श्री जगन्मंगल कवचम्
काली का यह कवच भोग व मोक्ष प्रदायक, मोहिनी शक्ति देने वाला, अघों (पापों) का नाश करने वाला, विजयश्री दिलाने वाला अद्भुत कवच है । इसका नित्य पाठ करने से मनुष्य में अनुपम तेज उत्पन्न होता हैं, जिसके प्रभाव से तीनों ही लोकों के जीव उस मनुष्य के वशीभूत हो जाते हैं । तेज प्रभाव के गुण से युत यह कवच देवी को अतिप्रिय भी है ।
भैरव्युवाच
काली पूजा श्रुता नाथ भावाश्च विविधाः प्रभो ।
इदानीं श्रोतु मिच्छामि कवचं पूर्व सूचितम् ॥
त्वमेव शरणं नाथ त्राहि माम् दुःख संकटात् ।
सर्व दुःख प्रशमनं सर्व पाप प्रणाशनम् ॥
सर्व सिद्धि प्रदं पुण्यं कवचं परमाद्भुतम् ।
अतो वै श्रोतुमिच्छामि वद मे करुणानिधे ॥
भावार्थः भैरवी बोलीं कि हे प्रभो ! मैंने काली पूजा व भावों को सुना । अब मैं काली कवच सुनना चाहती हूं । आप कृपा करके सिद्धिदायक, पवित्र, पापशामक काली कवच मुझे बताएं ।
भैरवोवाच
रहस्यं श्रृणु वक्ष्यामि भैरवि प्राण वल्लभे ।
श्री जगन्मङ्गलं नाम कवचं मंत्र विग्रहम् ॥
पाठयित्वा धारयित्वा त्रौलोक्यं मोहयेत्क्षणात् ।
नारायणोऽपि यद्धत्वा नारी भूत्वा महेश्वरम् ॥
भावार्थः भैरव बोले कि हे प्राणवल्लभे ! अब मैं तुम्हें जगन्मंगल कवच बताता हूं । इस कवच को पढने व धारण करने से त्रिभुवन के आकर्षण की शक्ति प्राप्त होती है । भगवान विष्णु ने भी इस कवच को धारण करके ही स्त्री रूप से शिव को आकर्षित किया था ।
योगिनं क्षोभमनयत् यद्धृत्वा च रघूद्वहः ।
वरदीप्तां जघानैव रावणादि निशाचरान् ॥
यस्य प्रसादादीशोऽपि त्रैलोक्य विजयी प्रभुः ।
धनाधिपः कुबेरोऽपि सुरेशोऽभूच्छचीपतिः ।
एवं च सकला देवाः सर्वसिद्धिश्वराः प्रिये ॥
भावार्थः योगीरूप में श्रीराम ने भी इस कवच को धारन करके ही दैत्यराज रावण व अन्य राक्षसों का वध किया था और तीनों लोलों के स्वामी कहलाए । कुबेर धनपति हुए, देवराज इंद्र व अन्य देवता भी इसी के प्रभाव से सिद्धि संपन्न हुए ।
विनियोग
ॐ श्री जगन्मङ्गलस्याय कवचस्य ऋषिः शिवः ।
छ्न्दोऽनुष्टुप् देवता च कालिका दक्षिणेरिता ॥
जगतां मोहने दुष्ट विजये भुक्तिमुक्तिषु ।
यो विदाकर्षणे चैव विनियोगः प्रकीर्तितः ॥
अथ कवचम्
शिरो मे कालिकां पातु क्रींकारैकाक्षरीपर ।
क्रीं क्रीं क्रीं मे ललाटं च कालिका खड्गधारिणी ॥
हूं हूं पातु नेत्रयुग्मं ह्नीं ह्नीं पातु श्रुति द्वयम् ।
दक्षिणे कालिके पातु घ्राणयुग्मं महेश्वरि ॥
क्रीं क्रीं क्रीं रसनां पातु हूं हूं पातु कपोलकम् ।
वदनं सकलं पातु ह्णीं ह्नीं स्वाहा स्वरूपिणी ॥
भावार्थः क्रींकारैक्षरी व काली मेरे शीश की, खङ्गधारिणी व क्रीं क्रीं क्री मेरे ललाट की, हूं हूं नेत्रों की, ह्नीं ह्नीं कर्ण की, दक्षिण काली नाक की, क्रीं क्रीं, क्रीं क्रीं जिह्वा कीं, हूं हूं गालों की, स्वाहास्वरूपा मेरे समूचे शरीर की रक्ष करें ।
द्वाविंशत्यक्षरी स्कन्धौ महाविद्यासुखप्रदा ।
खड्गमुण्डधरा काली सर्वाङ्गभितोऽवतु ॥
क्रीं हूं ह्नीं त्र्यक्षरी पातु चामुण्डा ह्रदयं मम ।
ऐं हूं ऊं ऐं स्तन द्वन्द्वं ह्नीं फट् स्वाहा ककुत्स्थलम् ॥
अष्टाक्षरी महाविद्या भुजौ पातु सकर्तुका ।
क्रीं क्रीं हूं हूं ह्नीं ह्नीं पातु करौ षडक्षरी मम ॥
भावार्थः बाईस अक्षरी गुप्त विद्या स्कंधों की, खङ्ग-मुंडधारिणी काली समूचे शरीर की, क्रीं क्री, हूं ह्नीं चामुंडा ह्रदय की, ऐं हूं ऊं ऐं स्तनों की, ह्नी फट् स्वाहा पृष्ठभाग की, अष्टाक्षरी विद्या बाहों की, क्रीं क्रीं हूं हूं ह्नीं ह्नीं विद्या हाथों की रक्षा करें ।
क्रीं नाभिं मध्यदेशं च दक्षिणे कालिकेऽवतु ।
क्रीं स्वाहा पातु पृष्ठं च कालिका सा दशाक्षरी ॥
क्रीं मे गुह्नं सदा पातु कालिकायै नमस्ततः ।
सप्ताक्षरी महाविद्या सर्वतंत्रेषु गोपिता ॥
ह्नीं ह्नीं दक्षिणे कालिके हूं हूं पातु कटिद्वयम् ।
काली दशाक्षरी विद्या स्वाहान्ता चोरुयुग्मकम् ॥
ॐ ह्नीं क्रींमे स्वाहा पातु जानुनी कालिका सदा ।
काली ह्रन्नामविधेयं चतुवर्ग फलप्रदा ॥
भावार्थः नाभि की क्रीं, मध्यभाग की दक्षिणकाली, क्रीं स्वाहा व दशाक्षरी विद्या पृष्ठ भाग की, क्रीं गुप्त अंगों की रक्षा करे । सत्रह अक्षरी विद्या सभी अंगों की रक्षा करे । ह्नीं ह्नीं दक्षिणे कालिके हूं हूं कमर की दशाक्षरी विद्या ऊरुओं की, ऊं ह्नी क्रीं स्वाहा जानुओं की रक्षा करे । काली नाम की यह विद्या चारों पदार्थों को देने वाली है ।
क्रीं ह्नीं ह्नीं पातु सा गुल्फं दक्षिणे कालिकेऽवतु ।
क्रीं हूं ह्नीं स्वाहा पदं पातु चतुर्दशाक्षरी मम ॥
खड्गमुण्डधरा काली वरदाभयधारिणी ।
विद्याभिः सकलाभिः सा सर्वाङ्गमभितोऽवतु ॥
भावार्थः क्रीं ह्नीं ह्नीं गुल्फ की, क्रीं हूं ह्नीं चतुर्दशाक्षरी विद्या शरीर की रक्षा करे । खङ्ग-मुंड धारिणी, वरदात्री-भयहारिणी विद्याओं सहित मेरे समूचे शरीर की रक्षा करें ।
काली कपालिनी कुल्ला कुरुकुल्ला विरोधिनी ।
विपचित्ता तथोग्रोग्रप्रभा दीप्ता घनत्विषः ॥
नीला घना वलाका च मात्रा मुद्रा मिता च माम् ।
एताः सर्वाः खड्गधरा मुण्डमाला विभूषणाः ॥
रक्षन्तु मां दिग्निदिक्षु ब्राह्मी नारायणी तथा ।
माहेश्वरी च चामुण्डा कौमारी चापराजिता ॥
वाराही नारसिंही च सर्वाश्रयऽति भूषणाः ।
रक्षन्तु स्वायुधेर्दिक्षुः दशकं मां यथा तथा ॥
भावार्थः कालीं, कपालिनी, कुल्ला, कुरुकुल्ला, विरोधिनी, विपचिता, उग्रप्रभा, नीला घना, वलाका, खङ्ग धारिणी, मुंडमालिनी, ब्राह्नी, नारायणी, महेश्वरी, चामुंडा, कौमारी, अपराजिता, वाराही, नरसिंही आदि सभी दिशाओं-विदिशाओं में मेरी रक्षा करें ।
प्रतिफलम्
इति ते कथित दिव्य कवचं परमाद्भुतम् ।
श्री जगन्मङ्गलं नाम महामंत्रौघ विग्रहम् ॥
त्रैलोक्याकर्षणं ब्रह्मकवचं मन्मुखोदितम् ।
गुरु पूजां विधायाथ विधिवत्प्रपठेत्ततः ॥
कवचं त्रिःसकृद्वापि यावज्ज्ञानं च वा पुनः ।
एतच्छतार्धमावृत्य त्रैलोक्य विजयी भवेत् ॥
भावार्थः मैंने यह जगन्मंगल नामक महामंत्र कवच कहा है, जो दिव्य व चमत्कारी है । इस कवच से त्रिभुवन को वशीभूत किया जा सकता है । कवच को गुरु-पूजा के बाद ग्रहण किया जाता है । कवच पाठ बार-बार जीवनपर्यंत करना चाहिए । इसका नित्य पचास बार पाठ करने से पाठकर्त्ता में तीनों लोकों को जीतने जितनी शक्ति आ जाती है ।
त्रैलोक्यं क्षोभयत्येव कवचस्य प्रसादतः ।
महाकविर्भवेन्मासात् सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् ॥
पुष्पाञ्जलीन् कालिका यै मुलेनैव पठेत्सकृत् ।
शतवर्ष सहस्त्राणाम पूजायाः फलमाप्नुयात् ॥
भावार्थः इस कवच के प्रभाव से तीनों लोकों को क्षोभित (आंदोलित) किया जा सकता है । इतना ही नहीं, एक मास में ही पाठकर्त्ताको सभी सिद्धियां हस्तगत हो जाती हैं । काली का मूल मंत्र बोलकर पुष्पांजलि देकर कवच का पाठ करने से लाखों वर्ष की पूजा का फल प्राप्त होता है ।
भूर्जे विलिखितं चैतत् स्वर्णस्थं धारयेद्यदि ।
शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा धारणाद् बुधः ॥
त्रैलोक्यं मोहयेत्क्रोधात् त्रैलोक्यं चूर्णयेत्क्षणात् ।
पुत्रवान् धनवान् श्रीमान् नानाविद्या निधिर्भवेत् ॥
ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि तद् गात्र स्पर्शवात्ततः ।
नाशमायान्ति सर्वत्र कवचस्यास्य कीर्तनात् ॥
भावार्थः भोजपत्र या स्वर्णपत्र पर कवच को लिखकर धारण करने या शीश व दाईं भुजा अथवा गले में धारण करने वाला तीनों लोकों को आकर्षित या नष्ट करने में समर्थ हो जाता है । ऐसा मनुष्य पुत्र, धन, कीर्ति व अनेक विद्याओं में दक्ष होता है । उस पर ब्रह्मास्त्र या अन्य शस्त्र का भी प्रभाव नहीं पडता । कवच के प्रभाव से सभी अनिष्ट दूर होते हैं ।
मृतवत्सा च या नारी वन्ध्या वा मृतपुत्रिणी ।
कण्ठे वा वामबाहौ वा कवचस्यास्य धारणात् ॥
वह्वपत्या जीववत्सा भवत्येव न संशयः ।
न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः ॥
शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यो ह्यन्यथा मृत्युमाप्नुयात् ।
स्पर्शामुद्धूय कमला वाग्देवी मन्दिरे मुखे ।
पौत्रान्तं स्थैर्यमास्थाय निवसत्येव निश्चितम् ॥
भावार्थः यदि बंध्या या मृतवत्सा स्त्री इस कवच को गले या बाईं भुजा में धारण करे तो उसको संतान की प्राप्ति होती है । इसमें लेश भी संशय नहीं है । यह कवच अपने भक्त-शिष्य को ही देना चाहिए । अन्य को देने से वह मृत्यु मुख में जाता है । कवच के प्रभाव से साधक के घर में लक्ष्मी का स्थायी वास होता है और उसे वाचासिद्धि की प्राप्ति होती है । ऐसा पुरुष अंतकाल तक पौत्र-पुत्र आदि का सुख भोगता है ।
इदं कवचं न ज्ञात्वा यो जपेद्दक्षकालिकाम् ।
शतलक्षं प्रजप्त्वापि तस्य विद्या न सिद्धयति ।
शस्त्रघातमाप्नोति सोऽचिरान्मृत्युमाप्नुयात् ॥
भावार्थः इस कवच को जाने बिना ही जो मनुष्य काली मंत्र का जप करता है । वह चाहे कितना ही जप करे, सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती और वह शस्त्र द्वारा मरण को प्राप्त होता है ।