कार्तिकस्त्रान
( हेमाद्रि ) -
धर्म - कर्मादिकी साधनाके लिये स्त्रान करनेकी सदैव आवश्यकता होती है । इसके सिवा आरोग्यकी अभिवृद्धि और उसकी रक्षाके लिये भी नित्य स्त्रानसे कल्याण होता है । विशेषकर माघ, वैशाख और कार्तिकका नित्य स्त्रान अधिक महत्त्वका है । मदनपारिजातमें लिखा है कि -
' कार्तिकं सकलं मासं नित्यस्त्रायी जितेन्द्रियः । जपन् हविष्यभुकछान्तः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥'
कार्तिक मासमें जितेन्द्रिय रहकर नित्य स्त्रान करे और हविष्य ( जौ, गेहूँ, मूँग तथा दूध - दही और घी आदि ) का एक बार भोजन करे तो सब पाप दूर हो जाते हैं । इस व्रतको आश्विनकी पूर्णिमासे प्रारम्भ करके ३१ वें दिन कार्तिक शुक्ल पूर्णिमाको समाप्त करे । इसमें स्त्रानके लिये घरके बर्तनोंकी अपेक्षा कुँआ, बावली या तालाब आदि अच्छे होते हैं और कूपादिकी अपेक्षा कुरुक्षेत्रादि तीर्थ, अयोद्या आदि पुरियाँ और काशीकी पाँचो नदियाँ एक - से - एक अधिक उत्तम हैं । ध्यान रहे कि स्त्रानके समय जलाशयमें प्रवेश करनेके पहले हाथ - पाँव और मैल अलग धो ले । आचमन करके चोटी बाँध ले और जल - कुशसे संकल्प करके स्त्रान करे । संकल्पमें कुशा लेनेके लिये अङ्गिराने लिखा है कि
' विना दर्भेश्च यत् स्त्रानं यच्च दानं विनोदकम् । असंख्यातं च यज्जप्तं तत् सर्वं निष्फलं भवेत् ॥'
स्त्रानमें कुशा, दानमें संकल्पका जल और जपमें संख्या न हो तो ये सब फलदायक नहीं होते । ......... यह लिखनेकी आवश्यकता नहीं कि धर्मप्राण भारतके बड़े - बड़े नगरों, शहरों या गाँवोंमें ही नहीं, छोटे -छोटे टोलेतकमें भी अनेक नर - नारी ( विशेषकर स्त्रियाँ ) बड़े सबेरे उठकर कार्तिकस्त्रान करतीं, भगवानके भजन गातीं और एकभुक्त, एकग्रास, ग्रास - वृद्धि, नक्तव्रत या निराहारादि व्रत करती हैं और रात्रिके समय देवमन्दिरों चौराहों गलियों, तुलसीके बिरवों, पीपलके वृक्षों और लोकोपयोगी स्थानोंमें दीपक जलाती और लम्बे बाँसमें लालटेन बाँधकर किसी ऊँचे स्थानमें ' आकाशी दीपक ' प्रकाशित करती हैं ।