आदि-अंत का रहस्य
देव्युवाच
आदिदेव महादेव आद्यन्त गोपनं वद ।
यदि नो कथ्यते देव विमुंचामि तदा तनुम् ॥
भावार्थः पार्वती बोलीं, हे देवाधिदेव महादेव ! अब आप आदि व अंत का रहस्य बताएं अन्यथा मैं देह का त्याग कर दूंगी ।
ईश्वरोवाच
आद्यंत गोपनं सूक्ष्मं कथं तत् कथयाम्यहम् ।
जंबूद्विपस्य वर्णेषु कलौ लोकाधमाः स्मृताः ॥
गुरु भक्ति विहीनाश्च भविष्यंति गृहे-गृहे ।
दुष्क्रियायां रताः सर्वे परमज्ञान वर्जिताः ॥
लौकिकाचारिणः सर्वे भविष्यंति गुहे-गृहे ।
विना शब्द परिज्ञानं मंत्रदाता द्विजो भवेत् ॥
मम सः श्रीमती मंत्रः संसारोद्भव बंधनात् ।
कथ्यते देव देवेशि मंत्र सर्वत्र सिद्धिदः ।
जायते तेन मे शंका कथं मे प्राणवल्लभे ॥
भावार्थः महादेव बोले, हे देवी ! आदि-अंत का रहस्य अतिगुप्त व सूक्ष्म है । उसका बखान मैं कैसे कर सकता हूं । कलियुग में जंबूद्वीप में जो लोक हैं उसके प्रत्येक गृह में गुरुभक्तों का अभाव है और सभी मनुज दुष्कर्मों मे लिप्त होकर परम ज्ञान से वंचित हैं । उन गृहों में लोकाचार ही प्रधान है तथा जिन्हें परिज्ञान (पराज्ञान) नहीं है वह मंत्र उपदेष्टा हैं । हे देवी ! संसार के बंधनों से मुक्ति दिलानेवाला मेरा प्रबुद्ध मंत्र सभी सिद्धियों को देनेवाला है । ऐसे सिद्धिप्रदाता मंत्र के रहते संदेह का क्या कारण है ।
देव्युवाच
भूतनाथ महाभाग हृदये मे कृपां कुरु ।
कथ्यतां कथ्यतां देव यतस्ते सेविका, वयम् ॥
भावार्थः देवी बोलीं, हे भूतों (जीवों) के स्वामी ! हे महाभाग ! आप मुझ पर कृपा करें । मैं आपकी दासी हूं ।
ईश्वरोवाच
सुभगे श्रृणु मे मातः कृपाय कथयामि ते ।
प्रथमे डाकिनी बीजं युवती षोडशाक्षरम् ॥
अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लृं एं ऐं ओं औं अं अः ॥
डाकिनी देव-देवस्य ईरितं बीजमुत्तमम् ॥
आद्यंत पुटिंट कृत्वा मंत्रं लक्षं जपेद् यदि ।
तदा सिद्धौ वरारोहे नान्यथा वचनं मम ॥
अधुना संप्रवक्ष्यामि राकिनी बीजमद्भुतम् ।
एकोच्चारण मात्रेण सत्यस्त्रेता युगे भवेत् ॥
कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं दश तथा महेश्वरी ॥
इति ते कथितं भक्या राकिनी बीजमद्भुतम् ॥
भावार्थः हे देवी ! मैं कृपा करके सर्वप्रथम यौवना षोडशाक्षरी डाकिनी बीज मंत्र बताता हूं । तुम ध्यानपूर्वक श्रवण करो ।
ॐ अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं ऋं एं ऐं ओं औं अं अः यह १६ अक्षरों का डाकिनी बीजमंत्र है, जो देवताओं को भी अभीष्ट की प्राप्ति कराता है । मंत्र के आदि-अंत में संपुटन देकर एक लाख बार जाप करने से मंत्र सिद्ध होता है । मेरा यह कथन असत्य नहीं है । हे देवी ! अब चमत्कारी राकिनी बीज मंत्र का श्रवण करो । इसका एक बार उच्चारण करने से ही त्रेतायुग भी सत्ययुग में परिवर्तित हो जाता है । राकिनी बीज मंत्र है कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं । तुम्हारे प्रति स्नेह होने के कारण ही मैंने यह बीजमंत्र उजागर किए हैं ।
टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं दशकं परमेश्वरी ।
इति ते कथितं भक्त्या लाकिनी बीज निर्णयम् ।
अधुना संप्रवक्ष्यामि काकिनी सिद्धि दायिनीम् ॥
पं फं बं भं मं यं रं लं अष्टार्णः वीर वंदिते ।
कथितं काकिनी बीजं चतुर्वर्ग फलप्रदम् ॥
भावार्थः हे परमेश्वरी ! टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं यह १० अक्षरों का लाकिनी बीजमंत्र है । अब धर्म, अर्थ, काम, मोक्षदाता अष्टाक्षरी काकिनी बीजमंत्र सुनो । वह इस प्रकार है- पं फं बं भं मं यं रं लं ।
अधुनां संप्रवक्ष्यामि सुभगे श्रृणुशाकिनीम् ।
वं शं षं सं चतुर्थवर्णं वांछितार्थप्रदं प्रिये ।
इदं तु शाकिनी-बीज चतुर्वर्ग प्रदायकम् ॥
अधुना संप्रवक्ष्यामि सुभगे श्रृणु हाकिनीम् ।
हं लं क्षं हाकिनी-बीजं श्रृणु सिद्धि-प्रदायकम् ॥
अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लृं एं ऐं ओं औं अं अः ।
षोडशार्णं महाबीजं सत्वमध्ये प्रकीर्तितम् ॥
भावार्थः हे सुंदरी ! अब शाकिनी मंत्र कहता हू सुनो । वं शं षं सं यह चार वर्णों का मंत्र शाकिनी बीजमंत्र है जो धर्म, अर्थ, काम मोक्षदाता है । इसी तरह हं लं क्षं तीन वर्णी यह बीजमंत्र डाकिनी देवी का है जो शीघ्र ही सिद्धि प्रदान करता है । अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लृं लृं एं ऐं ओं औं अं अः १६ अक्षर का यह मंत्र सत्व स्वरूपपिणी देवी का मंत्र है जो सभी प्रकार की सिद्धियां प्रदान करता है ।
रजस्वरूपिणी बीजं शीघ्रसिद्धि प्रदायकम् ।
कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं ।
इदं सप्तदशार्णं हि रजोमध्ये प्रकीर्तितम् ॥
भावार्थः हे देवी ! अब १७ वर्ण का रजः स्वरूपिणी देवी का मंत्र सुनो जो शीघ्र ही सिद्धियां प्रदान करता करता है । यथाः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं ।
रम्यं तमोमयी बीज अधुना ते वदाम्यहम् ।
दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं ।
इदं अष्ट दशार्णं हि तमोमध्ये उदाह्रतम् ॥
भावार्थः हे देवी ! अब तमोगुणी बीजमंत्र सुनो । इसमें १८ वर्ण हैं । यथा दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं ।
अधुना संप्रवक्ष्यामि मातृका बीजमद्भुतम् ।
इदं पंचाशदर्णं हि मातृकाया प्रकीर्तितम् ॥
भावार्थः हे देवी ! अब मातृका बीज कहता हूं । अं से क्षं तक पचास वर्ण ही मातृका बीज मंत्र है ।
अनुलोमविलोमेन पुटिकृत्य जपं चरेत् ।
लक्षं यावन्महेशानि ततः सिद्धौ न संशयः ।
गुरुबीजं समुद्दिर्ष्ट गुरुरित्यंक्षर द्वयम् ॥
भावार्थः हे देवी ! इष्टदेव के मंत्र के साथ ही मातृका बीजमंत्र का लोम-विलोम एक लाख बार जाप करने से सभी प्रकार की सिद्धियां हस्तगत हो जाती हैं ।
गुरु- यह द्विअक्षरी मंत्र ही गुरु बीजमंत्र कहलाता है ।
डाकिनी राकिनी देवि लाकिनी काकिनी ततः ।
शाकिनी हाकिनी संज्ञा सत्व-रूपा ततः प्रिये ।
रजोरूपा तमोरूपा मातृका रूपिणी गुरुः ॥
एतास्तु परमेशानी मृर्त्तिः पंचाशदक्षरम् ।
डाकिनी च महादेवि अणिमा सिद्धि दायिनी ॥
शाकिनी लघिमा सिद्धिदायिनी लाकिनी तथा ।
प्राप्ति सिद्धिदायिनी च काकिनी काम्यदायिनी ॥
शाकिनी माहिमा सिद्धि हाकिनी ततः ।
कामावशायिता सिद्धि जपादेव प्रयच्छति ॥
भावार्थः हे पार्वती ! डाकिनी, राकिनी, लाकिनी, काकिनी, शाकिनी, हाकिनी सतोगुणी देवियां हैं । इनके अतिरिक्त रजोगुणी, तमोगुणी व मातृका रूप व ग्रुरु आदि सब पचासाक्षर ही मूर्ति हैं । हे देवी ! डाकिनी देवी अणिमा सिद्धि प्रदान करती है, राकिनी व लाकिनी लघिमा और काम्यफल प्रदान करती हैं । जबकि काकिनी प्राप्तिरूप सिद्धि देनेवाली व शाकिनी महिमा सिद्धि प्रदान करती है । हाकिनी काम्यकर्म, वशीकरण आदि की सिद्धि प्रदान करती है ।
सत्वरूपा तमोरूपा रजोरूपा तथैव च ।
एताश्चैव महादेवि चतुर्वर्ग ददंति हि ॥
पंचाशद्वर्णरूपा या निर्वाणं सा ददाति हि ।
ग्रुरुर्ददाति सकलं ब्रह्मांड ज्ञानमव्ययम्।
इति ते कथितं भक्या डाकिन्यादि विनिर्णयम् ॥
भावार्थः हे महादेवी ! सतोगुणी, रजोगुणी व तमोगुणी देवियां चारों पदार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) प्रदान करती हैं ।५० वर्णींय मातृका देवी मोक्ष देती है । गुरु से ब्रह्मांड का ज्ञान प्राप्त होता है । तुम्हारी श्रद्धाके कारण ही मैंने डाकिनी आदि का वर्णन किया है ।
डाकिनी राकिनी चैव लाकिनी काकिनी तथा ।
शाकिनी डाकिनी देवी वर्णानामंत्र देवता ।
भावार्थः हे देवीः डाकिनी, राकिनी, लाकिनी, काकिनी, शाकिनी, हाकिनी वर्णमंत्र की देवता हैं ।
गुणानां सिद्धि वर्णानां षडेते अधिदेवताः ।
डाकिनादेविना ज्ञानं वर्णे वर्णे पृथक् पृथक् ॥
अज्ञानात् प्रजपेन्मंत्रं डाकिन्यादेश्च भक्षणम् ।
विना वर्ण परिज्ञानम् कोटि पुरश्चरणेन किम् ॥
तस्य सर्वं भवेद् दुःखमरण्ये रोदा नं यथा ।
श्रृणु ध्यानं प्रवक्ष्यामि डाकिनीनां शुचिस्मिते ॥
भावार्थः हे पार्वती ! सिद्धिप्रदाता वर्णों के उपरोक्त छह अधिदेव हैं । प्रत्येक वर्ण का अलग-अलग जाप करने से उस मंत्र का डाकिनी भक्षण कर लेती है । इन अधिदेवों के अभाव में करोडों पुरश्चरण किए जाएं तो वह भी निष्फल ही सिद्ध होते हैं । यही कारण है कि जंगल में रुदन करने के समान ही मंत्र जापक दुख भोगता है । हे सुंदरी ! अब तुम डाकिनी आदि की ध्यान विधि एकाग्र होकर सुनो ।
शरच्चंद्र प्रतीकाशां द्विभुजां लोल लोचनाम् ।
सिंदूर तिलकोद्दीप्त अजंनांजित लोचनाम् ॥
कृष्णांबर परिधानां नाना लंकार भूषिताम् ।
ध्यायेच्छशिमुखीं नित्या डाकिनीं मंत्र सिद्धये ॥
भावार्थः हे पार्वती ! मंत्रसिद्धि के लिए डाकिनी देवी का ध्यान करते समय भावना करनी चाहिए कि वह देवी शरत्काल के चंद्रमा के समान शुभ्र, दो भुजाओंवाली हैं । उनके नेत्र सुंदर हैं । ललाट पर सिंदूर का तिलक शोभायमान है । नेत्रों में अंजन लगा है । देवी काले वस्त्र पहने हुए हैं तथा अनेक प्रकार के आभूषण उनके अंगों पर सुशोभित हैं ।
अरुणादित्य संकाशां द्विभुजां मृगलोचनाम् ।
सिंदूर तिलकोद्दीप्त अंजनांजित लोचनम् ॥
शुक्लांबर परिधानां नाना भरण भूषिताम् ।
ध्यायेच्छशिमुखीं नित्यं राकिनीं मंत्रसिद्धये ॥
भावार्थः इसी प्रकार राकिनी देवी का ध्यान करते समय भावना करनी चाहिए कि उनकी आभा बाल सूर्य (नवोदित सूर्य) के समान है, दो भुजाओं, मृगी के नेत्रों जैसे नयनोंवाली देवी के ललाट पर सिंदूर का तिलक शोभायमान है । उनके नेत्रों में अंजन लगा है। देवी श्वेत वस्त्र पहने हुए हैं तथा अनेक प्रकार के आभूषण उनके अंगों पर सुशोभित हैं । वह देवी चंद्रमुखी हैं । इस प्रकार ध्यान करने से मंत्र की सिद्धि होती है ।
सिंदूरवर्ण संकाशां द्विभुजां खंजनेक्षणाम् ।
सिंदूर तिलकोद्दीप्तं अंजनांजित लोचनाम् ॥
शुक्लांबर परिधानां नानालंकार भूषिताम् ।
ध्यायेच्छशिमुखीं नित्यं लाकिनीं मंत्रसिद्धये ॥
भावार्थः लाकिनी देवी का ध्यान करते समय भावना करनी चाहिए कि देवी का वर्ण रक्तिम है, दो भुजाएं हैं, खंजन पक्षी के नेत्रों के समान उनके नेत्र हैं । देवी ने श्वेत वस्त्र पहन रखे हैं तथा अंगों पर अनेक प्रकार के आभूषण सुशोभित हैं । उनका मुख चंद्रमा के समान है ।
यवा यावक संकाशां द्विभुजां खंजनेक्षणाम् ।
सिंदूरतिलकोद्दीप्त अंजनांजित लोचनाम् ॥
शुक्लांबर परिधानां नाना भरण भूषिताम् ।
ध्यायेच्छशिमुखीं नित्यं काकिनीं मंत्रसिद्धये ॥
भावार्थः काकिनी देवी का ध्यान करते समय भावना करनी चाहिए कि देवी का वर्ण आलता सदृश है, दो भुजाएं हैं, खंजन पक्षी के नेत्र सम देवी के नेत्र हैं, ललाट पर सिंदूर का तिलक शोभयमान है । नेत्रों में अंजन लगा है । श्वेत वस्त्र पहने हुए देवी विभिन्न आभूषणों से अलंकृत हैं तथा उनका मुख चंद्रमा के समान है । इस रूप में ध्यान करने से देवी सिद्धि प्रदान करती हैं ।
शुक्लज्योतिः प्रतीकाशां द्विभुजां मृगलोचनाम् ।
सिंदूर तिलकोद्दीप्त अंजनांजित लोचनाम् ॥
कृष्णांबर परिधानां नाना अलंकार भूषिताम् ।
ध्यायेच्छशिमुखीं नित्यं शाकिनीं मंत्रसिद्धये ॥
भावार्थः शाकिनी देवी का ध्यान करते समय भावना करनी चाहिए कि देवी का वर्ण श्वेत ज्योति के समान है । दो भुजाएं हैं । नेत्र मृगी के नेत्रों जैसे हैं । ललाट पर सिंदूर का तिलक शोभायमान है । नेत्रों में अंजन लगा है । काले वस्त्र पहने देवी विभिन्न आभूषणों से अलंकृत हैं । मुख चंद्रमा के समान है । इस प्रकार देवी का ध्यान करने से मंत्र की सिद्धि होती है ।
शुक्ल कृष्णारुणाभासां द्विभुजां लोल लोचनाम् ।
भ्रमद् भ्रमर संकाशां कुटिलालक कुंतलाम् ॥
सिंदूर तिलकोद्दीप्त अंजनांजित् लोचनाम् ।
रक्तवस्त्र परिधानां शुक्ल वस्त्रोत्तरीयिणीम् ।
ध्यायेच्छशिमुखीं नित्यं हाकिनीं मंत्रसिद्धये ॥
भावार्थः हाकिनी देवी का ध्यान करते समय भावना करनी चाहिए कि देवी का वर्ण तेजोमय श्वेत-श्याम व रक्तिम है, दो भुजाएं हैं, नेत्र सुंदर हैं । मधुरस का पान करते भ्रमरों के समान जिनकी केशराशि है । ललाट पर सिंदूर का तिलक शोभायमान है । नेत्रों में अंजन लगा है । देवी रक्तिम वस्त्र पहने हुए हैं जिन पर श्वेत वर्ण का उत्तरीय (दुपट्टा) है । चंद्रम्मा के समान मुखवाली हाकिनी देवी का ध्यान करने से मंत्र सिद्धि होती है ।