लात मारी । मार्कण्डेय चिरंजीवी हो गया । भक्त कल्पना करता है इस कठोर कार्य में भगवान् के कोमल चरण को चोट लगी होगी ।
दारुकवन के यज्ञ में अपस्मार (मिरगी से बीमार बोंना ) उत्पन्न हुआ । इसने शिव से युद्व करना चाहा । भगवान् ने पैर के अंगूठे से उसकी कमर तोड़ दी । नटराज की मूर्ति में भगवान् इसी अपस्मार को पैर से दबाये हुए दिखाई देते हैं । ॥६४॥
( इस पद्य का अर्थ समझने से पहले इसकी पृष्ठभूमि की कुछ कथाओं का स्मरण आवश्यक है ।
हे उमापते महेश्वर ! जो कोई भी आपके चरण -कमलों की सेवा करता है , उसके लिये क्या दुर्लभ है ? उससे मृत्यु का देवता , यम भी , दूर भागता है । उसे डर रहता है कि कहीं शिवभक्त मार्कण्डेय को बचाने के लिये शिव ने उसकी छाती पर लात मारी थी जैसी फिर लात न पड़ जाय । देवता उनकी अपने मुकुटों में लगे रत्नों की ज्योति से आरती उतारते हैं । मुक्तिबधू उसका नम्र आलिड्र .न करती है । ॥६५॥