विश्वेदेव n. एक यज्ञीय देवतासमूह, जिसे ऋग्वेद के चालीस से भी अधिक सूक्त समर्पित किये गये है ।
विश्वेदेव n. विश्वेदेव का शब्दशः अर्थ अनेक देवता है । यह एक काल्पनिक यज्ञीय देवतासमूह है, जिसका मुख्य कार्य सभी देवताओं का प्रतिनिधित्व करना है, क्यों कि, यज्ञ में की गई स्तुति से कोई देवता छूट न जाय। वेदों के जिन मंत्रों में अनेक देवताओं का संबंध आता है, एवं किसी भी एक देवता का निश्र्चित रूप से उल्लेख नही होता है, वहाँ ‘विश्र्वेदेव’ का प्रयोग किया जाता है । भाषाशास्त्रीय दृष्टि से यह सामासिक शब्द नही है, बल्कि ‘विश्र्वे + देवाः’ ये दो शब्द मिल कर बना हुआ संयुक्त शब्द है । इसी कारण इसे ‘सर्वदेव’ नामांतर भी प्राप्त है । विश्र्वेदेवों से संबंधित सूक्तों में सभी श्रेष्ठ देवता एवं कनिष्ठ देवताओं की क्रमानुसार प्रशस्ति प्राप्त है । यज्ञ करानेवाले पुरोहितों को जिस समय समस्त देवतासमाज को आवाहन करना हो, उस समय वह आवाहन विश्र्वेदेवों के उद्देश्य कर किया गया प्रतीत होती है ।
विश्वेदेव n. कई अभ्यासकों के अनुसार, ऋग्वेद में प्राप्त ‘आप्री सूक्त’ विश्र्वेदेवों को उद्देश्य कर ही लिखा गया है, जहॉं बारह निम्नलिखित देवताओं को आवाहन किया गया हैः---१. सुससिद्ध, २. तनुनपात्, ३. नराशंस, ४. इला, ५. बर्हि, ६. द्वार, ७. उषस् एवं रात्रि, ८. होतृ नामक दो अग्नि, ९. सरस्वती, इला एवं भारती (मही) आदि देवियाँ, १०. त्वष्ट्ट, ११. वनस्पति, १२. स्वाहा
[ऋ. १.१३] । इस सूक्त में निर्दिष्ट ये बारह देवता एक ही अग्नि के विभिन्न रूप है । ऋग्वेद में प्राप्त विश्र्वेदेवों के अन्य सूक्तों में इस देवतासमूह में त्वष्ट्टृ, ऋभु, अग्नि, पर्जन्य, पूषन्, एवं वायु आदि देवता; बृहद्दिवा आदि देवियाँ, एवं अहिर्बुध्न्य आदि सर्प समाविष्ट किये गये है । ऋग्वेद में निर्दिष्ट ‘मरुद्गण’ ‘ऋभुगण’ आदि देवगणों जैसा ‘विश्र्वेदेव’ एक देवगण प्रतीत नहीं होता है । फिर भी कभी कभी इन्हें एक संकीर्ण समूह भी माना गया प्रतीत होता हे, क्यों कि, ‘वसु’ एवं ‘आदित्यों’ जैसे देवगणों के साथ इन्हें भी आवाहन किया गया है
[ऋ. २.३.४] ।
विश्वेदेव n. इस ग्रंथ में विश्र्वेदेवों का एक देवतासमूह के नाते निर्देश प्राप्त है, जहाँ अविक्षित कामप्रि राजा के यज्ञ में इनके द्वारा यज्ञीय सभासद के नाते कार्य करने का निर्देश प्राप्त हैः -- मरुतः परिवेष्टारः मरुत्त यावसन्गृहे। अविक्षितस्य क मप्रेः विश्वेदेवाः सभासद इति।।
[ऐ. ब्रा. ३९.८.२१] ।
विश्वेदेव n. विश्र्वेदेवों का उत्क्रांत रूप पौराणिक साहित्य में पाया जाता है, जहाँ इन्हें स्पष्टरूप से देवतासमूह कहा गया है । वायु में इन्हें दक्षकन्या विश्र्वा एवं धर्म ऋषि केपुत्र कहा गया है, एवं इनकी संख्या दस बतायी गयी है । राज्यप्राप्ति के लिए इनकी उपासना की जाती है ।
विश्वेदेव n. पुराणों में प्राप्त इनकी नामावलि निम्न प्रकार है---१. ऋतु, २. दक्ष, ३. श्रव, ४. सत्य, ५. काल, ६. काम, ७. मुनि, ८. पुरूरवस्, ९. आर्द्रवास (आर्द्रव), १०. रोचमान
[ब्रह्मांड. ३.१२] ;४.२.२८ । कई अन्य पुराणों में, इनके वसु, कुरज, मनुज, बीज, धुरि, लोचन, आदि नामांतर भी प्राप्त है
[भा. ६.६.६०] ;
[मत्स्य. २०२] ;
[सांब.१८] । महाभारत में भी इनकी विस्तृत नामावलि दी गयी है, जहॉं इनका निवासस्थान ‘भुवर्लोक’ बताया गया है
[म. अनु. ९९.२८] । ये स्वयं अप्रज (संततिहीन) थी, एवं इन्द्र की उपासना करते इन्द्रसभा में उपस्थित थे
[भा. ६.६.६०] । देवासुर संग्राम में देवपक्ष में शामिल होकर, इन्होंने पौलोमों के साथ युद्ध किया था
[भा. ८.१०.३४] । सों के द्वारा किये गये राजसूय यज्ञ में इन्होंने ‘चमसाध्वर्यु’ के नाते काम किया था
[मत्स्य. १७.१४] । मरुत्त के यज्ञ में भी ये सभासद थे
[भा. ९.२.२८] । इन्हीके ही कृपा से ज्यामव को पुत्रप्राप्ति हुई थी
[भा. ९.२.२८] ।
विश्वेदेव n. इन्होंने हिमालय पर्वत पर पितरों की एवं ब्रह्मा की, उपासना की थी, जिस कारण उन्होंने प्रसन्न हो कर इन्हें आशिर्वाद दिया, ‘आज से मनुष्यों के द्वारा, किये गये श्राद्धविधियों में तुम्हें अग्रमान प्राप्त होगा। देवों से भी पहले तुम्हारी पूजा की जायेगी। तुम्हारी पुजा करने से श्राद्ध का संरक्षण होगा, एवं पितर सर्वाधिक तृप्त होंगे’
[वायु. ७६.१-१५] ;
[ब्रह्मांड. ३.३.१६] । कौन-कौन से श्राद्धविधियों में कौनसे विश्र्वदेवों को प्राधान्य दिया जाता है, इसकी जानकारी ‘निर्णयसिंधु’ में प्राप्त है, जो निम्नप्रकार हैः-- १. पार्वणश्राद्ध---पुरूरव, आर्द्रव; २. महालय श्राद्ध---धूरि, लोचन; ३. नान्दी श्राद्ध---सत्य, वसु; ४. जिवत्पितृक श्राद्ध---ऋतु दक्ष
[निर्णयसिंधु पृ. २७९] । भागवत में इन्हें वर्तमानकालीन वैवस्वत मन्वन्तर के देवता कहा गया है
[भा. ९.१०.३४] विश्र्वामित्र के शाप के कारण, इन्हें द्रौपदी के पाँच पुत्रों के रूप में जन्म प्राप्त हुआ था । आगे चल कर ये पाँच हि पुत्र अश्र्वत्थामन् के द्वारा मारे गये
[मार्क. ६२-६९] ।