राम रस मीठा रे, कोइ पीवै साधु सुजाण ।
सदा रस पीवै प्रेमसूँ सो अबिनासी प्राण ॥टेक॥
इहि रस मुनि लागे सबै, ब्रह्मा-बिसुन-महेस ।
सुर नर साधू स्म्त जन, सो रस पीवै सेस ॥१॥
सिध साधक जोगी-जती, सती सबै सुखदेव ।
पीवत अंत न आवई, पीपा अरु रैदास ।
पिवत कबीरा ना थक्या अजहूँ प्रेम पियास ॥३॥
यह रस मीठा जिन पिया, सो रस ही महिं समाइ ।
मीठे मीठा मिलि रह्या, दादू अनत न जाइ ॥४॥