[ तार्किक लोग शास्त्रार्थ करते रहते है ] घड़ा या मिट्टी का ढे़ला? छोटा- सा कण अथवा पहाड़? धुँवा अथवा अग्नि? कपड़ा अथवा धागा? क्या ऐसा व्यर्थ वाद- विवाद भयानक यम को दुर रख सकेगा? ऐसे तीखे तर्कों से व्यर्थ ही अपने गले को दुखा रहा है । अगर तू बुद्विमान है तो दौंड़कर परमसुखदायी भगवान शिव के चरण- कमलों का आश्रय ले । ॥६॥
हे परम शिवा ! मेरा मन सदा आपके चरण कमलों मे लगा रहे । मेरी वाणी सदा आपकी स्तुती और किर्तन करती रहे । मेरे दोनों हाथ आपकी अर्चना करते रहें । मेरे कान आपकी कथाएँ सुनते रहें । मेरी बुद्वि आपका मनन करती रहे । और मेरे दोनों नेत्र आपकी मूर्ति के दर्शन करते हुए उसका वैभव निहारते रहें । जब मेरी सारी इन्द्रियाँ और अवयव आपकी भक्ति में इस भाँति संलग्न होंगे तो मैं , इन इन्द्रियों के अतिरिक्त , दूसरे किस साधन से अन्य ग्रन्थों को जान पाऊँगा ॥७॥
जैसे सीपी को चाँदी समझकर बुद्वि भ्रमित हो जाती है , काँच के टुकड़े में मणि का भ्रम हो जाता है , आटे मिले हुए पानी को दूध समझने की भूल हो जाती है , चमकती रेत में पानी का आभास हो जाता है , उसी भाँति , हे देव पशुपति ! भ्रान्ति में जडमति मनुष्य , देवाधिदेव आपको मन में नहीं मानकर , आपके अतिरिक्त दूसरे देवताओं की सेवा करने लगते हैं । ॥८॥
कैसी अजीब बात है कि बुद्विहीन मनुष्य पूजा के लिये पुष्प एकत्रित करने के लिये गहरे तालाबों में घुसते हैं , निर्जन घोर जंगलों , और बडे - बडे ऊँचे पहाड़ों में घूमते हैं । ( ये जडमति नहीं जानते कि बाहर संचित किये हुए पुष्प तो ह्रदय - कमल के प्रतीक हैं । वास्तविक महत्त्व तो मानसी पूजा का है ) हे उमानाथ ! ऐसे लोग नहीं जानते कि केवल एक अपने ह्रदय - कमल को आपके लिये अर्पित कर ये सुखपूर्वक रह सकते हैं । ॥९॥
मैं मनुष्य योनि में जनमूँ अथवा देवयोनि में , पहाड़ों और जंगलों में पशुरुप में पैदा होंऊँ अथवा मच्छर - जैसे कीट - पतंगों में जन्म लूँ , मेरा जन्म पशुयोनि , कीटयोनि अथवा विहगयोनि आदिं किसी भी योनि में हो । यदि आपके चरणकमलों के स्मरण के परम आनन्द की तरंगों का मैं सुख भॊग रहा होंऊँ तो इन देहों का क्या महत्व ॥१०॥