हनुमज्जन्म - महोत्सव
( व्रतरत्नाकर ) -
' आश्विनस्यासिते पक्षे भूतायां च महानिशि । भौमवारेऽज्जनादेवी हनूमन्तमजीजनत् ॥'
अमान्त आश्विन ( कार्तिक ) कृष्ण चतुर्दशी भौमवारकी महानिशा ( अर्धरात्रि ) में अज्जनादेवीके उदरसे हनुमानजीका जन्म हुआ था । अतः हनुमद -
शौर्योदार्यधैर्यादिवृद्धयर्थं हनुमत्प्रीतिकामनया हनुमज्जयन्तीमहोत्सवं करिष्ये '
यह संकल्प करके हनुमानजीका यथाविधि षोडशोपचार पूजन करें । पूजनके उपचारोंमें गन्धपूर्ण तेलमें सिन्दूर मिलाकर उससे मूर्तिको चर्चित करे । पुत्राम ( पुरुष नामके हजारा - गुलहजारा आदि ) के पुष्प चढ़ाये और नैवेद्यमें घृतपूर्ण चूरमा या घीमें सेंके हुए और शर्करा मिले हुए आटेका मोदक और केला, अमरुद आदि फल अर्पण करके वाल्मीकीय रामायणके प्रदर्शन कराये । यद्यपि अधिकांश उपासक इसी दिन हनुमज्जयन्ती मनाते हैं और व्रत करते हैं, परन्तु शास्त्रान्तरमें चैत्र शुक्ल पूर्णिमाको हनुमज्जन्मका उल्लेख किया है; अतः इसका चैत्रके व्रतोंमें भी वर्णन मिलेगा और हनुमानजीका पूजाविधान होग । ..... कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीको हनुमज्जयन्ती मनानेका यह कारण है कि लङ्काविजयके बाद श्रीराम अयोध्या आये । पीछे भगवान् रामचन्द्रजीने और भगवती जानकीजीने वानरादिको विदा करते समय यथायोग्य पारितोषिक दिया था । उस समय इसी दिन ( का० कृ० १४ को ) सीताजीने हनुमानजीको पहले तो अपने गलेकी माला पहनायी ( जिसमें बड़े - बड़े बहुमूल्य मोती और अनेक रत्न थे ), परंतु उसमें राम - नाम न होनेसे हनुमानजी उससे संतुष्ट न हुए । तब सीताने अपने ललाटपर लगा हुआ सौभाग्यद्रव्य ' सिंदूर ' प्रदान किया और कहा कि ' इससे बढ़कर मेरे पास अधिक महत्त्वकी कोई वस्तु नहीं है, अतएव तुम इसक हर्षके साथ धारण करो और सदैव अजरामर रहो ।' यही कारण है कि कार्तिक कृष्ण १४ को हनुमज्जन्म - महोत्सव मनाया जाता है और तैल - सिंदूर चढ़ाया जाता है ।