सोई साध-सिरोमनि, गोबिंद गुण गावै ।
राम भजै बिषिया तजै, आपा न जनावै ॥टेक॥
मिथ्या मुख बोलै नहीं पर-निंद्या नाहीं ।
औगुण छोड़ै गुण गहै, मन हरिपद-माहीं ॥१॥
नरबैरी सब आतमा, पर आतम जानै ।
सुखदाई समता गहै, आपा नहिं आनै ॥२॥
आपा पर अंतर नहीं, निरमल निज सारा ।
सतबादी साचा कहै, लै लीन बिचारा ॥३॥
निरभै भज न्यारा रहै, काहू लिपत न होई ।
दादू सब संसारमें, ऐसा जन कोई ॥४॥