शिवानन्दलहरी - श्लोक २१ ते २५

शिवानंदलहरी में भक्ति -तत्व की विवेचना , भक्त के लक्षण , उसकी अभिलाषायें और भक्तिमार्ग की कठिनाईयोंका अनुपम वर्णन है । `शिवानंदलहरी ' श्रीआदिशंकराचार्य की रचना है ।


२१

धृतिस्मम्भाधारां दृढगुणनिवद्वां सगमनां

विचित्रां पद्माढयां प्रतिदिवसन्मार्गघटिताम्।

स्मरारे मच्चे तः स्फुटपटकुतीं प्राप्य विशदां

जय स्वामिन् शक्त्या सह शिवग णैः सेवित विभो ॥२१॥

२२

प्रलोभाद्यैरर्थाहरणपरतन्त्रो धनिगृहे

प्रवेशोद्यु क्तः सन्भ्रमति बहुधा तस्करपते ।

इमं चेतश्चोरं कथमिह सहे शंकर विभो

तवाधीनं कृत्वा मयि निरपराधे कुरु कृपाम् ॥२२॥

 

२३

करोमि त्वत्पूजां सपदि सुखदो मे भव विभो

विधित्वं विष्णुत्वं दिशसि खलु त स्याः फलमिति ।

पुनश्च त्वां द्रष्टुं दिवि भुवि वहन् पक्षिमृगता -

मदृष्ट्‍वा तत्खेदं कथमिह सहे शंकर विभो ॥२३॥

 

२४

कदा वा कैलासे कनकमणिसौधे सह गणै -

र्वसन् शंभोरग्रे स्फुटघटितमूर्धाज्जलिपु टः ।

विभो साम्ब स्वामिन् परमशिव पाहीति निगद -

न्विधातृणां कल्पान् क्षणमिव विनेष्यामि सुख तः ॥२४॥

 

२५

स्ववैर्ब्रह्यादीनां जयजयवचोभिर्नियमिनो

गणानां केलिभिर्मदकलमहोक्षस्य ककुदि ।

स्थितं नीलग्रीवं त्रिनयनमुमाश्लिष्टवपुषं

कदा त्वां पश्येयं करधृतमृगं खण्डपरशुम् ॥२५॥

हे मन्मथ दहन करने वाले यतिराज ! शिवगुणों से सेवित हे सर्वव्यापी परमेश्वर ! हे स्वामी ! भवानी सहित मेरी चित्तरुपी निर्मल पटकुटी में आकर विराजिये । इस पटकुटी में धैर्य का केन्द्रिय दृढ़ स्तन्भ है , जिस पर यह टिकी है । सद्गगुणों रुपी रस्सियों से कसकर बँधी है । यह स्थिर नहीं , चलती -फिरती है । विविध चित्त -वृत्तियों के कारण बड़ी रंग -विरंगी है । यह शक्ति -स्त्रोत अष्ट कमलों से सुशोभित है । यह प्रतिदिन दिव्य ध्यान के मार्ग पर आगे बढ़ रही है । इसमें प्रवेश कर आप मनोविकारों पर विजयी हों । ॥२१॥

हे चोरों के सरदार विश्वव्यापी भगवान् शंकर ! मेरा चित्तरुपी यह चोर लोभ -मोह आदि के वशीभूत होकर धनिकों के घरों में चोरी -छिपे प्रविष्ट होने के लिए उत्सुक इधर -उधर घूमता रहता है । इस चोर को कैसे सहन करुँ ? आप इसे अपने वश में कर मुझ वेवस निरपराधी पर कृपा कीजिये । ॥२२॥

हे सर्वव्यापी प्रभु ! मैं आपकी पूजा -अर्चना कर रहा हूँ । मुझे शीघ्रातिशीघ्र आपके चरणों की सेवा का परममुख प्रदान कीजिये । यदि आप मुझे ब्रह्या अथवा विष्णु की पदवी प्रदान करेंगे तो उससे क्या होगा ? मुझे आपकी महत्ता ठूँढ़ने के लिये आकाश में ऊँचा उड़ने वाले हंस अथवा भीतर पृथ्वी खोद कर प्रयास करने वाले वराह का रुप धारण करना पड़ेगा । तब भी मैं आपकी महत्ता के ओर -छोर नहीं ढूँढ़ पाऊँगा । इस असमर्थता को मैं कैसे सहन करुँगा ॥२३॥

कैलास पर्वत पर सोने और मणियों से निर्मित महल में , जगन्माता पार्वती और आपके गणों के साथ बिराजे हुए आपके सामने "हे विभु ! हे स्वामी ! हे परशिव ! मेरी रक्षा कीजिये " सिर पर अज्जलि बाँधे यह कहते हुए ब्रह्या के कल्पों को क्षण के समान व्यतीत कर लूँगा । ॥२४॥

प्रभो ! मैं कब आपके दर्शन कर सकूँगा ? आपके उस रुप के दर्शन जिसमें आप एक हाथ में दौड़ते हुए हरिण और दूसरे हाथ में तीक्ष्ण फरसा लिये हुए हैं , आपका नीलकण्ठ और तीन नेत्र सुशोभित हैं , आप नन्दी वैल की पीठ के उभार पर विराजमान हैं , भगवती उमा आपकी अर्धनारीश्वर देह को आलिड्रि .त किये हुए हैं , नन्दी , चण्डी , भृड्री . आदि प्रमथगण नाचते -गाते आमोद -प्रमोद कर रहे हैं , तपस्वी ’जयजय ’ कर रहे हैं , और ब्रह्या आदि देवगण आपकी स्तुति कर रहे हैं । ॥२५॥


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Last Updated : November 11, 2016

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